सोमवार को मध्यप्रदेश के सारे अखबार चित्रकूट उपचुनाव के नतीजों से भरे पड़े थे। मैं प्रवास पर होने के कारण अपना कॉलम नहीं लिख पाया सो इस सुख से वंचित रहा। लेकिन वो पत्रकार ही क्या जो ऐसे मौकों पर लिखने से बाज आ जाए। सो मैने ठाना कि मैं भी इस चुनाव पर कुछ न कुछ लिखकर ही रहूंगा। वैसे भी हमारे यहां होली या दीवाली जैसे त्योहार होली मिलन और दिवाली मिलन के रूप में महीने भर तक मनते रहते हैं। चित्रकूट के नतीजे आए तो अभी 24 घंटे ही हुए हैं।
मेरा तो मानना है कि चित्रकूट का उत्सव या स्यापा अब साल भर चलने वाला है। क्योंकि अगले साल इन्हीं महीनों में राज्य के विधानसभा चुनाव संभावित हैं। और वह घटना हमारे होली और दिवाली जैसे त्योहारों को भी पीछे छोड़ देगी। चुनाव से बड़ा त्योहार या उत्सव इस देश में कोई दूसरा नहीं। सामाजिक दृष्टि से भी और आर्थिक दृष्टि से भी।
लेकिन मेरे सामने दुविधा है कि चित्रकूट में हुई राजनीतिक मारकुटाई का मैं किस तरह कूट परीक्षण करूं। मेरे हिसाब से सिर्फ एक या दो उपचुनाव को लेकर पूरे चुनावी परिदृश्य के बारे में कोई निर्णायक धारणा बना लेना जल्दबाजी होगी। ठीक है कि चंबल क्षेत्र के अटेर के बाद विंध्य क्षेत्र के चित्रकूट की जीत कांग्रेस की झोली में जाने वाली यह लगातार दूसरी जीत है। और इसे लेकर ‘कोई हारा कोई जीता’,’किसी ने किसी को पटखनी दी’ या ‘न किसी की हार न किसी की जीत’ जैसे कई विश्लेषण बाजार में चल रहे हैं। पर खबर सिर्फ यह है कि एक दौड़ हुई उसमें दो लोग दौड़े, उनमें से एक पहले नंबर पर रहा और दूसरा दूसरे नंबर पर।
कहा जा रहा है कि चित्रकूट की जीत प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी या उसके राजनीतिक नेतृत्व की विफलता है। प्रदेश की सीमाओं को तोड़कर इस जीत के मायने गुजरात तक में तलाशे जा रहे हैं और कयास लगाया जा रहा है कि वहां भी जनता ऐसे ही परिणाम देगी। कुछ विश्लेषकों का ‘निचोड़’ यह भी है कि-‘’चित्रकूट की जीत का असर गुजरात में भी होगा।‘’ यह वक्तव्य इस वास्तविकता के बावजूद है कि चित्रकूट और अहमदाबाद की भौगोलिक दूरी करीब 1200 किमी है।
पर सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात यह है कि पिछले कुछ उपचुनावों के दौरान मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने जितनी भी सीटें जीती हैं, चाहे वह झाबुआ लोकसभा सीट हो या फिर अटेर और चित्रकूट विधानसभा सीटी, वे या तो कांग्रेस के ही कब्जे में थीं या परंपरागत रूप से कांग्रेस की रही हैं। इस मायने में कांग्रेस ने अपने गढ़ को बचाए रखा है और भाजपा अपने राजनीतिक विरोधी के गढ़ में सेंध नहीं लगा पाई है।
इससे क्या यह माना जाए कि यह प्रदेश में भाजपा के पैर उखड़ने या कांग्रेस के पैर जमने की शुरुआत है? तो इसके लिए हमें मुंगावली और कोलारस विधानसभा क्षेत्रों के लिए होने वाले उपचुनावों का इंतजार करना होगा। चुनाव के सागर में ज्वार भाटे आते रहते हैं और इसमें कुछ भी असामान्य नहीं है। 2013 के बाद प्रदेश में विधानसभा के 12 उपचुनाव हो चुके हैं जिनमें से 9 भाजपा के हक में गए हैं और तीन कांग्रेस के। इसी तरह दो लोकसभा उपचुनावों में दोनों के खाते में एक एक सीट गई।
