गीता दुबे
साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनाने का सिलसिला कोई नया नहीं है। बड़े साहित्यकारों की कृतियों पर फिल्में बनती रहीं हैं । यह बात और है कि लेखक अपनी कहानी या उपन्यास पर बनी फिल्म से शायद ही संतुष्ट होता हो। इसका एक बड़ा कारण यह है कि फिल्म और साहित्य दोनों अलग-अलग विधाएं हैं। पाठकों के लिए जो कहानी लिखी गई है, जरूरी नहीं कि उस पर उसी रूप में फिल्म बनाई जा सके। इसी कारण फिल्म की पटकथा मूल कथा से बहुधा अलग हो जाती है, पर कभी-कभी यह अलगाव मूल कथ्य को इतना अधिक बदल देता है कि रचयिता और पाठक दोनों हतप्रभ रह जाते हैं।
इसी वजह से पाठक को किसी कथा को पढ़ते हुए जो आनंद आता है, जरूरी नहीं कि उसके फिल्मीकृत रूप को देखकर वही आनंद आए। वस्तुत: साहित्यिक कृति पर जब कोई फिल्म बनती है तो निर्देशक उसे इस रूप में ढालने की कोशिश है जिससे न सिर्फ उसका बाजार बढ़ जाए बल्कि उसे एक बड़ा दर्शक वर्ग देखे और सराहे। यह स्वाभाविक ही है कि जैसे लेखक चाहता है कि उसकी रचना को अधिक से अधिक लोग पढ़ें उसी तरह निर्देशक की भी इच्छा होती है कि उसकी फिल्म हिट हो और अधिक से अधिक कमाई करे। और अगर ऐसा न भी हो तो कम से कम एक-आध पुरस्कार तो जरूर उसके हिस्से में आ जाए।
कभी-कभी तो निर्देशक और पटकथा लेखक का फार्मूला सफल और फिल्म हिट हो जाती है, तो कभी सिर्फ एक प्रयोग मात्र बनकर रह जाती है। शरदचंद्र की ‘देवदास’ और रवीन्द्रनाथ की ‘चोखेर बाली’ आदि पर इसी नाम से बनी फिल्में अगर हिट हुईं तो मुंशी प्रेमचंद के अमर उपन्यास ‘गोदान’ पर बनी फिल्म को शायद ही दर्शकों ने स्वीकार किया हो। हां, उसका एकाध गीत जरूर कर्णप्रिय था। रही बात प्रेमचंद की तो उनका तो फिल्मी दुनिया से मोहभंग ही हो गया।
फिलहाल जिस फिल्म को केन्द्र में रखकर यह चर्चा छेड़ी गयी है, वह है फणीश्वरनाथ रेणु की रोचक और लोकप्रिय कहानी ‘पंचलैट’ पर इसी नाम से बनी फिल्म। यद्यपि कहानी छोटी सी है जिसपर नाटक तो खेला जा सकता है लेकिन फिल्म बनाने के लिए कथा बेहद संक्षिप्त है। अब इस कथा पर अगर फिल्म बननी है तो निर्देशक और पटकथा लेखक को तो अपनी कल्पनाशीलता का परिचय देना ही पड़ेगा। और इसी का परिचय देते हुए पटकथा लेखक ने इसे एक गांव के विभिन्न टोलों के बीच होनेवाली रस्साकशी और आपसी प्रतिद्वन्द्विता की नोंक -झोंक भरी हास्य व्यंग कथा के बदले एक प्रेमकथा में बदल कर रख दिया है।
और प्रेमकथा भी ऐसी जो उस समय (1954) बेहद अवास्तविक लगती है। एक पिछड़े गांव की पृष्ठभूमि में यह कथा बेहद सतही और बनावटी लगती है। ‘रेणु’ की कथा का गोधन जहां मात्र ‘सलम सलम वाला’ सलीमा का गाना गाने के कारण जात बाहर कर दिया जाता है, वहीं फिल्म का नायक न केवल नायिका से खुलेआम प्रेम निवेदन करता है बल्कि उसे ब्याह तक का प्रस्ताव दे बैठता है। अर्थात् ‘रेणु’ का गोधन अगर ‘इशारों इशारों में दिल लेनेवाला’ था तो मोदी का गोधन ‘दुल्हन तो जाएगी दूल्हे राजा के साथ’, जैसा हौसला लिए मुनरी के साथ गीत गाता दिखाई देता है। और गीत भी ऐसा जो ग्रामीण पृष्ठभूमि के साथ बिल्कुल मेल नहीं खाता।
