आइए अब उस विषय पर बात करें जिस पर सेवाग्राम में पूरे ढाई दिन बात हुई। केंद्र में थे गांधी। वे गांधी जिनकी 150 वीं जयंती देश मनाने जा रहा है। क्या गांधी की आज कोई अहमियत है, क्या गांधी आज के समाज के लिए उपयोगी हैं, क्या गांधी आज के विषम हालात से समाज को उबारने के लिए कोई दिशा दे सकते हैं, क्या गांधी के भरोसे आज के भारत का भविष्य गढ़ा जा सकता है…???
सवाल अंतहीन हैं… लेकिन गांधी को जानने के लिए, आपको पहले देश को जानना जरूरी है, यहां के सामाजिक तानेबाने को समझना जरूरी है। गांधी ने क्या किया, इसका सही आकलन तभी हो सकता है जब आप भारतीय समाज की जटिलताओं को समझते हों।
वह तो खैर रही कि गांधी को लेकर यह आयोजन सेवाग्राम में हो रहा था, वरना सेवाग्राम आश्रम संस्थान के अध्यक्ष टीआरएन प्रभु ने उद्घाटन सत्र में जो कहा, वह किसी और ने कहीं और कहा होता तो वह इस समय तक ट्रोलर्स के हाथों लहूलुहान किया जा चुका होता।
क्या कहा टीआरएन प्रभु ने…? उन्होंने कहा- ‘’आज देश में धर्म के नाम पर टकराव हो रहा है, गाय के नाम पर हिंसा हो रही है। मुसलमानों को खतरे के रूप में देखा जा रहा है। जबकि… भारत के इतिहास में मुगलों का कितना बड़ा ‘कान्ट्रीब्यूशन’ रहा है। हमें यह ध्यान में रखना होगा कि धार्मिक कट्टरता से कोई फायदा नहीं है।‘’ मैं सोचने लगा, जहां नेहरू के कांट्रिब्यूशन को लेकर ही विवाद चल रहा हो वहां मुगलों के कांट्रिब्यूशन की बात…?
अरुण त्रिपाठी पत्रकार और मीडिया शिक्षक के साथ साथ गांधी के अध्येता भी हैं। लोहिया और गांधी पर वे बहुत अधिकार के साथ बोलते हैं। इसलिए यह उचित ही था कि विषय प्रवर्तन उन्होंने ही किया। अपनी बात उन्होंने गांधी के जीवन से नहीं बल्कि उनकी मृत्यु से शुरू की। और वह भी बहुत दिलचस्प उदाहरण के साथ।
1966 की फिल्म ‘तीसरी मंजिल’ में मजरूह सुलतानपुरी के लिखे गाने- दीवाना मुझ सा नहीं इस अंबर के नीचे, आगे है कातिल मेरा और मैं पीछे पीछे… का जिक्र करते हुए अरुण त्रिपाठी ने कहा कि गांधी 1946 से 1948 तक खुद अपने कातिल के पीछे पीछे दौड़ रहे हैं। उन्हें मालूम है कि कातिल उनके आसपास ही है, लेकिन वे उसके बावजूद अपने मिशन में लगे रहते हैं…
एक किस्सा सुनाते हुए अरुण जी ने कहा- एक बार मैं ट्रेन में सफर कर रहा था और मेरे हाथ में गांधी से जुड़ी एक किताब थी। मेरे सामने बैठे एक व्यक्ति ने वह किताब देखकर गांधी को बहुत बुरा भला कहा। उसने गांधी को जाने किस किस बात के लिए जिम्मेदार ठहराया। ऐसा ही मामला गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के साथ भी है। लोग टिप्पणी करते हैं- कुछ भी हो गोडसे था तो बहादुर…!!
ऐसा लगता है कि हम गांधी को लेकर चुक गए हैं। गांधी को खारिज करने की होड़ सी मची हुई है। उनके खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है। एक तरह का इडिपस कॉम्प्लेक्स है। हम भूल जा रहे हैं कि भारत में पिता की हत्या हुई है और उसका अपराधबोध तक हमसे छीना जा रहा है। मतांतर हो सकते हैं,लेकिन मरते वक्त गांधी के मुंह से ‘हे राम’ ही निकला था।
आश्चर्य तो तब होता है जब राम को मानने वाले ही गांधी की हत्या को जस्टिफाई करने लगते हैं। तो क्या यह हिंदू मानस की ग्रंथि है? हमने इस ग्रंथि को सुलझाने की कोशिश कभी नहीं की। अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने कहा था कि महत्वपूर्ण बात यह है कि आप खुद को कैसे अभिव्यक्त करते हैं। गांधी महान संचारक थे,अगर वे ‘हे राम’ कहकर मरे हैं तो इसमें बहुत बड़ा संदेश छिपा है…
संचार के आधुनिक अध्येता मार्शल मॅक्लूहन कहते हैं Medium is the message यानी माध्यम ही संदेश है। उसी तर्ज पर गांधी कहते हैं ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।‘ गांधी को पढ़ते हुए कलेजा मुंह को आता है। आज की पीढ़ी को यह बताया जाना बहुत जरूरी है कि गांधी को कैसे पढ़ें। सरोजनी नायडू ने गांधी की हत्या के बाद कहा था- ‘ईश्वर उनकी आत्मा को कभी शांति न दे…’
आज हम कह सकते हैं कि वर्तमान हालात में ईश्वर गांधी की आत्मा को अशांत करें और गोडसे की आत्मा को शांत करें… दरअसल गांधी 30 जनवरी 1948 को खत्म नहीं होते, वे उस तारीख के बाद और विराट हो जाते हैं। बड़ी बात यह नहीं कि आपने जीवन कैसा जीया, महत्वपूर्ण यह है कि आपकी मौत कैसे हुई? यह हमारी गलती रही कि हम गांधी के नाम और काम को नीचे तक नहीं ले जा पाए…
गांधी अपना दर्शन कहीं और से नहीं लाते, वे स्वयं अपने जीवन और कर्म से उसे प्रकट करते हैं। बकौल अरुण त्रिपाठी, जरा उस आदमी की ताकत और संकल्प शक्ति की कल्पना तो करके देखिये जो भारत के बीचों बीच एक जंगल में, सेवाग्राम की मिट्टी की झोपड़ी में बैठा उस समय की दुनिया के सबसे बड़े शक्ति केंद्र बंकिंघम पैलेस को सीधे चुनौती देता है…
आज जब चारों तरफ झूठ की फैक्टरियां चल रही हैं, उस माहौल में सत्य को खोजने का रास्ता गांधी ही दिखाते हैं। गांधी सत्य के अन्वेषक हैं। उन्होंने इस धरती पर सत्य का वटवृक्ष रोपा है। हमारा स्वतंत्रता संग्राम एक महाकाव्य है और गांधी उसके महानायक। आज गांधी को हमारी नहीं बल्कि हमें गांधी की जरूरत है। हम बच नहीं पाएंगे, यदि गांधी को नहीं जानेंगे… (जारी)