राजधानी भोपाल में 31 अक्टूबर को एक छात्रा के साथ हुए गैंग रेप के मामले में सोमवार को दिन में जब स्कूल शिक्षा राज्य मंत्री दीपक जोशी का यह बयान आया कि शाम सात बजे के बाद कोचिंग कक्षाएं नहीं लगनी चाहिए तो कई लोगों के माथे पर बल पड़ गए। पहली प्रतिक्रिया यही थी कि अपराध पर लगाम कसने में अक्षम सरकार, कोचिंग क्लासेस पर लगाम लगाने जा रही है।
लोगों ने यह सवाल भी पूछा कि क्या सरकार गारंटी दे सकती है कि सात बजे से पहले ऐसी कोई वारदात नहीं होगी। और यदि सात बजे के बाद कोचिंग क्लासेस चालू रहती हैं तो क्या यह माना जाए कि वहां से निकलने वाली लड़कियों के साथ यदि कोई घटना हो तो सरकार की जिम्मेदारी नहीं है? प्रदेश की ही एक महिला मंत्री ने प्रतिक्रिया दी कि क्या हमें लड़कियों को घर में कैद रखना है?
इन प्रतिक्रियाओं के बाद स्कूल शिक्षा मंत्री ने अपनी बात को स्पष्ट किया कि उनका मकसद कोचिंग क्लासेस पर बंदिश लगाना नहीं बल्कि वहां जाने वाली लड़कियों की सुरक्षा था। इसी संदर्भ में उन्होंने सुझाव दिया कि कोचिंग क्लासेस यदि रात आठ बजे के बाद भी लगती हैं तो क्लासेस चलाने वालों की तरफ से लड़कियों को घर छुड़वाने की व्यवस्था की जाए। साथ ही वे ऐसा ऐप भी विकसित करें जिससे मोबाइल ट्रैकिंग के जरिए पता लगाया जा सके कि बच्ची घर पर सुरक्षित पहुंच गई है या नहीं। इन सुझावों पर गौर होना चाहिए।
दरअसल ऐसे मामले फौरी उपायों के बजाय गंभीर और सुविचारित कदम उठाने की मांग करते हैं। कोचिंग की कक्षाएं जल्द बंद करना समस्या का हल नहीं हो सकता। क्योंकि मामला केवल कोचिंग कक्षाओं का ही नहीं है। दफ्तरों में काम करने वाली युवतियों से लेकर घरेलू महिलाएं तक अलग अलग समय सड़कों पर होती हैं। ऐसे में जरूरी यह है कि वे घर के बाहर खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें ऐसी व्यवस्था बने।
और जब इस तरह की कोई व्यवस्था की बात उठती है तो मामला घूम फिरकर फिर पुलिस के पाले में पहुंच जाता है। दरअसल पुलिस का ढर्रा और ढांचा जिस हालत में पहुंच गया है और शहरों का जिस तरह से विस्तार हो रहा है, जिस तरह से वहां विभिन्न गतिविधियां होती हैं, उन्हें देखते हुए, अव्वल तो पुलिस के लिए सभी जगह निगाह रखना संभव नहीं है, दूसरे पुलिस आज भी परंपरागत टालू मानसिकता में ही जी रही है।
बात चाहे कितनी ही बुरी या कड़वी लगे लेकिन यह सच है कि यदि समाज है तो अपराध भी रहेंगे। आप किसी व्यक्ति की मनोदशा या उसकी मनोवृत्ति को पहले से पढ़ या जान नहीं सकते। इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि हम कभी ऐसा समाज बना लेंगे जब कोई भी अपराध होगा ही नहीं।
