सोशल मीडिया का सिरदर्द इन दिनों लगातार बढ़ता जा रहा है। सबसे बड़ी समस्या इस मंच पर पटकी जाने वाली भ्रामक और गलत सूचनाओं के अलावा इसके जरिये फैलाई जाने वाली अफवाहें हैं, जो समाज में जानलेवा हिंसक घटनाओं का कारण बन रही हैं।
डॉ. राकेश पाठक ने अपने भाषण में इसी समस्या को उठाया। उन्होंने कहा कि इस झूठ के खिलाफ हमें खड़ा होना पड़ेगा। गांधी जिस सामाजिक समरसता की बात कहते हैं वह आज छिन्न भिन्न की जा रही है। हमें हर उस हरकत को नाकाम करना होगा जो देश की एकता और अखंडता को नष्ट करना चाहती है। यह लड़ाई हम सबकी है। ऐसा करके ही हम देश और लोकतंत्र को बचा पाएंगे।
चंद्रकांत नायडू ने कहा कि हम सबके भीतर एक गांधी होता है। जब हम सेवाग्राम आते हैं तो वह जाग जाता है और जब यहां से चले जाते हैं तो सो जाता है। हालात बदलने हैं तो हमें सवाल पूछने होंगे। जब सवाल नहीं पूछे जाते तो उसका फायदा सरकारें उठाती हैं। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई लेकिन वह काम उन्होंने चोरी छिपे नहीं किया। पर आज हम कुछ और देख रहे हैं। ऐसी परिस्थितियां बनाई जा रही हैं कि हम डरें।
अरविंद मोहन ने चंपारण सत्याग्रह के संदर्भ में गांधी और उनके संचार कौशल की बात की। उन्होंने कहा कि यह गांधी के संचार कौशल का ही कमाल था कि चंपारण सत्याग्रह को लेकर अंग्रेज सरकार पर जबरदस्त दबाव बना और उसे अंतत: झुकना पड़ा। गांधी ने कभी एकतरफा संवाद नहीं किया। उनका संचार इसलिए सफल रहा क्योंकि उन्होंने अपनी कथनी और करनी में कोई भेद नहीं रखा।
पीयूष बबेले ने कहा कि गांधी पर पहला पत्थर संघ के लोगों ने नहीं वामपंथियों ने मारा था। गांधी के हवाले से कहा जाता है कि वैसे तो हिंसा नाजायज है लेकिन यदि किसी की रक्षा करने के लिए हिंसा करनी हो तो वह जायज है। यह बात ही अपने आप में बहुत खतरनाक है। हमारी दिक्कत यह है कि हमारी रुचि गांधी में कम और गांधी का विशेषज्ञ बनने में ज्यादा है।
विनीत कुमार ने कहा कि सोशल मीडिया को गाली तो बहुत दी जाती है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसने उन बेजुबानों को आवाज दी है, जिन्हें कभी बोलने ही नहीं दिया गया। जिसे हम मीडिया कहकर संबोधित करते हैं वह सिर्फ मीडिया ही नहीं उसके साथ और भी बहुत कुछ है। आज फेक न्यूज की बहुत चर्चा होती है और उसके लिए सोशल मीडिया को दोषी ठहरा दिया जाता है लेकिन ज्यादातर फेक न्यूज तो राजनीतिक दलों के आईटी सेल से जनरेट होती हैं।
अगला सत्र गांधी और पत्रकारिता की संभावनाएं विषय पर केंद्रित था। इस पर वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल, सोपान जोशी, राकेश दीक्षित, अजीतसिंह और स्वतंत्र मिश्र ने अपनी बात रखी। चर्चा की शुरुआत करते हुए राजेश बादल ने कहा कि गांधी ने गुलामी की राष्ट्रीय चुभन को हलका किया। आज गांधी को शापित करने का उपक्रम चल रहा है। हमारा दोष यह है कि हमने गांधी के प्रति अपने कृतज्ञ भाव को जीवित रखते हुए कभी इसका प्रतिरोध नहीं किया।
सोपान जोशी ने कहा कि पत्रकार के नाते गांधी को लगता था कि पढ़ना, लिखना और संपादन ये तीनों ही क्रियाएं ध्यान से और सोच समझकर होनी चाहिए, हड़बड़ी में नहीं। थोड़ी धीमी गति से, नैसर्गिक गति से भी पत्रकारिता की जा सकती है, ऐसी पत्रकारिता जो लोगों में विचार का संचार करे।
गांधी के लिखे में पाठकों के लिए सब्र के साथ पढ़ने के निर्देश बार-बार आते हैं। वे पाठक को धीमे-धीमे पढ़ने को कहते थे, कई बार पढ़ने को कहते थे। उनका कहना था कि कभी कभी लच्छेदार भाषा में लिखने को मन करता है तो कभी क्रोध के वश में आकर शब्दों में सारा जहर उगल देने की इच्छा होती है, लेकिन बेहतर यही है कि हम संयम और विवेक से लिखें।
सोपान ने गांधी का जिक्र करते हुए जो कहा उसकी तुलना यदि आज के समय से करें तो आज पत्रकारिता में धीरज की जगह आपाधापी ने ले ली है। आज या तो लच्छेदार भाषा का उपयोग किया जा रहा है या फिर अपने भीतर का सारा जहर शब्दों के रूप में समाचार माध्यमों में उगला जा रहा है। आज संवाद के लिए गति ही सबकुछ हो गई है, फैसला इस बात से होता है कि कौन कितना तेज दौड़ रहा है.. सबसे आगे… सबसे तेज…
अगला सत्र गांधी और हमारे अहसास विषय पर केंद्रित था इस सत्र में दयाशंकर मिश्र, सूर्यकांत पाठक, बाबा मायाराम, पशुपति शर्मा, चंदन शर्मा, नरेश भदौरिया व मैत्रेय पाठक ने अपनी बात रखी। सबसे रोचक और अलहदा ढंग से बात की पत्रकार दयाशंकर मिश्र ने। उन्होंने अपने विवाह का एक नितांत निजी अनुभव साझा करते हुए बताया कि किस तरह गांधी की सीख ने उनका बाल विवाह होने से रोका। दयाशंकर का कहना था कि गांधी को हमने महात्मा बनाकर अपने से अलग करने की कोशिश की है इसके बजाय उन्हें अपने ही बीच का व्यक्ति मानकर अपनाना होगा।
पशुपति शर्मा ने कहा कि गांधी को लेकर हमारे पास कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं है कि कैसे हम उन्हें अपने जीवन में उतारें। हम राम का सर्किट बनाने की बात करते हैं लेकन गांधी का सर्किट नहीं बनाते। चंदन शर्मा ने कहा कि राम आज होते तो उनका मन अयोध्या में नहीं लगता, उसी तरह गांधी आज होते तो उनका मन भी सेवाग्राम में नहीं लगता। हम गांधी के मूल्यों को मारकर उन्हें महात्मा के रूप में प्रतिष्ठित कर रहे हैं। गांधी को पढ़कर नहीं, जी कर ही समझा जा सकता है।
सूर्यकांत पाठक ने कहा कि जब हम हाथ में झाड़ू पकड़ लेते हैं या सफाई करने लगते हैं तो कहीं न कहीं गांधी हमारे जीवन में आ जाते हैं। गांधी अलग अलग प्रतीकों के रूप में हमारे सामने मौजूद होते हैं। वे हमारी जीवन शैली का हिस्सा हैं और भारत से, यहां के मानस से गांधी को अलग करना मुमकिन नहीं है।
(जारी)