गैरों से कहा तुमने, गैरों से सुना हमने, कुछ हमसे कहा होता…

ओरछा में असहिष्‍णुता पर केंद्रित राष्‍ट्रीय विमर्श पर बात करते हुए गुरुवार को जब मैंने बात पूरी की थी तभी संकेत मिल गए थे कि पंजाब और हरियाणा में असहिष्‍णुता का एक ज्‍वालामुखी फटने वाला है। और यह असहिष्‍णुता किसी विचार या मुद्दे पर नहीं बल्कि एक अपराधी पर संभावित कानूनी कार्रवाई को लेकर होने वाली थी। वैसा ही हुआ। डेरा सच्‍चा सौदा के समर्थकों (या गुंडों) ने शुक्रवार को देश के कानून और संविधान का खूनी सौदा किया।

गुरुवार को मैंने लिखा था कि ‘’असहिष्‍णुता का सबसे बड़ा जिम्‍मेदार तो मीडिया खुद है’’लेकिन शुक्रवार को पंजाब और हरियाणा के शहरों में डेरा के अंधभक्‍तों और गुंडों द्वारा खेले जा रहे खूनी खेल और हिंसा के बीच रिपोर्टिंग करते नौजवानों को देखकर सहज ही अंदाज लगाया जा सकता था कि स्‍टूडियो में बैठकर बातें बनाने वालों और मैदान में जान जोखिम में डालकर रिपोर्टिंग करने वालों के बीच कितना अंतर होता है। हिंसा से निपटने के सरकारी इंतजामात (?) की पोल खोलती रिपोर्टिंग करने वाले उन सभी रिपोर्टर्स को सलाम।

वापस ओरछा पर मैं इस बात के साथ लौटना चाहता हूं कि देश में राजनीतिक, आर्थिक,सामाजिक, जातीय और सांप्रदायिक असहिष्‍णुता से भी ज्‍यादा खतरनाक है कानून और संविधान के प्रति असहिष्‍णुता। देश बाकी असहिष्‍णुताओं से तो निपट सकता है, उनके घाव समय के साथ भर भी जाते हैं, लेकिन कानून और संविधान के साथ जब असहिष्‍णुता होती है तो उसके घाव बरसों बरस रिसते रहते हैं। उनसे पैदा होने वाला मवाद समाज को बरसों बरस त्रास देता रहता है।

राष्‍ट्रीय विमर्श के पहले दिन की चर्चा के बाद ऐसा लगा कि शायद वह विषय से कहीं भटक रही है। क्‍योंकि उसमें केवल और केवल राज्‍य अथवा राजनीति केंद्रित हिंसा का जिक्र था। तमाम लोगों को सुनने के बाद मैंने महसूस किया कि असहिष्‍णुता के मामले में हम अकसर एकांगी हो जाते हैं।

हमारी आंख केवल सत्‍ता और राजनीति के इर्द गिर्द घूमने वाली या उनसे पैदा होने वाली हिंसा और असहिष्‍णुता पर ही टिक जाती है, जबकि समाज और आम जनजीवन में न जाने कितनी तरह की हिंसाएं और कितने तरह की असहिष्‍णुताएं मौजूद हैं। मैंने जब यह बात विकास संवाद के प्रतिनिधि सचिन जैन से शेयर की तो वे भी इससे सहमत नजर आए और उन्‍होंने माना कि विमर्श की यह दिशा बदलनी होगी।

और उसे बदलने की भूमिका अदा की राकेश दीवान ने। दूसरा सत्र असहिष्‍णुता और बच्‍चेविषय पर केंद्रित था। लेकिन उसकी शुरुआत में राकेश दीवान ने कुछ बुनियादी सवाल उठाए। उन्‍होंने पूछा कि क्‍या असहिष्‍णुता की यह बात 70 साल पहले ही शुरू नहीं हो गई थी, जब हमने विकास की अवधारणा तय की। हमने विविधता को असहिष्‍णुता का विरोधी शब्‍द बना दिया, जबकि हमारे यहां समाज के भीतर से लेकर विकास के तमाम चरणों तक में मौजूद विविधता ही हमें सहिष्‍णु बनाती थी।

बहुत सटीक उदाहरण देते हुए राकेश दीवान ने कहा कि जैसे सिरदर्द कैसा भी और किसी का भी हो और वह किसी भी कारण से हो रहा हो लेकिन डॉक्‍टर के पास सभी मरीजों के लिए एक ही दवा है- पैरासिटेमॉल। यही हाल हमने असहिष्‍णुता और उससे निपटने के तौर तरीकों का किया है। बच्‍चों का जिक्र करते हुए उन्‍होंने कहा कि ज्‍यादा दूर क्‍यों जाएं, बरसों से हम उनके बस्‍ते का बोझ कम करने का रोना रो रहे हैं, लेकिन आज तक कर कुछ नहीं पाए।

और इसी बिंदु से दयाशंकर मिश्र ने मूल विषय को आगे बढ़ाते हुए कहा कि जितनी देर बच्‍चे मां-बाप या परिवार के साथ नहीं रहते उससे कहीं ज्‍यादा वे अपने टीचर या स्‍कूल में रहते हैं,लेकिन आज स्‍कूल ही बच्‍चों के लिए सबसे खतरनाक जगह होते जा रहे हैं। पीयूष बबेले ने कहा कि असहिष्‍णुता तो बचपन से ही शुरू हो जाती है, जब हम बच्‍चों के सवालों का जवाब देने के बजाय उन सवालों को ही दबाना शुरू कर देते हैं। ऐसा करके हम उनकी सोच की नैसर्गिक विविधता को ही खत्‍म कर रहे हैं। बच्‍चों के प्रति यदि हम सहिष्‍णु हो जाएं तो जिंदगी भर असहिष्‍णु नहीं हो पाएंगे।

चिन्‍मय मिश्र ने विमर्श को और अधिक धार देते हुए कहा कि हिंसा के दौरान यह सवाल महत्‍वपूर्ण नहीं है कि हमने कितनों को मारा बल्कि अहम बात यह है कि कैसे मारा? आज हमारी शिक्षा प्रणाली ही बच्‍चों का शोषण कर रही है। सवाल यह है कि अभिमन्‍यु की जान वास्‍तव में किसने ली, कौरवों ने या खुद पांडवों ने। अभिमन्‍यु तो चक्रव्‍यूह भेदने का रहस्‍य जानने के लिए बहुत छटपटाया था, लेकिन समाज ही था जो सो गया। आज हम न जाने कितन अभिमन्‍युओं को अपनी जीत के लिए मौत के मुंह में झोंक रहे हैं। जिस विकास को हम देश की तरक्‍की का पैमाना मानते हैं वही हमारे विनाश का कारण बन रहा है। रोड रोलर भी विकास का वाहक है, लेकिन वह जमीन की कोमलता, उसके उपजाऊपन को नष्‍ट कर, उसे ठोस बना देता है। आज के हालात समाज में कोमलता का अभाव पैदा कर रहे हैं। उसे नष्‍ट करने में लगी हैं। ऐसे में स्‍वाभाविक है कि असहिष्‍णुता दायरा तो बढ़ेगा ही…

विमर्श के दौरान ही वरिष्‍ठ मीडियाकार अरुण त्रिपाठी ने एक शेर के जरिए बहुत सुंदर बात कही, वो शेर कुछ यूं था-

गैरों से कहा तुमने, गैरों से सुना हमने

कुछ हमसे कहा होता, कुछ हमसे सुना होता…

मुझे लगता है सारे झगड़े की जड़, यह गैरों के जरिए होने वाली कहा सुनी ही है…

(जारी)

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