लेकिन ऐसा माहौल तो हम बना ही सकते हैं, जहां व्यक्ति अपराध करने से बचे या डरे। अभी समस्या यह नहीं कि अपराध हो रहे हैं, बल्कि उससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि अपराध करने के बाद भी लोगों के मन में कोई खौफ नहीं है। यही कारण है कि दिल्ली से लेकर भोपाल तक निर्भयाएं, भयग्रस्त होने को मजबूर हैं। और जब राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक राजधानियों में यह स्थिति है तो छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में होने वाली घटनाओं की तो बात ही छोड़ दीजिए।
भोपाल की घटना को लेकर एक और मुद्दा सुर्खियों में है। वो है घटना के बाद पुलिस अफसरों पर की गई कार्रवाई। सरकार ने भोपाल आईजी, रेल एसपी, एक सीएसपी हो हटाने के साथ ही तीन टीआई और दो सब इंस्पेक्टर को सस्पेंड किया है। लेकिन रेल एसपी और एक थाना प्रभारी ने अपने खिलाफ की गई कार्रवाई की सरेआम आलोचना करते हुए उस पर सवाल उठाए हैं। यह ट्रेंड खतरनाक है।
यदि अपराध हो और अपराध पर नकेल कसने में कोई तंत्र कामयाब न रहे और उस तंत्र से जुड़े लोगों पर हुई कार्रवाई का भी संगठित या सार्वजनिक विरोध किया जाए तो समझा जा सकता है कि प्रशासनिक व्यवस्था किस कदर बेलगाम हो गई है। यह सीधे सीधे सीनाजोरी की स्थिति है। यह बात सही है कि सरकारें ऐसी घटनाओं में विरोध की आंच राजनीतिक नेतृत्व तक न पहुंचने देने के लिए आनन फानन में कार्रवाई कर देती हैं और उसका शिकार ऐसे लोग भी हो जाते हैं जिनका घटना से कोई लेना देना नहीं होता।
भोपाल की घटना को लेकर की गई कार्रवाई के बारे में भी ऐसे ही सवाल उठाए जा रहे हैं। हो सकता है कि अपनी खाल बचाने के चक्कर में कार्रवाई ऐसे लोगों पर भी कर दी गई हो जो घटना के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार न हों। लेकिन कार्रवाई के विरोध का नतीजा यह होगा कि भविष्य में किसी भी दोषी अफसर के खिलाफ कार्रवाई का भी विरोध होने लगेगा। जो किसी भी सूरत में गवर्नेंस के लिहाज से हितकर नहीं है।
एक बात और, जब भी ऐसे प्रसंग होते हैं, हम भावनाओं या उत्तेजना में बहकर अपनी प्रतिक्रिया देने लगते हैं। ऐसे में कोई सही बात भी कहे तो वह आलोचना का केंद्र बन जाता है। लेकिन ऐसी ही घटनाएं प्रशासनिक व्यवस्था के साथ साथ समाज से भी सचेत रहने की मांग करती हैं। मशाल और मोमबत्ती समुदाय को यह बात नागवार गुजर सकती है, लेकिन क्या यह घटना इस बात को रेखांकित नहीं करती कि चाहे लड़का हो या लड़की, उसे ऐसे स्थानों से बचना चाहिए जहां अपराध होने का खतरा हो।
भोपाल की घटना की शिकार लड़की ने, जिसके माता पिता खुद पुलिस में हैं, मीडिया से कहा कि परिवारवालों ने उसे उस रास्ते से आने जाने के लिए मना कर रखा था। 31 अक्टूबर के दिन वह पहली बार उस रास्ते से गुजरी थी। यदि यह सच है तो जरा सोचिए, क्या परिवार वालों ने अपनी बच्ची से कुछ गलत कहा था? यदि वह सचमुच मां-बाप की सलाह मानती तो शायद ऐसे हादसे से बच सकती थी। तो क्या हम उसके मां बाप पर यह आरोप जड़ देंगे कि वे बच्ची की ‘आजादी’ पर प्रतिबंध लगा रहे थे? क्या आंदोलित मानसिकता में उठाए जाने वाले ऐसे तर्क अथवा कुतर्क स्वयं में आत्मनिरीक्षण की मांग नहीं करते?