प्रेमकथा को पक्का रंग देने के लिए गोधन और मुनरी के बचपन में ही टकराने का प्रसंग भी लेखक ने बुन लिया है जिसपर राज कपूर की फिल्म ‘बॉबी’ के दृश्यों की छाया नजर आती है। अब,’लरिकाई का यह प्रेम’ यौवन में उमड़ना ही था, सो खूब जमकर उमड़ा है। यहां तक कि रेणु का कस्बाई गोधन प्रेम प्रकाश मोदी के संरक्षण में इतना दिलेर हो गया है कि सलमान खान की तरह मुनरी की पीठ पर लेमन चूस फेंक कर मारने की हिम्मत भी जुटा लेता है। गनीमत है कि मोदी ने मुनरी और गोधन का भव्य ‘विवाह’ आयोजित नहीं करवा दिया।
चूंकि ‘आवारा’ फिल्म का गाना कहानी के साथ- साथ फिल्म में भी इस्तेमाल हुआ है इसलिए राज कपूर के प्रति निर्देशक की कृतज्ञता स्वाभाविक है। लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि नायक को राज कपूर का डुप्लीकेट ही बना दिया जाए। जिस समय की यह कथा है उस समय अगर लड़के फिल्मों से प्रभावित भी होते थे तो दबे-छिपे तरीके से। खुलेआम फिल्मी हीरो की नकल उतारना और उसकी तरह आचरण करने की बात वह सोचते भी नहीं थे।
लेकिन फिल्म का ‘गोधन’ तो इतना अधिक दिलेर, बेबाक या बोल्ड है कि वह आधी रात को जोर-जोर से फिल्म का गाना गाने की हिम्मत करता है, ताकि नायिका तक अपना प्रेम पहुंचा सके और नायिका भी राधिका या गोपियों की तरह उसकी पुकार या बुलावे पर दौड़ी चली आती है जबकि रेणु की मुनरी तो अपनी सखी के सामने भी गोधन का नाम कूटभाषा में उचारती है।
कुल मिलाकर यह कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी कि प्रेमप्रकाश मोदी का उद्देश्य एक प्रेम कथा बुनना था न कि रेणु की कथा के गंवई जीवन की छोटी-छोटी समस्याओं, आपसी रस्साकशी और गांव के लोगों की मानसिकता को जीवंतता से उभारना। शायद इसीलिए इस प्रेमकथा के अनुकूल उन्होंने पटकथा लिखवाई है। और इस प्रेमकथा को परवान चढ़ाने के लिए इसे खींचतान कर न केवल बढ़ाया गया है बल्कि इसके साथ-साथ दाम्पत्य प्रेम की एक समानांतर कथा भी रची गई है वह है सरपंच और उसकी पत्नी की कथा जो मूलकथा का हिस्सा नहीं है।
यह कथा हालांकि थोपी हुई नहीं लगती बल्कि फिल्मी कथा को बढ़ा ही देती है लेकिन सरपंच और उसकी पत्नी के प्रगाढ़ प्रेम को दर्शाने के साथ ही सरपंच का अपनी पत्नी को घूंघट में कैद रखना और पत्नी द्वारा उस अनुशासन को हंसकर स्वीकार लेना क्षोभ की सृष्टि करता है। इससे लगे हाथ निर्देशक को स्त्री सवालों को उठाने का भरपूर मौका मिल जाता है। आखिरकार पंचलैट की रोशनी सरपंच के दिल की कुंठा को धोकर उसे उदार बना देती है और वह घूंघट उठाकर उजाले के स्वागत के साथ पत्नी की मुक्ति का उद्घोष भी करता है। अर्थात प्रेमगीत के साथ स्त्रीमुक्ति का संगीत भी मिला दिया गया है।
