राजनीति कोई भी सबसिडी लोगों को अहसान की तरह दे रही है। यह मूलत: वोटों का सौदा है। औने पौने दामों पर खाद्यान्न या अन्य वस्तुओं के बहाने होने वाली यह खरीद फरोख्त दोहरा नुकसान कर रही है। एक तरफ यह राजनीति को और अधिक भ्रष्ट बना रही है तो दूसरी तरफ लोगों को निकम्मा। यह बड़ा विचित्र समय है, लोग वोट देकर निकम्मे बन रहे हैं या यूं कहें कि लोगों से वोट लेकर उन्हें निकम्मा बनाया जा रहा है।
दरअसल यह व्यवस्था आम आदमी या गरीब आदमी को सक्षम बनाना ही नहीं चाहती। किसानों को अधिक से अधिक कर्ज देकर उन्हें कर्ज के जाल में उलझा दिया गया है, उसी तरह गरीबी की रेखा से नीचे जीने वालों को मुफ्त में चीजें देने की बात कहकर उन्हें नाकारा या गुलाम बनाया जा रहा है। यदि व्यक्ति को यूं ही चीजें मुफ्त में मिलने लगें तो वह काम क्यों करना चाहेगा?
वस्तुओं को मुफ्त में दिए जाने का ऐसा कोई मैकेनिज्म भी नहीं है जो यह तय कर सके कि अमुक व्यक्ति काम कर सकता है तो उसे काम के बदले वह वस्तु रियायती दामों पर मिले। और चलिए मान लिया कि खुद गरीब ही ऐसी स्थिति में नहीं हैं कि वे काम कर सकें या दो जून की रोटी जुटा सकें तो भी बड़ा सवाल यह है कि क्या यह व्यवस्था वास्तविक रूप से गरीबों का भला कर रही है? गरीबों के नाम पर बनी तमाम योजनाओं का असली मजा तो बिचौलिये लूट रहे हैं। नाम भर गरीबों का है। इस बात पर जरूर ध्यान जाना चाहिए।
मुझे याद है, मध्यप्रदेश में जब गरीबों को बहुत सस्ता खाद्यान्न देने की योजना लाई जा रही थी तो खुद राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी ने उस पर ऐतराज जताया था। उनका कहना था कि मुफ्तखोरी की यह आदत खुद लोगों के लिए नुकसानदायक है,क्योंकि इससे काम करने के प्रति उनकी रुचि ही खत्म हो जाएगी। वे काम से बचने लगेंगे।
अगर हम ऐसी तमाम योजनाओं की हकीकत देखें तो पाएंगे कि वे अपने ऐलान और उससे पैदा होने वाली फौरी वाहवाही तक ही सीमित रहती हैं। मैदानी स्तर पर उन पर अमल कम ही हो पाता है। सुप्रीम कोर्ट में आधार व्यवस्था का बचाव करते हुए सरकार ने जिस भोजन के अधिकार का जिक्र किया है उस संदर्भ में क्या हम दावे के साथ कह सकते हैं कि देश में अब एक भी नागरिक भूखा नहीं सोता?
इसके विपरीत हुआ यह है कि भोजन का अधिकार जैसे अधिकारों के नाम पर आधार कार्ड के जरिए जुटाई गई राई-रत्ती जानकारी कॉरपोरेट ने हथिया ली है। यानी बाजार गरीबों के भोजन के अधिकार से भी मुनाफा कमा रहा है। वहां भी फंडा मुफ्तखोरी का ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि सरकार की ओर से की या कराई जाने वाली मुफ्तखोरी से जनता का खजाना लुटता है और कॉरपोरेट द्वारा की या कराई जाने वाली मुफ्तखोरी उसका खुद का खजाना भरती है।
दरअसल सरकारें सौदा करती हैं। तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें मुफ्त की रोटी दूंगा। हमने वोट दे दिए, और मन समझाने के लिए यह भी मान लें कि आपने हमें मुफ्त में भोजन दे दिया, तो सौदा तो पूरा हो गया। इसमें किसी का किसी पर क्या अहसान? पर आप अहसान जताकर रोटी फेंकते हैं। रेलवे के टिकट पर आप यह दर्ज करते हैं कि आपके यात्रा किराये की राशि का इतना अंश सरकार सबसिडी के रूप में दे रही है।
अरे यह आपके बाप का माल नहीं है जो आप इसे अहसान जताकर टिकट पर छाप रहे हो। यह जनता का ही माल है जिस पर आपने अपनी सत्ता का महल खड़ा किया है। लेकिन आप तो जनता से गुलामों की तरह बर्ताव करते हैं, राजस्थान में गरीबों के घरों पर लिखवा दिया गया, ये बीपीएल परिवार है। क्यों भई, क्या आज तक आपने किसी सांसद के बंगले पर लिखवाने का साहस किया कि यह आदमी सरकारी सबसिडी वाले बंगले में रहता है, सरकारी सबसिडी से बिजली और टेलीफोन का बिल भरता है, और सरकारी सबसिडी का खाना खाता है…
अमिताभ बच्चन की मशहूर फिल्म ‘दीवार’ का डायलॉग है- ‘’मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता…’’ लेकिन आप ये सारी सबसिडी जनता को फेंककर ही तो दे रहे हैं। उसे फेंके हुए पैसे उठाने को या तो मजबूर कर रहे हैं या ऐसा करने की लत लगवा रहे हैं। यहीं आकर आपके सारे कार्डों पर और आदमी की पहचान के सारे सबूत जुटा लेने की मंशा पर सवाल उठने लगते हैं। कोर्ट में भले ही किसी भी मंशा से वह बात कही गई हो, लेकिन वह बात सरकारों की, सत्ता की, असली मंशा को उजागर करती है कि लोगों को सिर्फ दो जून की रोटी चाहिए। यानी जो व्यवस्था या कागज का एक टुकड़ा उसे रोटी के टुकड़े मुहैया करा दे, उसके सामने निजता के अधिकार की क्या औकात है?
आधार कार्ड के संदर्भ में नागरिक की निजता के अधिकार मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। फैसला क्या होगा कोई नहीं जानता। लेकिन इस पूरी बहस ने सत्ता तंत्र के खोखलेपन को उजागर जरूर किया है। फैसला जो भी आए, बहस के दौरान संविधान पीठ के न्यायाधीशों ने जो टिप्पणियां की हैं, उनका कुछ रंग फैसले पर जरूर दिखाई देगा, इतनी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए।
और हां, एक बात और, मुझे नहीं मालूम की कोर्ट में होने वाली ऐसी बहसों का संसद या विधानसभाओं की तरह कोई रिकार्ड रखा जाता है या नहीं। लेकिन यदि नहीं रखा जाता तो ऐसा होना चाहिए। क्योंकि ऐसा विमर्श बार बार नहीं होता। यह आने वाली पीढि़यों के लिए तो धरोहर होगा ही, नए वकीलों के लिए भी मार्गदर्शक बनेगा। वैसे इस विषय पर आगे कभी विस्तार से बात करेंगे…