यह भाजपा की हार है, कांग्रेस की जीत नहीं

अतुल तारे 

चम्बल क्षेत्र की अटेर विधानसभा सीट से लेकर महाकौशल क्षेत्र की चित्रकूट विधानसभा सीट तक के नतीजों ने मध्यप्रदेश विधानसभा का अंक गणित नहीं बदला है। दोनों ही सीट कांग्रेस के पास थी और फिर एक बार कांग्रेस ही यहां काबिज हुई है। लेकिन चित्रकूट की ताजा हार ने मध्यप्रदेश सरकार को और विशेषकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को निशाने पर ले लिया है।

क्या शिवराज सिंह का जादू उतर गया है? क्या भाजपा सरकार के खिलाफ जनाक्रोश बढ़ रहा है? या फिर इसी के साथ-साथ कांग्रेस भी जो लगभग प्रदेश में लंबे समय से हाशिए पर थी, मैदान में आने की कोशिश में है? या फिर चित्रकूट की हार सत्तारुढ़ दल और विपक्ष के बीच खासकर नेता प्रतिपक्ष के बीच एक फिक्सिंग का परिणाम है? सर्द होते प्रदेश के मौसम में यह सवाल सियासी पारे को गरम किए हुए है।

बेशक चित्रकूट विधानसभा सीट परम्परागत रूप से कांग्रेस की रही है। पर जिस दल की सरकार 14 साल पूरा कर चुकी हो, शिवराज सिंह जैसा संवेदनशील नेतृत्व हो, प्रदेश की उजली तस्वीर के बड़े-बड़े दावे हों, केन्द्र में सरकार हो और कांग्रेस अपने अस्तित्व के संघर्ष से दो- चार हो रही है, ऐसे में उपचुनाव में कांग्रेस की जीत कई गहरे सवाल खडेÞ करती है। कारण अब 2018 का संघर्ष ज्यादा दूर नहीं है।

भाजपा नेतृत्व संभवत: अब तक यह मन बना चुका है कि अगला चुनाव शिवराज सिंह के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा और नि:संदेह आज वे पार्टी का एक बड़ा चेहरा है। अनथक परिश्रम करते हैं। संवेदनशील हैं। उनका अपना एक आकर्षण है। प्रदेश सरकार की कई खामियों के बावजूद एक वर्ग ऐसा आज भी है जो शिवराज सिंह में ही सफलता की गारंटी ढूंढता है। नि:संदेह चित्रकूट की हार ने इस दावे पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

यह सच है कि इन 14 सालों में प्रदेश में कई शानदार काम हुए हैं, पर यह भी सच है कि विकास के दावे एवं जमीन की हकीकत में एक बड़ा फासला है। संवेदनशील सरकार का प्रशासन कितना संवेदनशील है यह राजधानी भोपाल की एक ताजा घटना ने प्रमाणित किया है। अजब प्रदेश की गजब कहानी यह है कि सामूहिक गैंगरेप भी सहमति से होता है, यह प्रदेश सरकार के चिकित्सकों की रिपोर्ट कह रही है।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह अफसरों को उल्टा लटकाने की चेतावनी पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच देकर ताली बटोर सकते हैं पर यह समझना होगा कि कहीं यह काम जनता सरकार के लिए करने का मन तो नहीं बना रही? सरकार और संगठन के जमीनी कार्यकर्ताओं में दूरी बढ़ रही है। परिणाम सरकार के खिलाफ बाहर जो आक्रोश है, उसे संभाला भी जा सकता है, पर पार्टी के भीतर क्या खदक रहा है, इसे तत्काल समझने की आवश्यकता है।

जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है तो आज वह भले ही राजधानी के इंदिरा भवन में जश्न मना ले, पर इठलाने की आवश्यकता उसे भी नहीं है। हां वह अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखने में कामयाब हुई है। उपचुनाव की इस जीत ने उसके लिए वापसी के दरवाजे खोल दिए हैं ऐसा मानना अभी जल्दबाजी होगी। कांग्रेस का यह क्षेत्र प्रारंभ से ही मजबूत था और इसका उसे लाभ मिला।

और अंत में जिसकी चर्चा विस्तार से कुछ अंतराल के बाद ताकि राजनीतिक कोहरा छट सके। एक सियासी खबर यह भी है कि चित्रकूट में भाजपा का प्रत्याशी जानबूझकर कमजोर दिया गया था ताकि नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह का कद कांग्रेस में ठीकठीक बना रहे। क्या कांग्रेस अब इस व्यवहार को मुंगावली, कोलारस में लौटाएगी, कारण ज्योतिरादित्य सिंधिया के राजनीतिक शुभचिंतक (?) कांग्रेस में भी कम नहीं है।

बहरहाल यह चर्चाएं हैं इसका कोई पुख्ता आधार अभी नहीं है। चित्रकूट की हार का फिलहाल इतना संदेश अवश्य है भाजपा इसे कड़वी दवा समझकर ले, लेकिन कांग्रेस बौराए नहीं। कारण यह कांग्रेस की जीत नहीं, भाजपा की हार है।’

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