बच्चे इन दिनों सबसे ज्यादा चर्चा में हैं। ऐसा लगता है कि बच्चों पर मानो कहर टूटा हुआ है। दुष्कर्म से लेकर हत्या तक की वारदातों में सबसे ज्यादा बच्चे ही शिकार बन रहे हैं। न वे घरों में सुरक्षित हैं न स्कूल में, न सड़क पर सुरक्षित हैं न आश्रय स्थलों में… ऐसे में बच्चों पर होने वाला संवाद बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।
यह संवाद किया गांधीवादी चिंतक और लेखक चिन्मय मिश्र ने। ‘बचपन को हाशिये पर धकेलता वैश्वीकरण’ विषय पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि जिस जगह पर बैठकर हम यह चर्चा कर रहे हैं, उसी जगह बापू ने नई तालीम को लेकर काम किया था और उसे अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ आविष्कार कहा था।
आज के अधिकांश पालकों के लिए बचपन का कोई महत्व नहीं है। उनके लिए बच्चा पैदा होते ही एक कॅरियर है। पालकों के रूप में मूर्खों का एक महाजमावड़ा इकट्ठा हो रहा है, जो अपने बच्चों से पागलों और विक्षिप्तों जैसा व्यवहार कर रहे हैं। ये सेडिस्ट हैं, क्योंकि यह सामान्य व्यक्ति का व्यवहार तो कतई नहीं है।
बच्चों का शोषण अनंत काल से चला आ रहा है जो आज और अधिक वैश्विक हो गया है। भारतीय समाज का चरित्र दो महाकाव्यों के बीच बंटा है। एक रामायण और दूसरा महाभारत। बच्चों पर अत्याचार की जो सीमा महाभारत में है, लगता है उससे आगे कुछ भी नहीं है।
हम ही ऐसे लोग हैं जो अपने बच्चों की बलि ले सकते हैं। कभी एकलव्य के बारे में सोचिये कि उसका अंगूठा किसने लिया? कभी अभिमन्यु के बारे में सोचिये… हमने उसे मां के गर्भ में भी चैन नहीं लेने दिया और वहीं सब कुछ सिखा दिया। लेकिन उसमें भी जानबूझकर चक्रव्यूह से बाहर निकलना नहीं सिखाया।
हम आज तक अपने बच्चों के साथ वही कर रहे हैं। उन्हें चक्रव्यूह में घुसेड़ देते हैं। उन्हें इस अंधी दौड़ में, सड़ांध में डाल देते हैं और उनके हाथ में रुमाल भी नहीं देते कि वे इस बदबू से बच सकें। अभिमन्यु के साथ भी यही किया गया।
सबको पता है कि वह मर जाएगा, लेकिन कोई उसे जाने से नहीं रोकता, सब उसकी बलि लेते हैं। युद्ध के दौरान अमोघ अस्त्र के सामने किसी की बलि देनी होती है तो भीम को घटोत्कच याद आ जाता है। महाभारत में ब्रह्मात्र और कहीं नहीं गिरता वह उत्तरा के गर्भ पर गिरता है।
अश्वत्थामा पांडवों को नहीं मार पाता तो वह उनके पुत्रों को मार देता है। यानी बच्चों के साथ अन्याय मानव जाति के खून में है। बच्चों पर अनादिकाल से गिर रही इसी गाज को रोकने की कोशिश गांधी ने अपनी नई तालीम में की थी। उन्होंने इसके जरिये बच्चों को, उनके बचपन को बचाने का प्रयास किया।
अमेरिका के बारे में हम पढ़ते थे कि वहां गुलामों से उनके बच्चे सिर्फ इसलिए ले लिए जाते थे, क्योंकि वो जो नीग्रो या काली मां है, वह उन गोरों के बच्चों को दूध पिला सके। उसे अपने बच्चों को दूध पिलाने की इजाजत नहीं थी।
