अपने कॉलम का विषय खोजते हुए मैं पिछले एक सप्ताह के अखबार पलट रहा था। अलग अलग खबरों और घटनाओं को पढ़ते पढ़ते अचानक ध्यान गया कि पिछले करीब एक सप्ताह में देश में महिलाओं को लेकर काफी कुछ कहा गया है। लेकिन हालात बता रहे हैं कि तमाम शुभेच्छाओं और बड़ी बड़ी तकरीरों के बावजूद स्थिति में अपेक्षित सुधार कम ही नजर आता है, बल्कि एक लिहाज से स्थितियां और ज्यादा जटिल होती जा रही हैं।
वैसे तो यह देश एक महिला केंद्रित फिल्म को लेकर पिछले साल डेढ़ साल से छाती माथा कूट रहा है। बगैर फिल्म देखे उस पर फतवा जारी करते हुए विभिन्न प्रकार की ‘घरेलू सेनाओं’ ने पूरा देश माथे उठा रखा है। इस दौरान जो घटनाएं हुईं वे बताती हैं कि हम लाख तरक्की का दावा करें लेकिन हमारा मानस या हमारा दिमाग आज भी आदिम युग में ही पड़ा हुआ है। हम दुनिया भर से बहुत सारी आधुनिक चीजें भले ही उठा लाए हों लेकिन अपने दिमाग को शताब्दियों पुराने संदूक से निकाल लाना भूल गए हैं।
इसी माहौल और फिल्म ‘पद्मावत’ को लेकर अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने तमाम कट्टरपंथी और सनकी सवालों से अलग कुछ सवाल उठाते हुए महिला मुद्दों को पिछले दिनों नई आवाज दी। उन्होंने ‘पद्मावत’ के निर्देशक संजय लीला भंसाली के नाम लिखे पत्र में बहुत तीखे अंदाज में कहा- ‘‘महिलाएं चलती-फिरती वजाइना नहीं हैं। हां, महिलाओं के पास यह अंग होता है, लेकिन उनके पास और भी बहुत कुछ है। इसलिए लोगों की पूरी जिंदगी वजाइना पर केंद्रित, इस पर नियंत्रण करते हुए, इसकी हिफाजत करते हुए, इसकी पवित्रता बरकरार रखते हुए नहीं बीतनी चाहिए। वजाइना के बाहर भी एक जिंदगी है। बलात्कार के बाद भी एक जिंदगी है।‘’
स्वरा ने बुनियादी सवाल उठाते हुए भंसाली से पूछा- ‘‘आजाद भारत में भारतीय सती रोकथाम कानून-1988 ने सती की मदद करने, उसे उकसाने और उसे महिमामंडित करने के किसी भी स्वरूप को और बड़ा अपराध बना दिया है। आपने बगैर सोचे-समझे इस पुरुषवादी आपराधिक प्रथा को जिस तरह महिमामंडित किया है, उस पर आपको जवाब देना चाहिए…’’
स्वरा के ये सवाल केवल एक महिला का स्वर नहीं बल्कि उनके वजूद को बयान करने वाला एक ऐसा उद्घोष है जिसे कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एक महिला की गरिमा की कथित रक्षा के नाम पर देश में जो नाटक या तांडव हो रहा है, उसके पीछे की मानसिकता को शायद यह कभी नजर नहीं आता कि सदियों पुराने एक किस्से में उल्लिखित जिस पात्र की ‘स्त्री गरिमा’ को लेकर वे आज इतना उद्वेलित हो रहे हैं, वे ही लोग अपने आसपास आज के समय में होने वाली घटनाओं को शायद महसूस तक नहीं करते।
जिस समय स्वरा संजय भंसाली को खुला पत्र लिख रही थीं उसी समय देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने ‘मन की बात’ में स्त्री गरिमा का जिक्र करते हुए कह रहे थे- ‘’नारी-शक्ति के लिए कोई सीमा नहीं है। इच्छा और दृढ़ संकल्प हो, कुछ कर गुजरने का ज़ज्बा हो तो कुछ भी असंभव नहीं है। यह देखकर काफी खुशी होती है कि भारत में आज महिलाएँ हर क्षेत्र में तेज़ी से आगे बढ़ रही हैं और देश का गौरव बढ़ा रही हैं।‘’
