मध्यप्रदेश की पुलिस सचमुच तनाव में है। इतने तनाव में है कि उसे अपने पुलिस परिवार के लोगों के साथ हो रहे जघन्यतम अपराधों का संज्ञान लेने की भी सुध नहीं है। राज्य के पुलिस महानिदेशक ऋषि कुमार शुक्ल गुरुवार को पुलिस कल्याण को लेकर हुई राज्यस्तरीय बैठक में ठीक ही कह रहे थे कि पुलिस कर्मचारियों का अपने परिवार से संवाद बढ़ाया जाना चाहिए।
यह तो ठीक ठीक पता नहीं कि डीजीपी साहब किस परिवार की बात कर रहे थे, पुलिस कर्मचारी के निजी परिवार की या विभाग का मुखिया होने के नाते पूरे पुलिस परिवार की। लेकिन उन्होंने अफसरों से यह भी ठीक ही कहा कि अधिकारी अपने मातहतों के साथ पारस्परिक संवाद स्थापित करें, इससे पुलिसकर्मियों की कार्य दक्षता बढ़ेगी। पुलिस वालों में बढ़ता तनाव कम करने के लिए काउंसलर की मदद लिए जाने का उनका सुझाव भी अमल में लाने लायक है।
इस प्रस्तावना के बाद अब जरा असली निबंध पर आ जाइए। छोटे से लेकर बड़े मुखिया जी की सारे बातें सिर माथे पर, लेकिन आप तो यह बताओ हुजूर कि पुलिस के ही परिवार की वो बेटी विभाग के बारे में क्या मानस बनाए जिसके मां बाप दोनों पुलिस में ही हों और खुद उसे,गैंग रेप का शिकार होने के बाद राजधानी के थाने वाले रिपोर्ट लिखाने के लिए टल्ले खिलाते रहें। 24 घंटे बाद उसकी रिपोर्ट लिखी जाए।
मैं यहां मध्यप्रदेश पुलिस की वाशिंगटन या न्यूयार्क पुलिस से तुलना करने की तो बात ही नहीं कर रहा। मैं तो सीधे सीधे यह पूछना चाहता हूं कि यदि राजधानी में, ऐन सरकार और तमाम आला अफसरों की नाक के नीचे अपराध और अपराध से निपटने के तरीके इतने बर्बर हैं तो सुदूर गांव खेड़ों में क्या होता होगा यह किसी से पूछने की जरूरत ही नहीं है।
अरे दूसरों की तो छोडि़ए, जब आप अपने ‘परिजनों’ को नहीं बचा सकते, उनके साथ हुए बर्बर अपराध की रिपोर्ट तक नहीं लिख सकते तो फिर काहे की संवेदना और काहे का परिवार से संवाद। वह बच्ची आपके थाना स्तर के अफसरों के पास इतनी बड़ी घटना की शिकायत लेकर आई थी। लेकिन संवेदनहीनता की हद देखिए कि उसे इधर से उधर इस कदर दौड़ाया गया मानो उसके साथ खो-खो खेला जा रहा हो।
जिस पुलिस व्यवस्था पर से पुलिस के परिजनों का ही विश्वास उठ जाए उस पर कौन विश्वास करेगा? इधर सरकार फोकट की बतोलेबाजी में लगी है। कभी हम पुलिस को मानवीय और संवेदनशील बनाने के लेक्चर देते हैं तो कभी सीना चौड़ा करके भाषण झाड़ते हैं कि महिलाओं के साथ ऐसे अपराध करने वालों को फांसी की सजा दिलवाएंगे। अरे आपके राज में तो गैंग रेप से पीडि़त एक बच्ची को रिपोर्ट लिखवाने तक के लाले पड़े हुए हैं।
जिम्मेदारी और जवाबदेही की जरा हालत देखिए। एक अखबार ने रिपोर्ट किया है कि उसने जब घटना के बारे में डीजीपी से बात करनी चाही तो जवाब मिला कि ‘’रात साढ़े नौ बजे बात नहीं करूंगा। लोकल आईजी और रेलवे से बात कर लो।‘’
इस जवाब से मुझे बचपन में पढी एक कहानी याद आ गई। गांव का एक आदमी शहर में आया। रात को उसे कोई ठिकाना नहीं मिला तो यूं ही सड़क पर भटकने लगा। इसी बीच एक कुत्ते ने उसे काट लिया। खून से लथपथ अपनी टांग लेकर वह एक डॉक्टर के दरवाजे पर जा पहुंचा। घंटी बजाई…
डॉक्टर साहब भुनभुनाते हुए अंदर से निकले। पूछा- क्या है, घंटी क्यों बजाई? हुजूर मुझे कुत्ते ने काट लिया है, बहुत खून बह रहा है कुछ करिए.. डॉक्टर ने बड़ी रुखाई के साथ घर के दरवाजे पर लटकी तख्ती दिखाते हुए कहा, देखते नहीं क्या लिखा है, मैं शाम सात बजे के बाद नहीं मिलता।
दर्द से कराहते ग्रामीण ने जवाब दिया, मुझे तो पता था डॉक्टर साहब लेकिन उस कुत्ते को नहीं पता था कि शाम सात बजे के बाद नहीं काटना है।
सच है पुलिस जी के पास बहुत सारे काम होते हैं। दिन भर काम करके वो भी थक जाते हैं। कोई भी ऐरा गैरा कभी भी चला आएगा तो कैसे काम चलेगा? कोई घटना दुर्घटना हो जाए तो हमारे बड़े मुखियाजी रात भर सो नहीं पाते, लेकिन पुलिस जी तो इंसान हैं, उन्हें तो नींद आती है ना… लिहाजा रात को उन्हें डिस्टर्ब नहीं करना चाहिए।
आपकी बात सिर माथे पर पुलिस जी, नहीं आएंगे आपके दरवाजे, बस आप दिन में सारे चोर-उचक्कों, बलात्कारियों को मैसेज करवा दें कि अपराध करने का टेम इतने बजे से इतने बजे तक है। उसके बाद कोई कुछ नहीं करेगा।
यकीन जानिए, ऐसा हो जाए तो पुलिस के जी को भी कोई जंजाल नहीं रहेगा और पब्लिक भी बेचारी रात बिरात सड़कों पर निकलने की हिम्मत जुटा सकेगी। जब पुलिस जी भी सो रहे होंगे, अपराधी जी भी सो रहे होंगे तो जनता भी बेचारी चैन से सो सकेगी।
वैसे क्या ही अच्छा हो, सारे लोग हमेशा सोते ही रहें, न कोई जागेगा न कोई वारदात होगी…