दो तीन दिन से अखबारों में न्यायपालिका और विधायिका के बीच चल रही टकराहट सुर्खियों में हैं। वैसे तो यह मामला लंबे समय से चल रहा है, लेकिन ताजा प्रसंग ‘विधि दिवस’ या ‘संविधान दिवस’ पर देश की विधायिका और न्यापयपालिका के सर्वोच्च पदों से आई टिप्पणियों से जुड़ा है। ये टिप्पणियां बताती हैं कि दोनों के बीच चल रही टकराहट धीरे-धीरे रिश्तों की कड़वाहट में बदलती जा रही है। यह स्थिति देश के लिए किसी भी सूरत में न तो उचित है और न ही स्वीकार्य।
मामला कितना बारीकी से उलझा हुआ है इसे एक उदाहरण से समझिए। 26 नवंबर को इंडिया टुडे के लिए प्रभाष के. दत्ता ने एक स्टोरी की। उसका शीर्षक था- ‘’संविधान दिवस या राष्ट्रीय विधि दिवस?‘’ उस स्टोरी में बताया गया कि मोदी सरकार के सत्ता में आने से पहले तक 26 नवंबर का दिन राष्ट्रीय ‘विधि दिवस’ के रूप में मनाया जाता था। अक्टूबर 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की कि अब 26 नवंबर, बाबा साहेब आंबेडकर की याद में, ‘संविधान दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा। यानी जो दिन ‘न्याय’ अथवा ‘विधि दिवस’ के रूप में 1979 से 2014 तक लगातार मनाया जा रहा था। अचानक उसका नाम बदल दिया गया।
तर्क दिया जा सकता है कि जब सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने 1979 में 26 नवंबर का दिन ‘विधि दिवस’ के रूप में मनाने का प्रस्ताव पारित किया था तो उसके पीछे भी कारण यही बताया गया था कि इस दिन देश ने अपना संविधान स्वीकार किया था। इसलिए उस दिन को ‘संविधान दिवस’ कह देने से कोई आसमान नहीं फट पड़ा।
बिलकुल सही है। संविधान ही वो आधार है जिसके अंतर्गत देश में विधि द्वारा स्थापित राज्य व्यवस्था संचालित होती है। इसलिए कहा जा सकता है कि नाम में क्या रखा है? लेकिन एक बारीक पेंच इसमें उलझन पैदा करता है। विधि के निर्माण का काम भले ही विधायिका करती हो, लेकिन उस विधि की संविधान के अनुसार व्याख्या करना या गुण दोष के आधार पर उसकी समीक्षा करने का काम न्यायालय ही करता है। यहां तक कि संविधान की व्याख्या का काम भी न्यायपालिका के ही पास है।
अब हो यह रहा है कि विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों और संविधान की व्यवस्थाओं की न्यायपालिका द्वारा की जा रही समीक्षा अथवा व्याख्या का काम विधायिका को नागवार गुजर रहा है। विधायिका और कार्यपालिका इसे अपने काम में हस्तक्षेप मान रही हैं। और यही बात पिछले दो तीन दिनों में बहुत शिद्दत से दिखाई दी है।
मजे की बात देखिए कि इस बार ‘विधि दिवस’ के नाम पर भी आयोजन हुए और ‘संविधान दिवस’ नाम पर भी। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मीडिया ने शनिवार और रविवार के कार्यक्रमों में से शनिवार के कार्यक्रम को ‘विधि’ या ‘कानून दिवस’ के तौर पर रिपोर्ट किया जबकि रविवार के कार्यक्रम को ‘संविधान दिवस’ के रूप में रिपोर्ट किया गया। शनिवार को हुए आयोजन में कानून राज्य मंत्री पीपी चौधरी ने बार-बार याद दिलाया कि न्यायपालिका को अपनी विश्वसनीयता बरकरार रखनी होगी। इसके लिए जरूरी है कि वहां नियुक्तियों पर बारीकी से काम हो। उन्होंने न्यायिक सक्रियता पर सवाल उठाते हुए कहा कि न्यायपालिका को नीति निर्धारण के क्षेत्र में दखल नहीं देना चाहिए।
इस पर देश के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने न्यायिक सक्रियता के संदर्भ में साफ कहा कि प्रत्येक नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना न्यायपालिका का संविधान प्रदत्त कर्तव्य है। न्यायपालिका न तो नीति बनाती है और न ही उसमें हस्तक्षेप की उसकी मंशा होती है। लेकिन, अगर किसी नीति से आम जनता के मौलिक अधिकारों का हनन होता है, तो उसकी व्याख्या करना हमारा कर्तव्य है।
विधायिका और न्यायपालिका में यह टकराहट उस समय भी देखने को मिली जब इसी आयोजन में कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने यह कहते हुए फिर मुद्दे को छेड़ दिया कि जनहित याचिका की आड़ में ‘अनचाहा न्यायिक दखल’ नहीं होना चाहिए। ऐसी याचिकाओं को शासन के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
इस पर प्रधान न्यायाधीश ने फिर अपनी बात स्पसष्ट की और कहा कि कोर्ट अपनी सीमाओं के प्रति चौकन्ना है और जानता है कि उसे कहां दखल देना है और कहां नहीं। उसने कभी अपनी लक्ष्मण रेखा पार नहीं की। लेकिन यह हमारा परम कर्तव्य है कि हम नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा करें। पॉलिसी बनाने के क्षेत्र में घुसने की कोर्ट की मंशा कभी नहीं रही।
यह टकराहट चल ही रही थी कि रविवार को इसी कार्यक्रम का समापन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी नसीहत के अंदाज में कह डाला कि आजादी के 70 साल बाद भी लोकतंत्र के तीनों स्तंभों की अंदरूनी कमजोरियां दूर नहीं हुई हैं। इन्हें दूर करने के लिए तीनों स्तंभों को आत्ममंथन करने की जरूरत है।
जबकि आयोजन के पहले दिन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने न्याय में होने वाली देरी, गरीबों को न्याय मिलने में आ रही समस्याओं और पारदर्शिता का जिक्र करते हुए संकेतों में न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का मुद्दा भी उठा दिया था। उन्होंने कहा था- ‘’सार्वजनिक जीवन शीशे के घर की तरह है। इसमें पारदर्शिता और निगरानी की मांग लगातार उठ रही है। न्यायिक व्यवस्था को इसके प्रति बहुत सतर्क होना चाहिए।‘’ इसी सत्र में लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने उस ‘कॉलेजियम व्यवस्था’ को बदलने की जरूरत बताई थी, जिसका कोर्ट बहुत सख्ती से बचाव करता रहा है।
शनिवार और रविवार को हुए इस आयोजन में जिस तरह से नेताओं और न्यायपालिका के नुमाइंदों के बयान आए हैं, वे बताते हैं कि तलवारें दोनों ही पक्षों ने तान रखी हैं। वे एक दूसरे से अपेक्षा कर रहे हैं कि सामने वाला अपनी तलवार म्यान में डाल ले। पर दिक्कत यह है कि देश में अब सिर्फ तलवारें ही बची हैं, म्यानें तो पता नहीं कहा खो गई हैं…