आरक्षण के इस पहलू पर भी संघ जरूर विचार करे

मध्यप्रदेश में पहले ही अंदर से खदबदा रही नौकरशाही के नए तेवर राजनीतिक नेतृत्व के लिए चिंता और मुश्किल दोनों का सबब बन सकते हैं। पदोन्नति में आरक्षण के मामले पर आज भले ही अदालत ने स्‍थगनादेश की राख डाल रखी हो, लेकिन अंगारे भीतर से उतने ही लाल हैं। मध्‍यप्रदेश में इस मामले को लेकर अनुसूचित जाति, जनजाति अधिकारी कर्मचारी संगठन (अजाक्‍स) और सामान्‍य, पिछड़ा एवं अल्‍पसंख्‍यक अधिकारी कर्मचारी संघ (सपाक्‍स) आमने सामने हैं।

हाल ही में सपाक्‍स के संरक्षक बने वरिष्ठ आईएएस अधिकारी राजीव शर्मा ने बयान दिया है कि प्रमोशन में आरक्षण की वजह से समाज और शासकीय मशीनरी में विखंडन आया है। सवाल सिर्फ जाति का नहीं है बल्कि वरिष्ठता और कनिष्ठता का है। दूसरी तरफ रतलाम के पुलिस अधीक्षक अमितसिंह ने इसी दौरान आर्थिक आधार पर आरक्षण का मसला उठा दिया है। सिंह का कहना है कि आरक्षण उसको मिलना चाहिए जो जरूरतमंद है। क्रीमीलेयर को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। जब हम समावेशी विकास की बात करते हैं तो यह समझना पड़ेगा कि संविधान प्रदत्त इस व्यवस्था में कहां गड़बड़ी हो रही है। उधर अजाक्‍स के प्रमुख और वरिष्‍ठ आईएएस अधिकारी जे.एन. कंसोटिया का मत है कि अपने अधिकारों की बात तो हमें करनी ही पड़ेगी। हमारा स्टैंड है कि हमें संविधान के प्रावधान के अनुसार हक मिले। चाहे नियुक्ति की बात हो या पदोन्नति की।

यह संयोग ही है कि जिस समय अजाक्‍स और सपाक्‍स में यह बयानबाजी हो रही है उसी दौरान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का समूचा शीर्ष नेतृत्व अपनी अखिल भारतीय कार्यकारिणी की बैठक के बहाने भोपाल में जुटा है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आरक्षण जैसे मुद्दे को लेकर संघ के विचार परंपरागत राजनीति करने वाले दलों और नेताओं से अलग हैं। संघ इस मुद्दे को विशुद्ध सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण से देखता और उस पर विचार करता रहा है।

संघ के वरिष्ठ नेतृत्व ने समय समय पर आरक्षण को लेकर अपनी राय सार्वजनिक की है। इसी साल जनवरी में जयपुर के लिटरेचर फेस्टिवल में जब मीडिया ने इस मसले पर संघ की राय को लेकर विवाद खड़ा किया था तब सहसरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने बाकायदा बयान जारी कर कहा था कि “संघ ने हमेशा यह प्रयास किए हैं कि संविधान प्रदत्त आरक्षण जारी रहना चाहिए। संविधान में अनुसूचित जनजाति,अनुसूचित जाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के प्रावधान हैं। इन सभी वर्गों को आरक्षण का पूरा-पूरा लाभ मिले, इसके लिए संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने 1991 में पारित प्रस्ताव में कहा था कि एसटी, एससी और ओबीसी को आरक्षण के प्रावधान का पूरा लाभ मिले इसके प्रयास होते रहने चाहिए। जब तक देश में जाति और जन्म आधारित असमानता रहेगी तब तक आरक्षण की सुविधा रहनी चाहिए।”

लेकिन मध्‍यप्रदेश में मसला बुनियादी आरक्षण का नहीं बल्कि पदोन्‍नति में आरक्षण का है और इसे लेकर पूरी प्रशासनिक मशीनरी में टकराव की स्थिति बन रही है। यह प्रश्न इसलिए भी पेचीदा हो गया है क्योंकि मध्यप्रदेश सरकार ने निष्पक्षता के भाव को त्‍याग कर इस मामले में कर्मचारियों के एक संगठन विशेष का पक्ष लेकर पूरे मसले को विवादास्पद बना दिया है। इस कारण समूचा सरकारी अमला दो भागों में बंट गया है।

अभी इस विवाद से जुड़ी गतिविधियां बहुत ज्यादा आक्रामक नहीं हुई हैं लेकिन आगे चलकर यदि दोनों संगठन अजाक्स और सपाक्स पूरी आक्रामकता और तीव्रता के साथ आमने सामने हुए तो उससे समाज और समूची शासन व्यवस्था (गवर्नेंस) को होने वाले नुकसान का अंदाज लगाना ज्यादा कठिन नहीं है। और मध्यप्रदेश जैसे राज्य में, जहां इस तरह का सामाजिक टकराव बहुत नगण्य रहा है, वहां यदि शासकीय मशीनरी में यह भाव स्थायी हो गया तो न सिर्फ यह दुर्भाग्‍यपूर्ण होगा बल्कि उसके खतरनाक दूरगामी परिणाम भी होंगे।

चूंकि भोपाल में संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी की बैठक में आगामी कार्यक्रमों, अभियानों आदि की रूपरेखा तय करने के साथ ही प्रासंगिक विषयों पर भी बात होनी है, ऐसे में मध्‍यप्रदेश की प्रशासनिक व्‍यवस्‍था को मथ रहे, पदोन्नति में आरक्षण या आर्थिक आधार पर आरक्षण जैसे सामाजिक महत्‍व के मुद्दे पर भी इस बैठक के दौरान विचार किया जाना समयानुकूल होगा।

आरक्षण की व्यवस्था जारी रहे और वंचित वर्ग को इसका लाभ मिले इसमें कोई दो राय नहीं है और बुनियादी तौर पर इसका विरोध भी नहीं है। लेकिन आरक्षण का स्वरूप और उसका दायरा क्या हो इस पर तो विचार होना ही चाहिए। यह तो सोचा ही जाना चाहिए कि क्या बुनियादी आरक्षण के अलावा पदोन्नति में भी आरक्षण जैसी व्यवस्था समाज के लिए हितकर है?

संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी सभा में इस मुद्दे को विचारणीय विषय बनाए जाने की अपेक्षा इसलिए भी है क्योंकि आरक्षण जैसी व्‍यवस्‍था के भावी स्वरूप को लेकर संघ जैसा संगठन ही कोई साहसिक,दूरदर्शितापूर्ण एवं परिवर्तनकारी पहल कर सकता है, जो समय की मांग भी है।

निश्चित रूप से आरक्षण बहुत ही संवेदनशील मामला है, लेकिन एक न एक दिन भारतीय समाज को इसकी उपयोगिता, औचित्य और निरंतरता पर विचार जरूर करना पड़ेगा। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में जहां भाजपा और संघ दोनों की जड़ें काफी मजबूत हैं वहीं पदोन्नति में आरक्षण या आर्थिक आधार पर आरक्षण जैसे मुद्दों का आदर्श हल ढूंढा जा सकता है। यह प्रदेश इस मायने में ऐसी आदर्श प्रयोगशाला साबित हो सकता है, जहां समाज के लिए समरसता का ऐसा रसायन तैयार किया जाए जो आगे चलकर पूरे देश की केमिस्ट्री बदल दे।

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here