चिल्लाने से कुछ हो न हो पर चिल्लाइए जरूर

लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है। इसे कमजोर करने में भी उसी मीडिया की भूमिका है जो तात्कालिक घटनाओं पर ‘ऐतिहासिक’शोर मचाता है। इसमें भी सोशल मीडिया ने सबको पीछे छोड़ रखा है। वहां सूचनाएं और प्रतिक्रियाएं ऐसे धड़ल्ले से पटकी जाती हैं कि भगदड़ सी मच जाती है और इस भगदड़ में कई पुरानी खबरें, नई सूचनाओं के पैरों तले दबकर दम तोड़ देती हैं।

जैसे आज राजस्थान के दंड विधियां (राजस्‍थान संशोधन) अध्‍यादेश 2017 का हल्ला है। चारों तरफ कदम की आलोचना हो रही है। लोग इसे इस तरह प्रस्तुत कर रहे हैं मानो ऐसा पहले कभी हुआ ही न हो। लेकिन इतिहास गवाह है कि सरकारें चाहे भाजपा की हों या कांग्रेस की,समय समय पर अपने राजनीतिक और व्यक्तिगत हितों को साधने के लिए ऐसे हथकंडों अपनाती रही हैं।

सोमवार को ही मैं फेसबुक पर बिहार के वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्रकिशोर की एक पोस्ट पढ़ रहा था। उन्होंने लिखा है कि ‘’वसुंधरा सरकार की इस पहल में आपातकाल की झलक मिल रही है। 10 अगस्त, 1975 को इंदिरा सरकार ने संसद से एक संविधान संशोधन विधेयक पास करवा कर यह प्रावधान करा दिया था कि राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और स्पीकर के चुनाव को कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती। यह और बात है कि बाद में वह प्रावधान वापस ले लिया गया था।‘’

‘’कुछ दशक पहले असम के एक मुख्यमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के अत्यंत गंभीर आरोप लगे थे। आरोपों से संबंधित सारी बातें अखबारों में आ गई थीं। उन आरोपों को पढ़ने से लगता था कि वे लालूप्रसाद के खिलाफ चारा घोटाले में लगे आरोपों से अधिक गंभीर हैं। फिर भी असम के उस मुख्यमंत्री पर केस चलाने की अनुमति वहां के तत्कालीन राज्यपाल ने नहीं दी। राज्यपाल ने केस की मेरिट को नजरअंदाज करते हुए यह बहाना बनाया कि ‘अनुमति देने पर राजनीतिक अस्थिरता आएगी। किसी सीमावर्ती राज्य में राजनीतिक अस्थिरता देशहित में नहीं है।’’ सुरेंद्रकिशोर ने सवाल उठाया है कि- ‘’क्या यह बहाना सही था?

और ज्‍यादा दूर जाने की भी जरूरत नहीं है। हमारे अपने मध्यप्रदेश में दो साल पहले वर्तमान सरकार ने ही एक ऐसा बिल पास किया था जो लोगों को कोर्ट में याचिकाएं लगाने से प्रतिबंधित करता था। “‘तंग करने वाला मुकदमेबाजी (निवारण) विधेयक 2015” ( Madhya Pradesh Vexatious Litigation (Prevention) Bill, 2015) नाम से लाया गया यह बिल 22 जुलाई 2015 को विधानसभा में बगैर किसी गंभीर बहस के पारित हुआ और 26 अगस्त  2015 को इसका राजपत्र में प्रकाशन भी कर दिया गया।

याद रखने वाली बात यह है कि जिस समय यह बिल पास करवाया गया उस समय मध्यप्रदेश के व्यापमं कांड की चर्चा पूरे देश में जोरों पर थी और उससे जुड़ी कई याचिकाएं न्यायालयों में लंबित थीं। मध्यप्रदेश का वह बिल भी राजस्थान सरकार के ताजा फैसले से कुछ कम नहीं है। हालांकि उसे लाने के पीछे उद्देश्य यह बताया गया था कि इसे लोगों को कष्ट पहुँचाने, परेशान करने या चिढ़ाने के आशय से बिना किसी औचित्य पूर्ण आधार के, तंग करने वाले मुकदमे लगाने की प्रवृत्ति को रोकने के लिए लाया गया है।

उस कानून में प्रावधान है कि यदि महाधिवक्ता द्वारा किए गए किसी आवेदन पर, उच्च न्यायालय को समाधान हो जाता है कि किसी व्यक्ति ने आदतन तथा बिना किसी युक्तियुक्त आधार के, किसी न्यायालय या न्यायालयों में एक ही व्यक्ति अथवा विभिन्न व्यक्तियों के विरुद्ध तंग करने वाली सिविल या आपराधिक कार्यवाहियाँ की हैं तो उच्च न्यायालय उस व्यक्ति को सुने जाने के बाद आदेश दे सकेगा कि उसके द्वारा किसी भी न्यायालय में, सिविल या आपराधिक कोई भी कार्यवाही संस्थित नहीं की जाए। आदेश के पहले उसके द्वारा किसी भी न्यायालय में संस्थित की गई विधिक कार्यवाही भी जारी नहीं रखी जाएगी।

किसी व्यक्ति को याचिका दायर करने या पहले से दायर उसकी याचिकाओं पर कार्यवाही जारी रखने को लेकर दी जाने वाली न्‍यायालयीन अनुमति को सरकार राजपत्र में प्रकाशित करेगी। विधेयक में यह भी प्रावधान है कि जिस व्यक्ति को तंग करने तथा मुकदमे लगाने वाला घोषित किया गया है यदि वह न्यायालय की अनुमति के बिना कोई याचिका लगाता है या उसकी ऐसी कोई याचिका पहले से विचाराधीन है तो वे भी खारिज कर दी जाएँगी। न्यायालय द्वारा अनुमति न देने के आदेश के विरुद्ध अपील भी नहीं की जा सकेगी अलबत्‍ता ऐसी कोई अपील जो सुप्रीम कोर्ट के समक्ष होना है उस पर यह बात लागू नहीं होगी।

मुझे याद है जिन दिनों सरकार यह बिल लाने की सोच रही थी उन्‍हीं दिनों मध्‍यप्रदेश विधानसभा में तत्‍कालीन नेता प्रतिपक्ष सत्‍यदेव कटारे के यहां एक भोज था। वहां कुछ पत्रकारों ने जब इसकी चर्चा की तो वहां मौजूद सुप्रीम कोर्ट के वरिष्‍ठ वकील और कांग्रेस नेता विवेक तन्‍खा ने कहा था कि ऐसा बिल सरकार ला ही नहीं सकती। यदि सरकार ऐसा करती है तो हम उसे कोर्ट में चुनौती देंगे।

यह प्रसंग मैंने इसलिए याद दिलाया कि जब मामला गरम होता है तब उस पर बहुत सी बातें होती हैं, कई प्रतिक्रियाएं आती हैं लेकिन बाद में सब ठंडा पड़ जाता है और सरकारें अपनी मनमानी करती रहती हैं। आपको यह जानकर हैरत होगी कि मध्‍यप्रदेश की तर्ज पर देश के चार और राज्‍य महाराष्‍ट्र, गोवा, तमिलनाडु और राजस्‍थान भी मुकदमेबाजी के खिलाफ ऐसे ही बिल पास कर चुके हैं। सरकारों को भी मालूम होता है कि यह हो हल्‍ला फौरी तौर पर है। धीरे धीरे सब शांत हो जाएगा या कोई नई सनसनी इस पुरानी सनसनी को कुचल डालेगी।

तो हम क्‍या करें? क्‍या हम सरकारों की इस मनमानी पर चिल्‍लाना बंद कर दें? नहीं, सरकारें जितनी ढीठ हो रही हैं, हमें उनके ऐसे कदमों पर उससे दुगुनी ताकत से चिल्‍लाना होगा। विरोध करने का हक कोई हमसे छीन नहीं सकता और हम इसे छिनने भी नहीं देंगे… आपको कबीर याद हैं ना जिन्‍होंने कहा था-

दुर्बल को न सताइयेजाकी मोटी हाय

मरी खाल की सांस सेलोह भसम हो जाय

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