यह क्‍या कम है कि हम सांस लेने वालों की जमात में हैं

कई बार तो समझ में नहीं आता कि यह समय आवाज को पहचान देने और उसकी ताकत साबित करने का है या आवाज को दबा देने अथवा अवाज निकालने वाले का गला घोंट देने का। मैंने कल राजस्‍थान सरकार के विवादास्‍पद मूक-बधिर मीडिया बिल (मेरे विचार से उस बिल का यह नाम ज्‍यादा उपयुक्‍त है) का संदर्भ देते हुए इस कॉलम का शीर्षक दिया था ‘’चिल्‍लाने से कुछ हो न हो, पर चिल्‍लाइये जरूर’’… लेकिन मंगलवार के अखबार देखने के बाद मैं और पशोपेश में पड़ गया हूं।

मंगलवार को ज्‍यादातर अखबारों में दो खबरें बड़ी प्रमुखता से छपी हैं। एक खबर नई दिल्‍ली की है। इसमें सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्‍पणी का हवाला है कि ‘’किसी को देशभक्ति साबित करने के लिए हर वक्‍त अपनी आस्‍तीन पर उसका पट्टा लगाकर घूमने की जरूरत नहीं है।‘’ दूसरी खबर तमिलनाडु के तिरुनेलवेली की है जहां सूदखोरी से पीडि़त एक परिवार के मुखिया ने खुद के सहित अपने परिवार के सदस्‍यों पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा ली।

पहली खबर की तफसील यह है कि सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई गई है कि देश भर के सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाने और उस दौरान दर्शकों के खड़ा होने संबंधी अपने आदेश में कोर्ट बदलाव करे। दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने 30 नवंबर 2016 को अपने अंतरिम आदेश में सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाने और उस दौरान राष्ट्रगान के सम्‍मान में दर्शकों को खड़ा होने के निर्देश दिए थे। कोर्ट का मानना था कि इससे लोगों में देशभक्ति और राष्ट्रवाद के प्रति समर्पण का भाव प्रबल होगा।

उस अंतरिम आदेश के खिलाफ केरल की कोडंगल्‍लूर फिल्‍म सोसायटी ने याचिका लगाई है। इसमें खासतौर से इस बात का जिक्र किया गया है कि इससे दिव्‍यांगों को खासी परेशानी का सामना करना पड़ता है। वे लोग बिना वजह हीन भावना या फिर बाकी दर्शकों की नाराजी का शिकार होते हैं। कोर्ट ने अपने अंतरिम आदेश पर पुनर्विचार के संकेत देते हुए कहा कि कल को तो कोई यह भी कह सकता है कि टी-शर्ट और चड्डी पहन कर राष्‍ट्रगान गाना राष्‍ट्रगान का अपमान है।

अब जरा दूसरी खबर की तफसील सुन लीजिए। वह खबर कहती है कि तमिलनाडु के तिरुनेलवेली में इसैकीमुत्‍तु नाम के व्‍यक्ति ने सूद पर पैसा देने वाले अपने किसी रिश्‍तेदार से डेढ़ लाख रुपए कर्ज लिया था। इसके एवज में वह दो लाख 10 हजार रुपए पटा चुका था, लेकिन उसके बावजूद सूदखोर रिश्‍तेदार उसे लगातार प्रताडि़त कर रहा था।

सूदखोर के तकादों से तंग आकर इसैकीमुत्‍तु ने जिला कलेक्‍टर के यहां गुहार लगाई। वह कलेक्‍टर के यहां कई बार गया लेकिन छह बार कोशिश करने के बाद भी जब उसकी सुनवाई नहीं हुई तो सोमवार को उसने कलेक्‍टोरेट में ही अपनी पत्‍नी, दो बेटियों और खुद पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा ली। घटना में उसकी पत्‍नी और दो बच्चियों की मौत हो गई, खुद इसैकीमुत्‍तु की हालत भी गंभीर है। अखबारों में इस घटनाक्रम की जो तसवीरें छपी हैं वे दिल दहला देने वाली हैं।

