मध्यप्रदेश में स्वास्थ्य और चिकित्सा संबंधी ढांचे की हालत डॉक्टरों की उपलब्धता के आंकड़ों से समझी जा सकती है। स्वास्थ्य विभाग के वर्ष 2017-18 के प्रशासकीय प्रतिवेदन के मुताबिक राज्य में प्रथम श्रेणी के विशेषज्ञों के कुल 3278 पद स्वीकृत हैं इनमें से सिर्फ 1029 पदों पर विशेषज्ञ काम कर रहे हैं और 2249 पद खाली पड़े हैं।
इसी तरह चिकित्सा अधिकारियों के कुल 4895 पद स्वीकृत हैं जिनमें से 3218 पर ही डॉक्टर काम कर रहे हैं और 1677 पद खाली पड़े हैं। सरकार डॉक्टरों की नियुक्ति करने की कोशिश कर रही है लेकिन यह कोशिश भी सिरे नहीं चढ़ रही।
विभाग की ही जानकारी के मुताबिक 2017 में लोकसेवा आयोग के माध्यम से 726 डॉक्टरों का चयन किया गया लेकिन इनमें से 126 डॉक्टरों ने जॉइन ही नहीं किया। डॉक्टरों की कमी पूरी करने के लिए मेडिकल की पढ़ाई करके निकलने वाले डॉक्टरों के लिए बंध पत्र योजना भी लागू की गई है। वर्ष 2017 में स्नातक स्तर के ऐसे 179 और स्नातकोत्तर स्तर के 429 डॉक्टरों के पदस्थापना आदेश जारी किए गए थे।
बंधपत्र डॉक्टर योजना में यह प्रावधान है कि राज्य के सरकारी मेडिकल कॉलेज से पढ़ाई करने वाले छात्र एमबीबीएस करने के बाद एक साल तक सरकार द्वारा तय स्वास्थ्य केंद्रों/अस्पतालों में अनिवार्य रूप से अपनी सेवाएं देंगे। मुख्यमंत्री मेधावी छात्र योजना से लाभान्वित होने वाले छात्रों के लिए यह अवधि दो साल रखी गई है।
प्रावधान के तहत इन छात्रों को कॉलेज में प्रवेश के समय ही यह लिखकर देना होगा और यदि वे इस बंधपत्र (बांड) की शर्तों का पालन करने में असमर्थ रहते हैं तो उन्हें इसका हरजाना भरना पड़ेगा। सामान्य छात्रों के मामले में यह हरजाना 10 लाख रुपए और आरक्षित वर्ग के छात्रों के मामले में पांच लाख रुपये है।
बंधपत्र की शर्तों का उल्लंघन किए जाने की दशा में शासन को यह अधिकार भी रहेगा कि वह संबंधित छात्र का मध्यप्रदेश मेडिकल कौंसिल में किया गया रजिस्ट्रेशन रद्द भी करवा सकता है। छात्र के शिक्षा संबंधी दस्तावेज भी संबंधित संस्था में जमा रहेंगे और सरकार के निर्देश पर ही वे वापस किए जा सकेंगे।
लेकिन इन सारे उपायों के बावजूद प्रदेश में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा दुरुस्त नहीं हो पाया है। समस्या का हल होते न देख सरकार ने कुछ जिलों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र जैसी इकाइयां निजी क्षेत्र को ठेके पर देने की योजना भी बनाई लेकिन वह भी फलीभूत नहीं हो सकी है।
दिक्कत यह है कि सरकार एक कदम आगे बढ़ाकर दो कदम पीछे खींचने जैसी रणनीति पर काम कर रही है। जैसे कोई पूछे कि डॉक्टरों की मौजूदगी कहां होनी चाहिए तो उसका तार्किक जवाब यह होगा कि अस्पताल में, लेकिन खबरें कहती हैं कि मध्यप्रदेश में 277 सीनियर डॉक्टर विभिन्न सरकारी विभागों में प्रशासनिक पदों पर काम कर रहे हैं।
