स्‍त्री न ‘सेज’ का सामान है और न ही ‘जौहर’ उसकी नियति

उस घटना की जानकारी मुझे सबसे पहले 7 अगस्‍त को प्रसिद्ध लेखक एवं आलोचक डॉ. विजयबहादुर सिंह द्वारा भेजे गए एक वाट्सएप संदेश से मिली थी। यह संदेश मूलत: बस्‍तर क्षेत्र में काम करने वाले एनजीओ कार्यकर्ता हिमांशु कुमार का था जो विजयबहादुर सिंह जी ने मुझे फॉरवर्ड किया था। उस संदेश में घटना का जो वर्णन था उसने मुझे भीतर तक कंपा दिया था।

जी हां, यह मामला छत्‍तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के पालनार गांव के दूरस्‍थ इलाके का है। वहां एक टीवी चैनल ने सामाजिक संदेश देने के लिए लड़कियों के होस्‍टल में 31 जुलाई को सीआरपीएफ के जवानों के साथ रक्षाबंधन का कार्यक्रम रखवाया। मकसद इस बात को दिखाना था कि इस आदिवासी अंचल की लड़कियां और महिलाएं सीआरपीएफ को अपना रक्षक समझती हैं। लेकिन वहां कुछ लड़कियों के साथ सीआरपीएफ के कुछ जवानों द्वारा की गई हरकत के बारे में हिमांशु कुमार ने जो ब्‍योरा भेजा है, उसे लिखने की मेरी हिम्‍मत तक नहीं हो रही।

मुझे यह कहने में कतई हिचक नहीं है कि किसी भी बात पर आंख मूंदकर विश्‍वास न करने के पत्रकारिता के मूल सबक के चलते एक बार तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ कि इतने लोगों और अफसरों के मौजूद होने के बावजूद इस तरह की घटना हो सकती है। क्‍योंकि बकौल हिमांशु कुमार उस कार्यक्रम में दंतेवाड़ा के अपर कलेक्‍टर सहित कई अधिकारी भी मौजूद थे। लेकिन अगले दिन तक मामला पूरा साफ हो गया था कि घटना सही है। जैसा बताया जा रहा है वैसा कुछ हुआ जरूर है।

और जैसाकि होता है, मामला गरमाने पर उसे दबाने की कोशिशें भी हुईं। जिन लड़कियों के साथ हरकत हुई थी उन्‍हें जबान बंद रखने की हिदायत भी दी गई, लेकिन ऐसा हो न सका। मामले के तूल पकड़ने पर पुलिस को अपराध दर्ज करना पड़ा और बुधवार को खबर आई कि सीआरपीएफ के एक आरोपी जवान को गिरफ्तार कर लिया गया है और दूसरे को पकड़ने के लिए एक दल उत्‍तरप्रदेश गया है।

हमारे यहां रक्षाबंधन जैसे त्‍योहार का महत्‍व इसलिए है कि ये धार्मिक या अन्‍य महत्‍व के बजाय सामाजिक महत्‍व अधिक रखते हैं। मूलत: यह मानवीय रिश्‍तों और उनकी रक्षा के संकल्‍प या वचन से जुड़ा त्‍योहार है। लेकिन पालनार में 31 जुलाई को उसी रक्षाबंधन के प्रतीक स्‍वरूप हुए आयोजन की घटना में सीआरपीएफ के जवानों ने जो किया उसने सारी मानवीय गरिमा को शर्मसार किया है। आखिर ऐसा क्‍यों है कि जिन पर समाज की रक्षा करने की जिम्‍मेदारी है वे ही इस तरह से भक्षक बन जा रहे हैं।

मैं सेना, अर्धसैनिक बलों और पुलिस बल का अंधविरोधी नहीं हूं, इनके जवान जिन परिस्थितियों में काम करते हैं वे सामान्‍य सा साधारण नहीं होतीं। परिवार से दूर रहकर और हमेशा अपनी जान को जोखिम में डालकर ये सरहदों से लेकर देश के अंदरूनी इलाकों तक रक्षा और सहायता का काम करते हैं। लेकिन जब भी ऐसी घटनाएं होती हैं, उससे पूरा बल या पूरी संस्‍था ही बदनाम हो जाती है।

ऐसी घटनाएं इसलिए भी गंभीर हैं कि इन्‍हें चाहे एक या दो लोग अंजाम दें, लेकिन उसका खमियाजा पूरे फोर्स को उठाना पड़ता है। नक्‍सल प्रभावित बस्‍तर जैसे इलाकों में इनका होना इसलिए भी ज्‍यादा गंभीर और खतरनाक है क्‍योंकि वहां समाजविरोधी तत्‍व ऐसी घटनाओं को प्रचारित कर अपने लिए सहानुभूति और राज व्‍यवस्‍था के खिलाफ बगावत के बीज बोने में सफल होते हैं।

खुद सरकार ने संसद में मंजूर किया है कि पिछले तीन सालों में महिलाओं से छेड़खानी की घटनाओं में इजाफा हुआ है जबकि ऐसे मामलों में सजा पाने की दर कम हुई है। लोकसभा को बताया गया कि 2016 में महिलाओं का पीछा और छेड़खानी करने के 7132 मामले दर्ज हुए। 2014 की तुलना में 2016 में पूरे देश में छेड़खानी कीघटनाएं 54 प्रतिशत ज्यादा हुई।

यानी महिला सुरक्षा और सम्‍मान के तमाम दावों के बावजूद हकीकत कुछ और ही है। इस चिंताजनक स्थिति पर प्रसिद्ध लेखिका रोहिणी अग्रवाल ने अपनी फेसबुक वॉल पर जो लिखा उसका यह अंश बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है-

‘’ऐयाशी के पलों में स्त्री को अपने पहलू में जगह दे देना स्त्री का सम्मान नहीं है। स्त्री का सम्मान स्थूल प्रतीकों,बड़बोले कथनों से संभव भी नहीं। उसे सम्मान तभी दिया जा सकता है जब हम अपनी मनुष्यता कानिजी स्वायत्तता का सम्मान करना सीख जाएं। एक इकाई के तौर पर अपनी मानवीय गरिमा और ताकत पहचानने के बाद ही स्त्री का संग-साथ लेकर सृष्टि का सृजन किया जा सकता हैअन्यथा जान लेना चाहिए कि राजा रतनसेन का अभिनय करने के बावजूद हम सब राघव चेतन और हीरामन तोता की तरह किसी पद्मावती को मुट्ठी में कर लेने की लपलपाती दुरभिसंधियों के नायक ही हैं।‘’

‘’स्त्री बार-बार कह रही है कि वह पद्मावती की तरह न सुख के दिनों में सेज का सामान हैन दुख के दिनों में जौहर के नाम पर आत्मदाह करने के अमानुषिक सुख‘ का प्रतीक। वह मनुष्य हैलैंगिक विभाजन के इर्द-गिर्द फैले फिजूल के महिमामंडन से दूर एक सामान्य मनुष्य। क्या उसके इस विश्वास की प्रतिगूंज शेष आधी आबादी की ओर से नहीं आनी चाहिये?’’

रोहिणी जी के इस प्रश्‍न पर समाज को सोचना ही होगा…

 

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