सरसरी तौर पर देखें तो राजस्‍थान की वसुंधरा सरकार द्वारा लाए गए कानून, सुप्रीम कोर्ट में राष्‍ट्रगान मामले की सुनवाई और तिरुनेलवेली के इसैकीमुत्‍तु वाले हादसे में दूर दूर तक कोई संबंध दिखाई नहीं देगा। लेकिन मेरे हिसाब से ये तीनों घटनाएं हमारे देश में लोक प्रशासन की असलियत को उजागर करने वाली हैं, लिहाजा इन तीनों में बहुत गहरा अंतर्संबंध है।

दरअसल सारा मुद्दा ही पीडि़त, शोषित और वंचित वर्ग की बात को आवाज देने का है। राजस्‍थान में जहां मीडिया का मुंह बंद करने की कोशिश हो रही है वहीं सुप्रीम कोर्ट जैसी शीर्ष न्‍यायिक संस्‍था एक ऐसे मामले में उलझी पड़ी है जिसे मूल रूप से प्रशासनिक स्‍तर पर सुलझाया जाना चाहिए। खुद सुप्रीम कोर्ट ने राष्‍ट्रगान वाले मामले पर फटकार लगाते हुए कहा कि सरकार खुद ही नेशनल फ्लेग कोड में संशोधन क्‍यों नहीं करती? वह कोर्ट के कंधे पर रखकर गोली क्यों चलाना चाहती है।’

विडंबना देखिए कि जो समर्थ हैं उनकी सुनवाई में सरकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक उलझे पड़े हैं, लेकिन उस आम आदमी की कहीं सुनवाई नहीं है जिसका कोई माईबाप नहीं। सवाल यह है कि इस देश के सामने मुद्दा क्‍या है?  क्‍या मुद्दा यह है कि एक गरीब के सप्‍ताह भर के राशन पानी के बराबर राशि खर्च कर अपने तीन घंटे के मनोरंजन के लिए सिनेमाघर जाने वाले लोग राष्‍ट्रगान पर खड़े हों या नहीं या फिर एक सूदखोर से परेशान होकर जान देने की नौबत तक पहुंच जाने वाले परिवार की सुनवाई हो या नहीं।

इस देश में, इसी समाज में आधार कार्ड न होने पर एक परिवार को राशन नहीं मिल पाता और उसकी बच्‍ची भात भात कहते हुए भूख से दम तोड़ देती है। इसी देश में, इसी समाज में सूदखोरी से परेशान व्‍यक्ति कलेक्‍टोरेट में सरेआम अपने परिवार पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा लेता है। ऐसे लोगों की कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही और जिन संस्‍थाओं को इन मुद्दों पर ध्‍यान देना चाहिए, जिन्‍हें ऐसे लोगों की सुनवाई करनी चाहिए, वे बेकार के मुद्दों में उलझाए जा रहे हैं।

इस पूरे प्रसंग को लेकर मुझे फेसबुक पर पिछले दिनों डाली गई एक कहानी याद आती है। एक व्यक्ति विदेश गया। कुछ दिन बाद उसके गांव का ही एक व्‍यक्ति उसके पास पहुंचा। पहले व्‍यक्ति ने अपनी पत्नी के विषय में प्रश्न किया- वह कुशल तो है?

उत्तर मिला- हां जीवित है

फिर प्रश्न हुआ- मैं कुशलता पूछ रहा हूं

उत्तर- कहा तो जिन्दा है

प्रश्न- तू फिर वही बात बोल रहा है

उत्तर- जो सांस ले रही है, उसे मुर्दा कैसे कह दूं।

तो भाइयो और बहनो, यह क्‍या कम है कि हम अभी तक सांस लेने वालों की जमात में गिने जा रहे हैं…

 

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