गोधन और मुनरी की प्रेमकथा को और भी असरदार बनाने के लिए ‘रासलीला’ का प्रसंग जोड़कर रसपूर्ण भजनों के द्वारा दर्शकों के मनोरंजन की कोशिश भी की गई है। लेकिन यह फिल्म का सबसे हास्यास्पद और कमजोर हिस्सा है। हालांकि बहुत से लोकप्रिय फिल्मी गानों की तर्ज पर भजन बने हैं लेकिन गांववासियों का ‘हम तुम से मोहब्बत करके सनम….’ की भद्दी पैरोडी ‘हम तुम से मोहब्बत करके किसन, हंसते ही रहे’ को गाते हुए झूमना हास्यास्पद लगता है।
ज्ञानी गुरुजी का गदगद होना तो और भी चौंकाता है। गांव के लोग इतने बेवकूफ नहीं होते जितना इस फिल्म में दर्शाए गए हैं। भले ही वह अंग्रेजी कल कब्जे वाली पंचलैट जलाना न जानते हों ‘प्रेम’ और ‘मोहब्बत’ का फर्क जरूर जानते हैं। जिस गीत को गाने के कारण गोधन पर जुर्माना लगता है उसी की पैरोडी पर गांव भर का झूमना और गोधन की तारीफों के पुल बांधना दर्शकों के गले नहीं उतरता।
गांव के परिवेश को चित्रित करने में तो निर्देशक को सफलता मिली है पर उनकी नायिका और कई बार उसकी साज-सज्जा उस परिवेश से मेल नहीं खाती। ऐसा लगता है जैसे वह सीधे ब्यूटी पार्लर से मेकअप करके आई हो। उसका सुसज्जित जूड़ा कहीं भी पिछड़े गांव की लड़की सा नहीं लगता। उसकी तुलना में बाकी के कलाकारों की स्थिति ठीक है। ऐसी बहुत-सी कमियों के साथ ही ढीले निर्देशन और अकुशल संपादन के कारण यह फिल्म अपने सुंदर लोकेशन और थिएटर के अच्छे कलाकारों की मौजूदगी के बावजूद कहीं झूल गयी है, तो कहीं नौटंकी में ढल गई है।
हालांकि फिल्म में मुनरी की मां के रूप में मालिनी सेनगुप्ता, पंचों के रूप में यशपाल शर्मा, रवि झंकल, प्रणय नारायण आदि ने अपने अभिनय से दर्शकों को बांधने की भरसक कोशिश की है। बृजेन्द्र काला ने छड़ीदार की भूमिका में भ्रष्ट और कुंठित पंच के चरित्र को उतारने का प्रयास तो किया है पर उनका राधा की तरह आचरण करना अस्वाभाविक लगता है जो फिल्म को और भी बोझिल करता है। नायक अमितोष नागपाल को तो राज कपूर के फ्रेम में कैद कर दिया गया था इसके बावजूद वह जमे हैं और कहा जा सकता है कि पूरी फिल्म उन्हीं के कंधों पर टिकी हुई है।
सरपंच पत्नी के रूप में अपनी पहली ही फिल्म में कल्पना ठाकुर ने बेहतरीन अभिनय करने के साथ विद्यापति का एक पद गुनगुनाते हुए अपनी गायन कला का परिचय भी दिया है। लेकिन निर्देशक द्वारा फिल्म को प्रेमरस में पागने के प्रयास में न तो ‘रेणु’ की कथा के साथ न्याय हो पाया है और न प्रेमकथा ही सहज-स्वाभाविक लगती है। विशेषकर ‘तीसरी कसम’ की तुलना में तो यह फिल्म कहीं भी नहीं ठहरती।
हिंदी साहित्य पढ़ने-पढ़ाने, रचने और उसमें रुचि रखने वाले लोग भले ही ‘रेणु’ के नाम पर सिनेमाहॉल तक चले जाएं लेकिन साधारण दर्शक शायद ही इसमें रुचि ले। जब एक से एक ऐतिहासिक, पौराणिक और आधुनिक प्रेमकथाएं तमाम लटकों-झटकों के साथ मौजूद हैं तो इस प्रेमकथा को कितने दर्शक मिलेंगे यह प्रश्न विचारणीय है।