अब कलियों का घूंघट खोलने की गुजारिश कौन करेगा?

मैं अपनी वेबसाइट पर रोज सुबह सुप्रभात और रात को शुभरात्रि गीत पोस्‍ट करता हूं। चूंकि पुरानी पीढ़ी का हो चला हूं इसलिए उसमें गाने भी उसी जमाने के होते हैं, जो आज का जमाना नहीं है। आमतौर पर यह सब गाने मेरी पसंद के होते हैं। लेकिन उस दिन प्रमोद ने मैसेज किया, आप कभी वो गाना भी बजाओ- ‘’कलियों ने घूंघट खोले’’… और मैंने अगले ही दिन सुप्रभात गीत में उसी गीत को चुना। प्रमोद बहुत खुश हुआ…।

आज दादा ने प्रमोद का जो चित्र भेजा उस पर बहुत खूबसूरत हार चढ़ा हुआ था। हार के बीच में प्रमोद का वही चिरप‍चित मुस्‍कुराता हुआ चेहरा था। मैं बहुत देर तक उस चित्र को देखता रहा… इंतजार करता रहा… अभी प्रमोद बोलेगा- ‘’अरे दादा ये कलियां तो खिल कर फूल बन गईं…’’

एक साल बीत गया… एक साल पहले ठीक इसी दिन हम प्रमोद के पार्थिव शरीर पर फूल चढ़ा रहे थे। यकीन न करते हुए, कि घर की बगिया का वह सबसे ताजा फूल माली ने तोड़ लिया है। उसकी खुशबू शायद ‘उसे’ भी पसंद आ गई… उसने भी शायद अपने किसी ‘देवता’ को चढ़ाने के लिए इसी फूल को चुना हो… पता नहीं…

क्‍या याद करूं… क्‍या-क्‍या याद करूं… और याद करने वाली बात ही कहां है… जो बातें भूली ही नहीं उन्‍हें याद करने का सवाल ही कहां उठता है… क्‍या अहिल्‍यापुरा के वो बचपन के दिन भूल सकता हूं… साथ में खेलना, लड़ना-झगड़ना, होली-दिवाली के रंगों से लेकर रोशनी तक, सबकुछ साझा है अभी तक…

मुझे याद है एक बार बाबूजी अपने काम से बनारस गए थे। वहां से बच्‍चों के लिए खिलौने लाए। उनमें लकड़ी के खिलौनों के तीन अलग अलग सेट थे। उन्‍होंने बंटवारा किया- मेरे हिस्‍से में आया बैंड बजाता हुआ दल, सतीश के हिस्‍से साधुओं की टोली और प्रमोद के हिस्‍से में गोपियों का समूह…

तो क्‍या ‘वहां’ भी किसी कृष्‍ण की कमी पड़ गई थी? लेकिन हमारा ही कृष्‍ण क्‍यों…? उसे ही क्‍यों चुना…? हमारा ही गोकुल क्‍यों सूना हुआ…? बाबूजी और बाई के चले जाने के बाद, परिवार में ऐसे बचे ही कितने लोग थे जो ‘उसे’ संख्‍या ज्‍यादा लगी…

मुझे पता नहीं अगर प्रमोद ने खुद कभी ऐसे ‘मिलन’ की चाह रखी हो… हां बाद बाद में उसके ‘अंतर’ को पढ़ना थोड़ा मुश्किल जरूर हो गया था। हो सकता है, हम लोगों को इसी धोखे में रखते हुए उसने चुपचाप अपने तार ‘वहां’ जोड़ लिए हों…! कबीर और उनका ‘युगन युगन हम योगी’ उसे पसंद तो था… संभव है हमारे उस ‘बालयोगी’ को उस ‘न्‍यारे घर’ का माहौल और ज्‍यादा अच्‍छा लगा हो, जहां पाप और पुण्‍य का कोई ‘पसारा’ नहीं…

लेकिन हम क्‍या करें… हम किसे पाप और किसे पुण्‍य कहें… जो हमारे साथ हुआ क्‍या वह पाप है और क्‍या उसके साथ जो हुआ वह पुण्‍य है… हो सकता है ऐसा ही हो… पुण्‍यात्‍मा तो ऐसे ही होते हैं…

मेरे हाथों में वह स्‍पर्श अभी तक झुरझुरी की तरह दौड़ता है। अंतिम यात्रा पर ले जाते हुए, गाड़ी में उसके पार्थिव शरीर के पास बैठकर जब उसके गाल पर हाथ फेरा था… उसका शरीर फूलों से लदा हुआ था… बंद आंखों वाले उसके चेहरे की तरफ देखते, मन ही मन कहा- देख प्रमोद वो सारी कलियां खिल गई हैं…

और मैं इंतजार ही कर रहा हूं कि अभी वो अपने खास अंदाज में आकर मुस्‍कुराते हुए कहेगा- ‘’हां तो क्‍या है उसमें…’’

कहीं गीत गूंज रहा है… ‘भोर आई हुआ अंधियारा…’ मन कहता है यह गीत ऐसा तो नहीं था… दूर गगन से जवाब आता है- अब यह गीत ऐसा ही है…

 

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