प्रदेश में डॉक्टरों के कुल स्वीकृत 8173 पदों में से 3926 पद खाली पड़े हों तब यदि करीब पौने तीन सौ डॉक्टर प्रशासनिक काम देख रहे हों और 50 से अधिक डॉक्टर लंबे समय से ड्यूटी से नदारद हों तो फिर मरीजों की किस्मत में तो मरना ही लिखा होगा ना। सरकारी आंकड़े खुद कहते हैं कि 2009 से 2017 के बीच प्रदेश के एसएनसीयू में प्रति हजार 125 से 140 बच्चों की मौत हुई।
स्वास्थ्य संबंधी कुछ सेमिनार और कार्यशालाओं में मुझे जाने का मौका मिला, वहां ज्यादातर लोगों की शिकायत यह थी कि जो डॉक्टर अस्पतालों में पदस्थ हैं, उनसे भी मरीज को देखने की, प्राथमिक ड्यूटी करवाने के बजाय, उनका ज्यादातर समय विभिन्न सरकारी योजनाओं के दस्तावेजीकरण में जाया किया जा रहा है।
मध्यप्रदेश मेडिकल ऑफिसर्स एसोसिएशन के अनुसार प्रदेश में डॉक्टरों की कमी का मुख्य कारण वेतन और सुविधाओं का बहुत बदतर हालत में होना है। एक पदाधिकारी के मुताबिक कुछ राज्यों की तुलना में तो हमारे यहां वेतन करीब आधा है। इसके अलावा डॉक्टरों के प्रमोशन आदि के मामले भी नौकरशाही बरसों बरस लटकाए रखती है। प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों द्वारा किए जाने वाले व्यवहार को लेकर भी डॉक्टरों में खासी नाराजी है।
खुद डॉक्टरों के ही प्रतिनिधि बताते हैं कि आदर्श स्थिति में प्रति 5000 की जनसंख्या पर एक डॉक्टर होना चाहिए। इस लिहाज से देखें तो प्रदेश में 15000 डॉक्टरों की जरूरत है लेकिन उनकी वास्तविक कार्यकारी संख्या 4000 से भी कम है, ऐसे में सरकारी अस्पताल बदहाल तो होने ही हैं।
सरकार हर साल जितने डॉक्टरों की भरती करती है आगे चलकर उनमें से 20 से 30 प्रतिशत को ही टिकाए रख पाती है इसलिए कमी हमेशा बनी रहती है। पिछले कुछ सालों से स्वास्थ्य सेवाओं की बढ़ती मांग के कारण निजी क्षेत्र ने अस्पताल आदि में काफी निवेश किया है। वहां डॉक्टरों का वेतन भी कई गुना अधिक है और सुविधाएं भी… इसके अलावा दूसरे किसी प्रशासनिक काम की चिकचिक भी नहीं है, इसलिए डॉक्टर सरकारी नौकरी छोड़ निजी अस्पतालों की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
प्रदेश में 51 जिला अस्पताल, 66 सिविल अस्पताल, 335 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, 1170 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 9192 उप स्वास्थ्य केंद्र और 49864 ग्राम आरोग्य केंद्र हैं। यहां की स्वास्थ्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सरकार ने प्रदेश में मेडिकल की सीटों में 800 का और इजाफा करने की योजना बनाई है।
निजी मेडिकल कॉलेजों के अलावा कुछ और जिलों में नए सरकारी मेडिकल कॉलेज खोले जा रहे हैं इनमें रतलाम, विदिशा, छिंदवाड़ा,शिवपुरी, दतिया, खंडवा और शहडोल शामिल हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि इन कॉलेजों को चलाने के लिए ही 1200 डॉक्टरों की जरूरत होगी।
मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया के नियमों के मुताबिक मेडिकल कॉलेज में वही डॉक्टर पढ़ा सकता है जिसे काम करने का कम से कम चार साल का अनुभव हो। लेकिन जब इलाज करने के लिए डॉक्टर नहीं मिल रहे तो पढ़ाने के लिए कहां से मिल जाएंगे…