प्रधानमंत्री देश के लोगों से कह रहे थे- ‘’एक बेटी दस बेटों के बराबर है। दस बेटों से जितना पुण्य मिलेगा एक बेटी से उतना ही पुण्य मिलेगा। यह हमारे समाज में नारी के महत्व को दर्शाता है। और तभी तो, हमारे समाज में नारी को ‘शक्ति’ का दर्जा दिया गया है। यह नारी शक्ति पूरे देश को, सारे समाज को, परिवार को, एकता के सूत्र में बाँधती है।‘’… ’’आज नारी, हर क्षेत्र में न सिर्फ आगे बढ़ रही है बल्कि नेतृत्व कर रही है। माइलस्टोन स्थापित कर रही है।‘’
लेकिन स्वरा जिस समय ‘’महिलाएं चलती-फिरती वजाइना नहीं हैं।‘’ जैसा तेजाबी सवाल पूछ रही थीं और प्रधानमंत्री जिस समय एक बेटी को दस बेटों के बराबर बताते हुए विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के माइलस्टोन का जिक्र कर रहे थे, उसी समय देश की संसद के लिए तैयार किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण दस्तावेज कड़वे यथार्थ को उजागर करने की तैयारी कर रहा था।
हर साल बजट से पहले संसद में पेश किया जाने वाला आर्थिक सर्वेक्षण इस बार गुलाबी रंग में छापा गया था। कहा गया कि ऐसा इसलिए किया गया है, ताकि लिंगभेद की तरफ लोगों का ध्यान खींचा जा सके और महिलाओं के खिलाफ हिंसा रोकने की मुहिम को पुख्ता बनाया जाए। इस बार के आर्थिक सर्वे में भारत में लिंग भेद की समस्या, महिलाओं के प्रति भेदभाव और भारतीय समाज में बेटे की जरूरत से ज्यादा चाह के बारे में विस्तार से बताया गया है।
सर्वे कहता है कि समाज में बेटे और बेटी के बीच में भेद को खत्म करने की सख्त जरूरत है। बच्चों के जन्म के बारे में फैसला लेने का अधिकार अक्सर महिलाओं के पास नहीं होता। भारतीय समाज में बेटे की चाहत कितनी ज्यादा है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि किसी भी परिवार में आखिरी बच्चा बेटा है या बेटी। जब इसकी पड़ताल की गई तो पता चला कि भारत के ज्यादातर परिवारों में आखिरी बच्चा बहुत बड़ी संख्या में बेटे ही हैं। यानी लोग अपना परिवार तब तक बढ़ाते रहते हैं जब तक बेटों की उनकी इच्छा पूरी ना हो जाए।
यानी बहुत सी ऐसी लड़कियों का जन्म होता है जिनको उनका परिवार नहीं चाहता। यह स्थिति दिखाती है कि तमाम कोशिशों के बावजूद बेटे और बेटियों का फर्क अभी भी बना हुआ है। सर्वे में इस बात पर भी चिंता जाहिर की गई कि नौकरियों में महिलाओं की संख्या बढ़ने के बजाय घट गई है। 10 साल पहले जहां 36 प्रतिशत महिलाएं कामकाजी थीं वहीं अब घटकर 24 फीसदी रह गई है।
और स्वरा की चिट्ठी, प्रधानमंत्री के मन की बात और संसद में पेश आर्थिक सर्वेक्षण के कंटेंट को पढ़ते हुए मैं किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की असफल कोशिश कर ही रहा था कि बुधवार के अखबारों में छपी एक खबर ने मानो मेरी खाल ही खींच ली। खबर का शीर्षक था- ‘’दिल्ली में आठ माह की बच्ची से दुष्कर्म’’
मुझे लगा, स्वरा ने सवाल नहीं उठाया, इस समाज की सचाई बयां की है। मुझे पक्का यकीन है इस खबर पर किसी भी ‘सेना’ का खून नहीं खौलने वाला…