यानी राजनीति तो बाजार से भी ज्‍यादा टुच्‍ची निकली..!!

आज जब मैं यह कॉलम लिखने बैठा हूं तो मेरे चारों तरफ पूर्व वित्‍त मंत्री यशवंत सिन्‍हा के लिखे लेख से आई सुनामी की ऊंची ऊंची लहरों के अलावा कुछ दिखाई नहीं दे रहा। ऐसा लग रहा है मानो सारे मुद्दे उस एक लेख के इर्दगिर्द सिमट आए हैं। लेकिन हम लोगों की असली परीक्षा भी ऐसे ही समय में होती है। इन हालात में हमसे अपेक्षा की जाती है कि हम तमाम झंझावातों और चारों ओर उड़ते धूल और धुंए के बीच अपने पाठकों को वह दृश्‍य भी दिखाएं जो सामान्‍य नजरों से वे देख नहीं पा रहे।

तो मेरी नजर गुरुवार को सिन्‍हा साहब के लेख की आंधी के साथ ही छपी एक और खबर पर पड़ी और मुझे लगा कि अरे, इसके तार भी तो वहीं जाकर जुड़ते हैं, जहां इन दिनों सारी घटनाओं का मेन-स्विच लगा है। वैसे तो ऊपरी तौर पर यह  खबर कॉरपोरेट जगत की थी लेकिन इशारों इशारों में वह राजनीतिक क्षेत्र के लिए भी बड़ा संदेश दे रही थी।

खबर यह थी कि टेलीकॉम जगत की दो दिग्‍गज कंपनियों भारती एयरटेल और रिलायंस जियो ने अपनी व्‍यावसायिक प्रतिस्‍पर्धा की कड़वाहट को अपने कारोबार से जुड़े एक आयोजन में किनारे रख दिया। दोनों कंपनियों के टॉप बॉस यानी एयरटेल के सुनील भारती मित्तल और जियो के मुकेश अंबानी ने एक-दूसरे को‘अच्छा दोस्त’ बताया। मंच था ‘इंडिया मोबाइल कांग्रेस’ का और यहां सुनील भारती मित्‍तल ने टेलीकॉम उद्योग की चुनौतियों का जिक्र करते हुए कहा- ‘’मैं उम्मीद करता हूं कि मुकेश जैसे दोस्तों के साथ मिलकर हम भविष्य में कुछ बड़ा बनाएंगे।’’

पिछले कुछ महीनों से एक दूसरे के साथ गलाकाट कारोबारी घमासान में उलझे दो घरानों में से एक ने जब पहल की तो दूसरा कहां पीछे रहने वाला था। उसने भी कुछ उसी अंदाज में जवाब दिया। जियो की मूल कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी ने अपने भाषण में मित्तल को ‘अच्छा दोस्त’ बताते हुए कहा कि इंडिया को दिग्गज टेलिकॉम प्लेयर बनाने के लिए हमारा साथ काम करना जरूरी है। हमें साथ आना होगा। कस्टमर्स नेटवर्क के लिहाज से भले ही हम सीधे कॉम्पिटिशन में हों, लेकिन हमें मिलकर एक इकोसिस्टम तैयार करना होगा।

आपको याद दिला दूं कि जब से जियो ने टेलीकॉम बाजार में प्रवेश किया है, तभी से दोनों कंपनियां एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का कोई मौका नहीं छोड़ रही हैं। वे एक दूसरे पर उपभोक्‍ताओं को बरगलाने, कानून की गलत व्याख्या करने और ग्राहकों के साथ भेदभाव करने के आरोप लगाती रही हैं। दोनों कंपनियों ने टेलीकॉम अधिकारियों के सामने एक दूसरे की जमकर शिकायतें भी की हैं। लेकिन जब कारोबार के हितों की बात आई तो ये गलाकाट दुश्‍मन भी एक दूसरे को अच्‍छा दोस्‍त कहते हुए पाए गए।

और दूसरी तरफ राजनीति ने क्‍या किया!

वाजपेयी सरकार में वित्‍त मंत्री रह चुके यशवंत सिन्‍हा ने जब मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना करते हुए सरकार को आईना दिखाया और कुछ खरी खरी बातें कह दीं तो राजनीति ने अपना असली चाल,चरित्र और चेहरा देखाते हुए बाप के खिलाफ बेटे को ही खड़ा कर दिया। कायदे से जिन यशवंत सिन्‍हा के सवालों का जवाब वित्‍त मंत्री अरुण जेटली या खुद प्रधानमंत्री को देना था या फिर पार्टी मंच से जिस पर अमित शाह को बोलना चाहिए था, उनके बजाय पार्टी और सरकार ने मिलकर यशवंत के बेटे जयंत को अभिमन्‍यु की तरह इस चक्रव्‍यूह में धकेल दिया।

यहां खतरा देखिए। जिस बाजार को हम अपने आर्थिक हितलाभ के लिए देश और समाज को हद दर्जे तक करप्‍ट करने या नीचे गिराने का जिम्‍मेदार बताते रहे हैं, वह बाजार मुश्किल के इस दौर में दुश्‍मन को भी दोस्‍त बनाकर भविष्‍य की चुनौतियों का सामना करने की तैयार में जुट गया है। लेकिन वो राजनीति जिसे मूल रूप से देश व समाज को चलाने व उसे दिशा देने के लिए जिम्‍मेदार माना जाता है, वो लोकतांत्रिक सरकार जो देश के जनादेश से चुनी गई है, वह अपने घर के भीतर ही बाप बेटों को लड़ाकर अपना बचाव करने की साजिश में लग जाती है।

दरअसल यशवंत सिन्‍हा वाला मामला केवल सरकार की अर्थनीति को लेकर लिखे गए लेख तक ही सीमित नहीं है। यह बहुत से मंचों या मोर्चों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देने का भी है। राजनीति ने इस पूरी बहस को बाप बनाम बेटा, देश बनाम सरकार, मीडिया बनाम मीडिया, आंकड़े बनाम आंकड़े, पार्टी बनाम कार्यकर्ता जैसी कई खंदकों की लड़ाई में तब्‍दील कर दिया है।

यशंवत सिन्‍हा का यह बयान बहुत महत्‍वपूर्ण है कि पार्टी में आखिर ऐसा मंच है कहां, जहां जाकर कोई अपनी बात कह सके। यानी राजनीति तो अपने ही नेताओं, कार्यकर्ताओं के लिए मौजूद संवाद के प्रभावी और उपयुक्‍त मंचों को खत्‍म करती जा रही है और दूसरी तरफ बाजार, खत्‍म होते मंचों की बांस बल्लियों को फिर से खड़ा करते हुए अपने लिए संवाद का नया मंच तैयार कर रहा है।

कोई माने या न माने लेकिन यशवंत सिन्‍हा का यह कथन काफी हद तक सही है कि भाजपा में बोलना तो बहुत से लोग चाहते हैं लेकिन डर के मारे बोल नहीं पा रहे। राजनीति अगर अपने लोगों की बोलती बंद कर रही है और बड़ा कॉरपोरेट अपने लिए बोलने के नए मंच विकसित कर रहा है तो इसे देश के संदर्भ में गंभीरता से लिया जाना चाहिए। ये स्थितियां बता रही हैं कि आपने जो माहौल पैदा किया है उसमें छोटे, कमजोर या किनारे पड़े लोगों के लिए कोई जगह नहीं है… चाहे वह समाज हो, बाजार हो या फिर राजनीति।

क्‍या अपना ‘न्‍यू इंडिया’ ऐसा ही होगा?

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