कई बार जो बात हजारों हजार शब्द नहीं कह सकते, जो बात कई घंटों के भाषण में नहीं कही जा सकती, वह बात किसी कविता या शायरी की दो चार पंक्तियां कह देती हैं। आज अपनी बात कहने के लिए मुझे लगा कि मुझसे बेहतर ये कविताएं हैं। इसलिए जो कहना चाहता हूं उसे इन कविताओं के आसपास ही बुनने की कोशिश की है।
अपनी बात कहने में मददगार बनने के लिए इन शायरों/कवियों का शुक्रिया अदा करते हुए, इस बात के लिए माफी भी चाहूंगा कि मैंने पूरी नज्म/कविता लेने के बजाय उनमें से वे ही पंक्तियां उठाई हैं जो यहां मौजूं है और जो आसानी से पाठकों के समझ में आने लायक भी हैं।
शुरुआत मशहूर शायर फैज अहमद फैज की कविता से-
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक तेरी है
बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है
जिस्म ओ ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले
फैज की ये लाइनें शायद इन दिनों भोपाल की फिजां में कुछ ज्यादा ही गूंज रही हैं। यकीन न आए तो हाल ही में हुए दो मामले ले लीजिए। पहला वाकया 10 अक्टूबर का है। ऐन शहर के बीच सड़क पर बने गड्ढे में एक शख्स गिर कर घायल हुआ। मर्चेंट नेवी में अफसर इस शख्स का नाम है जॉय तिर्की।
सब जानते हैं कि सड़कों पर जिस तरह गड्ढे आम बात हैं, उसी तरह गड्ढों में गिरकर घायल होना, हाथ पांव तुड़वा लेना शहर के बाशिंदों के भाग में लिखा है। इसलिए होना तो यह चाहिए था कि तिर्की परिवार भी बाकी लोगों की तरह चुपचाप अपना इलाज करवा लेता। लेकिन अजय तिर्की की पत्नी अलका तिर्की को यह गवारा नहीं हुआ और उसने एक तरह से जिहाद छेड़ दिया।
अलका तिर्की ने मामले की पुलिस में रिपोर्ट लिखवाकर दोषी को सजा दिलाने की मांग की है। अब हालत यह है कि पुलिस उस शख्स या उस संस्था को तलाश रही है जो यह गड्ढा करने के लिए जिम्मेदार है। दोषी का पता लगाने के लिए गड्ढे की दुबारा तिबारा खुदाई कराई जा चुकी है, लेकिन हाथ कुछ नहीं लगा है। अलबत्ता अलका तिर्की हार मानने को तैयार नहीं हैं।
दूसरा मामला 31 अक्टूबर को राजधानी भोपाल में ही एक छात्रा से गैंग रेप का है। एक सुनसान रास्ते पर यह छात्रा वहशियों की हवस का शिकार हुई। अपराध के बाद जैसे तैसे उसने अपनी जान बचाई। लेकिन हार नहीं मानी। वह घटना के बाद पुलिस के पास खुद रिपोर्ट लिखाने पहुंची। यह बात अलग है कि राजधानी की पुलिस ने उस बर्बर घटना से भी अधिक बर्बरता का परिचय देते हुए उसे उस हालत में भी रिपोर्ट लिखाने के लिए एक थाने से दूसरे थाने तक भटकाया।
आमतौर पर ऐसे मामले अव्वल तो खुद पीडि़ता द्वारा और बाद में उसके परिवारवालों द्वारा दबा दिए जाते हैं। पुलिस तो छोडि़ए परिवार तक में उसकी चर्चा नहीं की जाती। लेकिन यहां इस युवती ने हिम्मत का परिचय देते हुए आरोपियों को पकड़वाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसके ही साहस का नतीजा है कि मामले में लापरवाही बरतने वाले कई पुलिस अफसर निलंबित हो चुके हैं, कई का तबादला किया जा चुका है और सरकार चारों तरफ सफाई देती फिर रही है।
पुलिस परिवार से ही आने वाली इस युवती ने रविवार को तो गजब साहस दिखाया। वह खुद मीडिया के सामने आई। घटना का ब्योरा दिया और बिना हिचक, बिना डरे खुल कर सारी बात बताई। वाकई उस लड़की की हिम्मत को मानना पड़ेगा।
दरअसल सारी समस्या ही अपराध हो जाने के बाद लोगों के मुंह न खोलने की है। कोई सवाल उठाना ही नहीं चाहता। जब तक सवाल खड़े नहीं किए जाएंगे दोषियों की जवाबदेही कैसे तय की जा सकती है? शलभ श्रीरामसिंह की एक लंबी कविता की पंक्तियां हैं-
नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम
बस एक फ़िक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
जहाँ आवाम के ख़िलाफ़ साज़िशें हो शान से
जहाँ पे बेगुनाह हाथ धो रहे हों जान से
जहाँ पे लब्ज़े-अमन एक ख़ौफ़नाक राज़ हो
जहाँ कबूतरों का सरपरस्त एक बाज़ हो
वहाँ न चुप रहेंगे हम, कहेंगे हाँ कहेंगे हम
हमारा हक़ हमारा हक़ हमें जनाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
तू इनकी झूठी बात पर ना और ऐतबार कर
के तुझको साँस-साँस का सही हिसाब चाहिए
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
अपराध, अन्याय और अत्याचार को चुपचाप सहन कर लेना आज समाज की मनोवृत्ति में शामिल हो गया है। ऐसे में भोपाल की ये दो घटनाएं उम्मीद जगाती हैं। लोग बोल रहे हैं, उन्हें बोलना ही चाहिए, वे सवाल कर रहे हैं, उन्हें सवाल करना ही चाहिए… तसवीर तभी बदलेगी…
बात मैंने फैज से शुरू की थी, तो फैज पर ही खत्म करता हूं…
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो