सेवाग्राम राष्ट्रीय मीडिया कॉन्क्लेव की संरचना कुछ इस तरह की गई थी कि विभिन्न सत्रों में जो विषय तय किए गए हैं उनके केंद्र में गांधी रहें और उनके बहाने हमारे सामाजिक और वैचारिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर चर्चा हो। लेकिन मैंने देखा है कि अक्सर ऐसे अनुष्ठानों में आयोजन की मूल भावना का पूरी तरह निर्वाह हो पाना मुश्किल होता है।
मैं यह नहीं कहता कि विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किए जाने वाले वक्ताओं में कोई कमी रहती है, लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि वक्ता अपने विषय से भटक जाते हैं। यह भटकाव दो कारणों से होता है एक तो तब जब उस विषय पर हमारी जानकारी और तैयारी न हो और दूसरे तब जब हम तय करके आए हों कि विषय कुछ भी हो बोलना तो मुझे अपने हिसाब से… अपनी लाइन पर ही है।
गांधी विमर्श के कई सत्रों के दौरान मुझे लगा कि इस प्रवृत्ति का शिकार कई लोग हुए। और इसका नतीजा यह हुआ कि कुछ सत्र बहुत बोझिल और गैरजरूरी से बन गए। जब आपको सुबह नौ बजे से रात आठ बजे तक यानी पूरे 11 घंटे लगातार बैठकर वक्ताओं को सुनना हो तो, परोसी जाने वाली सामग्री भी ऐसी होनी चाहिए जो आपको अपनी जगह से चिपके रहने पर मजबूर करके रखे।
विमर्श के दूसरे सत्र में ऐसा चिपकाए रखने वाला वक्तव्य सोपान जोशी का था। इस सत्र का मुख्य विषय था-’और प्रासंगिक होते गांधी’ इसके अतंर्गत जिन उप-विषयों पर बात होनी थी उनमें रोजगार व आजीविका के प्रश्न, अहिंसा ही समाधान, स्वच्छता और शुचिता के वर्तमान संदर्भ, आधुनिक शिक्षा की गफलत:बुनियाद को तोड़ती तालीम और स्थानीयता की अपरिहार्यता जैसे मुद्दे शामिल थे।
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन ने अपने वक्तव्य में चंपारण आंदोलन के संदर्भ में बात की तो रजनी बख्शी ने अहिंसा पर। एक ने कहा गांधी गोसेवक थे, आज के जैसे गोरक्षक नहीं, जबकि दूसरे वक्ता ने कहा कि गांधी हिंसा को इंसान की बुनियादी फितरत नहीं मानते थे। उनका कहना था कि यदि हिंसा ही हमारी मूल मनोवृत्ति होती तो मानव जाति कब की खत्म हो चुकी होती।
एक सवाल बहुत बार और उसमें भी कई बार बहुत गुस्से के साथ या कि गांधी के प्रति नफरत के साथ उठाया जाता है और वह है भगतसिंह की फांसी के दौरान गांधी की भूमिका। रजनी बख्शी का कहना था कि गांधी यदि भगतसिंह के साथ खड़े होते तो वे हत्या को या हिंसा को जस्टिफाई कर रहे होते। और ऐसा करना उनके बुनियादी विचार के खिलाफ था।
बिहार में प्रभात खबर में काम कर रहे पत्रकार पुष्यमित्र मेरे सहयोगी रहे हैं। उन्होंने अपने संक्षिप्त वक्तव्य में चंपारण सत्याग्रह का ही जिक्र किया लेकिन ताजा संदर्भों के साथ। कहा कि सौ साल पहले गांधी ने चंपारण सत्याग्रह के जरिये किसानों की समस्या को उठाया था, लेकिन आज सौ साल बाद भी उस इलाके में किसान की समस्या तो जस की तस है। तो हमें हासिल क्या हुआ? क्या हमें गांधी के तरीके में आज की परिस्थिति के हिसाब से बदलाव नहीं करना चाहिए?