दृश्य को समझने के लिए हमें इन उपचुनावों में हुए उलटफेर की तरफ नजर डाली होगी। इनमें तत्कालीन परिदृश्य के हिसाब से देखें तो बहोरीबंद की सीट ही ऐसी रही जो कांग्रेस ने भाजपा से छीनी। बाकी दो यानी अटेर और चित्रकूट में हुई जीत उसके अपने ही गढ़ में हुई है। अलबत्ता झाबुआ लोकसभा सीट ऐसी थी जिसे कांग्रेस ने भाजपा से छीना। वहां भाजपा के सांसद दिलीपसिंह भूरिया के निधन के कारण उपचुनाव कराने पड़े थे। लेकिन झाबुआ भी परंपरागत रूप से कांग्रेस की सीट रही है और वहां भी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कांतिलाल भूरिया अपनी जीत का खुद बड़ा कारण थे।
कहने का आशय यह है कि कांग्रेस अपने परंपरागत गढ़ों में आज भी कमजोर नहीं हुई है और भाजपा अपने गढ़ों में। और यदि दृश्य यही है तो फिर कांग्रेस के लिए अगला विधानसभा जीतने की संभावना भी उसी हिसाब से बनती है। यह दृश्य तभी बदल सकता है जब मतदाताओं में भारतीय जनता पार्टी और उसके चुनावी हीरो मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के प्रति ‘मोहभंग’ हो।
इसलिए विचार इस बात पर होना चाहिए कि क्या चित्रकूट नतीजे को समग्र रूप से भाजपा और शिवराज के प्रति मोहभंग के प्रतीक रूप में देखा जा सकता है? या यह किसी ‘स्थानीय राजनीतिक समीकरण’ का परिणाम है। ‘मोहभंग’ शब्द का इस्तेमाल मैंने इसलिए किया क्योंकि सिर्फ उसी के चलते प्रदेश में किसी बदलाव की संभावना बनती है, अन्यथा तो राजनीतिक प्रबंधन, आर्थिक परिस्थितियां और रणनीतिक व्यूह रचना के लिहाज से भाजपा आज भी कमजोर नहीं है। बदलाव सिर्फ एक ही फैक्टर पर निर्भर करेगा और वह ये कि -लोग ही चाहें कि बहुत हुआ, अब यह सरकार हमें नहीं चाहिए…! यदि यह भाव विस्तार पा गया, जिसके संकेत मिल भी रहे हैं, तो फिर कोई भी दल अपने आपको बचा नहीं सकता।
जो लोग चित्रकूट का विस्तार गुजरात तक देख रहे हैं, उन्हें इस फैक्टर को सबसे ज्यादा ध्यान में रखना होगा। जहां तक परिणाम की बात है तो वे चाहे गुजरात के हों या हिमाचल के, फैसला इस बात पर निर्भर नहीं करेगा कि लोग किसको चुनना चाहते हैं, बदलाव इसलिए होगा कि लोग किससे मुक्ति पाना चाहते हैं। और यही ‘मोहभंग’ की स्थिति है। जो यूपीए शासन पर भी लागू हुई थी।
चलते चलते
वैसे तो चित्रकूट को लेकर सोशल मीडिया पर कई तरह के कमेंट्स और चुटकुले चल रहे हैं। लेकिन मुझे सबसे अच्छी एक शाकाहारी प्रतिक्रिया लगी। आप भी सुन लीजिए… चुनाव परिणाम आने के बाद जीती हुई टोली के मुखिया रात को खाना खाने बैठे, थाली देखते ही बोले–‘’साला जब भी लाइफ में यह लगने लगता है कि अच्छे दिन आए हैं उसी दिन घर में लौकी की सब्जी बन जाती है।‘’ दूसरी तरफ हारी हुई टोली के मुखिया ने खाने की थाली से पहला कौर लिया ही था कि किचन में से आवाज आई- ‘’सुनो जी, खाने में नमक कम तो नहीं है…?’’