समझना मुश्किल है कि वास्तव में कोई गंभीर चर्चा हो रही है या कोई खेल खेला जा रहा है। महिला अत्याचार या दुष्कर्म की कोई घटना होने पर जो हल्ला मचता है और उस वक्त सरकार व नेताओं के जिस तरह के बयान आते हैं, उन्हें देख सुनकर तो ऐसा लगता है मानो बलात्कार शब्द देश की तमाम डिक्शनरियों से ही खत्म हो जाएगा। अब महिलाओं को छूना तो दूर उनकी तरफ आंख उठाकर देखने की भी कोई हिम्मत नहीं कर सकेगा। लेकिन प्रतिक्रिया की आंच पर चढ़ी वायदों की यह हांडी जल्दी ही ठंडी हो जाती है और वह दुबारा तभी गरम होती है जब ऐसी कोई और घटना घट जाए।
महिला अत्याचार के मामले में हमारा मध्यप्रदेश इन दिनों कुछ ज्यादा ही नाम कमा रहा है। इसके चलते मीडिया में जितनी जोर शोर से खबरें प्रकाशित और प्रसारित हो रही हैं उससे दुगुने जोर शोर से सरकार और उसके नेतागण नित नई घोषणाएं कर रहे हैं। कई बार तो लगता है कि सरकार ने घोषणाएं पहले से ही तैयार रखी हैं, बस उसे घटना के होने भर का इंतजार है।
इन दिनों ऐसा लग रहा है मानो मध्यप्रदेश में बच्चियों व महिलाओं के साथ दुष्कर्म की घटनाओं की बाढ़ सी आ गई है। पिछले करीब एक माह से कोई दिन ऐसा नहीं जा रहा जब अखबार रेप या गैंगरेप जैसे शब्दों के बिना छपा हो। और इन घटनाओं को रोकने में न कानून व्यवस्था में लगी एजेंसियां कुछ कर पा रही हैं और न समाज।
जब भी ऐसी घटनाएं होती हैं, तात्कालिक प्रतिक्रिया की होड़ में पहली स्वाभाविक प्रतिक्रिया यही होती है कि दोषियों को कठोरतम दंड दिया जाए ताकि अपराधियों को सबक मिले और भविष्य में लोग ऐसा करने से खौफ खाएं। सरकार से लेकर राजनीतिक दलों के बयान भी ऐसी ही मांगों और प्रतिक्रियाओं से भरे रहते हैं।
इनमें भी सबसे लोकप्रिय मांग बलात्कार के दोषियों को फांसी देने की है। अब इसी संदर्भ में जरा 31 मार्च 2017 का मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान का यह बयान पढ़ लीजिए- ‘’बालिकाओं के साथ दुराचार करने वाले को मृत्युदण्ड देने का विधेयक विधानसभा के आगामी मानसून सत्र में प्रस्तुत किया जाएगा। पारित होने के बाद उसे राष्ट्रपति को भेजा जाएगा।‘’ मुख्यमंत्री ने यह बयान राज्य पुलिस अकादमी के दीक्षांत समारोह में दिया था। तब से लेकर अब तक हुई कई घटनाओं पर प्रकारांतर से यही बयान रिपीट होता रहा है।
31 अक्टूबर को भोपाल में हुई एक लड़की से गैंगरेप की घटना के बाद भी भावनाओं का कुछ ऐसा ही ज्वार आया था और दोषियों को ‘सख्त’ सजा दिलाने और मामले का निराकरण फास्ट ट्रैक अदालत मे करवाने के वायदे किए गए थे। उस मामले में इतनी प्रगति हुई है कि एसआईटी ने कोर्ट में चालान प्रस्तुत कर दिया है।
अब जहां तक दुष्कर्म के दोषियों को मौत की सजा देने का सवाल है, आठ महीने पहले मुख्यमंत्री के स्पष्ट ऐलान के बावजूद सरकार में इसे लेकर दुविधा की स्थिति बनी हुई है। मंगलवार को राज्य मंत्रिमंडल की बैठक में भी यह मामला उठा। लेकिन वित्त मंत्री जयंत मलैया और ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव सहित कुछ और मंत्रियों ने इस पर आपत्तियां उठाईं तो मामला टाल दिया गया। अब यह प्रस्ताव फिर से विधि विभाग के पास भेजा जाएगा।
दुष्कर्म के दोषियों को फांसी दिए जाने संबंधी कानूनी संशोधन पर सवाल उठाने वाले मंत्रियों की दलील थी कि यदि फांसी देने के साथ साथ और भी अन्य सख्त प्रावधान किए जाते हैं तो दुष्कर्म करने वाला व्यक्ति पीडि़ता को जान से ही मार डालेगा। इसके अलावा कई बार बाद में पता चलता है कि मामला सच्चा था या झूठा, ऐसे में कहीं कोई निर्दोष इसकी चपेट में न आ जाए, लिहाजा इस पर पुनर्विचार होना चाहिए। मुख्यमंत्री ने भी मंत्रियों की राय से सहमति जताई और मामला टल गया।
मध्यप्रदेश मंत्रिमंडल में चर्चा के दौरान ‘महिला की जान ले लिए जाने’ संबंधी तर्क से मुझे ऐसी ही एक दलील और याद आ गई। वह मामला तीन तलाक के मुद्दे से जुड़ा है। आपको याद होगा सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक के मसले पर सुनवाई के दौरान मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से दिए गए तमाम तर्कों में से एक तर्क (या कुतर्क) यह भी था कि यदि पुरुष को तलाक लेने से रोका गया और उसे अनिच्छा से अपनी पत्नी के साथ रहने को मजबूर किया गया तो वह उसकी हत्या कर सकता है, उसे जिंदा जला सकता है। बोर्ड ने यह बात बाकायदा कोर्ट को दिए हलफनामे में कही थी।
मेरी समझ में नहीं आता कि आखिर सरकारें और समाज महिलाओं से किस तरह का बर्ताव करना चाहते हैं। उनके साथ जब भी जघन्यतम अपराध या व्यवहार की बात होती है, उनकी जान का खतरा बताकर, मामले के दोषियों को सख्त सजा देने का सवाल विवादास्पद बना दिया जाता है। क्या हम महिला की जान के बदले उसकी अस्मत या उसके दांपत्य जीवन के सुख चैन का कोई सौदा करना चाहते हैं? क्या व्यवस्था यह कहना चाह रही है कि यदि महिला को जिंदा रहना है तो वह दुष्कर्म से लेकर तलाक जैसे व्यवहार को सहन करना सीख ले?
यहां एक और बात ने मुझे उलझा दिया है। एक ओर तो हम 13वीं शताब्दी में अपने स्वाभिमान और सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर करने वाली पद्मावती को राष्ट्रमाता घोषित कर रहे हैं दूसरी तरफ 21 वीं शताब्दी में इस बात पर बहस कर रहे हैं कि महिला के साथ जघन्यतम अपराध करने वाले आततायी को फांसी इसलिए न दी जाए कि वह महिला को जान से मार सकता है। यानी भारत की जिस वीर नारी ने 13वीं शताब्दी में अपनी अस्मत से कोई समझौता नहीं किया उसे हम 21 वीं शताब्दी में हत्या का डर दिखाकर परोक्ष रूप से सारे अत्याचार सहन करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। समाज और सरकार की इस सोच को लेकर क्या आपका मन भी खुद सिर पीटने को नहीं करता?