और फिर बोले सोपान जोशी। सोपान का एक परिचय यह है कि वे प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी के बेटे हैं। उन्होंने ‘जल,थल,मल’ शीर्षक से एक किताब भी लिखी है। स्वच्छता और शुचिता के वर्तमान संदर्भों में विकास और कचरे के परस्पर संबंधों पर केंद्रित अपनी बात सोपान ने विनोबा के उस कथन से की जिसमें विनोबा ने मानवीय संबंधों में तिक्तता का कारण स्नेहन की कमी को बताया था।
सोपान ने कहा कि गांधी ने स्नेह से ही लोगों को जोड़ा था। आज गांधी के संदर्भ में विचार और प्यार की कमी दिखाई देती है। सवाल यह नहीं है कि गांधी क्या करते थे या गांधी कैसे जिये। सवाल यह है कि हम क्या करते हैं और हम कैसे जीना चाहते हैं। इसलिए आज गांधी के बजाय हमें अपनी प्रासंगिकता पर बात करनी होगी।
एक समय का उपनिवेशवाद ही बाद में विकास में तब्दील हो गया। प्रकृति में न कचरा है न सफाई। वहां परस्पर निर्भरता की व्यवस्था है। वनस्पति जो कचरा छोड़ती है वह हमारे लिए प्राणवायु है और हम जो कचरा छोड़ते हैं वह वनस्पति के लिए जीवन है। हमने इस नैसर्गिक व्यवस्था और परस्पर निर्भरता के चक्र को तोडते हुए या उससे अलग होकर कचरे का संसार रचाया है।
सफाई वो दृष्टि है जिसमें हम दूसरों को हीन भावना से देखते हैं। आज हमने सफाई को घृणा का हिस्सा बना दिया है। अपने ही लोगों को हीन भावना से देखना शुरू कर दिया है। हम सीटी बजाते हुए हाथ में डंडा लेकर खुले में शौच करने वाले लोगों को पीटने निकल पड़े हैं। कहते हैं खुले में शौच महिलाओं की सुरक्षा से जुड़ा मसला है।
पुरुष अपनी मानसिकता नहीं बदल सकते इसलिए हमें महिलाओं के लिए शौचालय चाहिए। सवाल यह है कि क्या केवल शौचालय भर बना देने से महिलाओं की सुरक्षा हो सकती है? हमारे लड़कों की आंख में, पुरुषों की नीयत में जो शौचालय बना हुआ है उसका हम क्या करेंगे? उसकी सफाई कैसे होगी?
सूअर प्राकृतिक रूप से सफाई का वाहक है, लेकिन हमने उसे घृणा का पात्र बना दिया है। वो गंदा दिखेगा तभी हम साफ दिखेंगे। हमारी सफाई गंदगी के सापेक्ष है। यह व्यवस्था जोड़ना नहीं घृणा करना सिखाती है। और दुर्भाग्य की बात है कि यह सफाई हमें गांधीजी के चश्मे से दिखाई जाती है। उस चश्मे से देखने का अर्थ तभी है जब हम स्नेहन का प्रयास करें, लाठी लेकर न निकले…
इस सत्र का समापन सेवाग्राम आश्रम संस्थान से जुड़े वैज्ञानिक लेखक रवींद्र रुकमणि पंढरीनाथ के भाषण से हुआ। ‘स्थानीयता की अपरिहार्यता’ पर उन्होंने कहा कि आज दुनिया गांधी की तरफ आ रही है और हम गांधी से दूर जा रहे हैं। गांधी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के यूरोपीय विचारों से बहुत प्रभावित थे।
1929 में गांधी ने चरखे को और उपयोगी बनाने के लिए सुझाव मंगवाए थे और सबसे श्रेष्ठ सुझाव देने वाले के लिए दस लाख रुपये का इनाम रखा गया था। वे सही मायने में वैज्ञानिक थे। लेकिन उनका मानना था कि विकास का मॉडल हमें बाहर से नहीं लाना है, उसे स्थानीय तौर पर ही विकसित करना है। (जारी)