हम भी पन्ना धाय को बहुत बड़ा आदर्श मानते हैं, क्योंकि उसने अपने बच्चे का दूध ले लिया और महाराज के बच्चे को पिला दिया। बच्चों से छीन कर लेने की प्रवृत्ति हमारी शुरू से ही रही है। हम नारे भी लगाते हैं तो कहते हैं- बच्चा बच्चा राम का…
यहूदियों के बच्चों के साथ घोर अत्याचार होता है, लेकिन विडंबना देखिये कि जब उन्हीं यहूदियों को राज मिल जाता है तो वे फिलीस्तीन में तीन लाख बच्चों को मार डालते हैं। यानी जिनके साथ अन्याय हुआ, वे जब न्याय करने वाले की भूमिका में पहुंचते हैं तो वे दुगुना अन्याय करते हैं।
हमारे यहां कुपोषण से मरने वाले बच्चों की तो बात ही छोड़ दीजिये। इसी महाराष्ट्र में लाखों किलो मिल्क पाउडर सड़ रहा है, देश के गोदामों में करोड़ों किलो अनाज सड़ रहा है, लेकिन यह सामग्री बच्चों को देने के लिए नहीं है।
निर्भया के समय सारा देश उस घटना के साथ खड़ा हुआ था, लेकिन आज मुजफ्फरपुर में जो हुआ उसमें क्या हमें देश में वैसी प्रतिक्रिया दिखाई देती है? ऐसा शायद इसलिए है कि जिन बच्चों के साथ वो हादसा हुआ वे अनाथ बच्चे थे। आपके समाज की गंदगी थे और उनसे किसी को क्या फर्क पड़ता है।
आज हमारे आसपास क्या हो रहा है? पिछले दिनों हम कहीं जा रहे थे, रास्ते में एक बच्चा दिखा… सोचा गाड़ी रोककर उससे बात करें, लेकिन तुरंत मन में कुछ विचार आया और हम वहां रुकने के बजाय आगे बढ़ गए। 30-35 साल समाज में काम करने के बाद आज हमारे मन में यह डर कैसे आया? क्यों आया?
आज बच्चों से इंसान के लगाव को तोड़ने की कोशिश हो रही है। वरना क्यों जरूरी है कि घर से निकलते ही बच्चे को यह सिखाया जाए कि किसी अजनबी की तरफ देखना भी मत। आज मानो सारा समाज ही ऐसा मान लिया गया है, जो बच्चे को जहर देने के लिए खड़ा है।
और यह वातावरण बनाने में बच्चों का कोई योगदान नहीं, यह सब बड़ों का किया धरा है। स्कूल और कॉलेज के बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं, पढ़ाई को लेकर,फीस को लेकर… क्योंकि हमने वातावरण ही ऐसा बना दिया है।
ये सारी बातें नए भारत के निर्माण में बहुत बड़ी रुकावट हैं। हमें सीरिया का बच्चा अपना नहीं दिखता, हमें बांग्लादेश का बच्चा अपना नहीं दिखता, हम यह सोचकर निश्चिंत हो जाते हैं कि हमारे चकलाघरों में काम करने वाली लड़कियां नेपाल की हैं।
जो दुनिया हमने बना दी है, उसमें बच्चे को पैदा होते ही प्रौढ़ होना पड़ेगा, उनके नसीब में बचपना नहीं है… क्योंकि जो बचपना है वह उनकी ट्यूशन क्लास में जाएगा। उनके पास खेलने के लिए, उठने-बैठने के लिए जगह नहीं है।
बच्चे हम लोगों की प्राथमिकता में ही नहीं हैं। हां, गांधी जैसे कुछ लोग थे, जिनकी प्राथमिकता में बच्चे थे। जब तक हम चीजों को बच्चों के नजरिये से नहीं देखेंगे, यकीन मानिए हम इस दुनिया को सुधार नहीं सकते। (जारी)