क्‍या रोटी का टुकड़ा फेंक कर निजता छीनी जा सकती है?

मुझे कई बार दुख होता है कि खुद को स्‍वयंभू और सर्वज्ञ मानने वाले हम मीडियाकार (मैं चाहूंगा आप इसे मीडियॉकर पढ़ें) फालतू की बातों में इतने उलझे रहते हैं कि वास्‍तविक या जरूरी मुद्दों पर हमारी निगाह ही नहीं जाती। हमें तो इस बात की भी चिंता नहीं कि जिस राजनीति को हमने अपने कामकाज में सर्वोच्‍च प्राथमिकता दे रखी है वह समाजशास्‍त्र की दृष्टि से देश में क्‍या क्‍या गुल खिला रही है।

मसलन पिछले कई दिनों सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्‍यीय संविधान पीठ ने आधार कार्ड को केंद्र में रखकर नागरिक के निजता के अधिकार पर लंबी सुनवाई की। कोर्ट इस बात पर विचार कर रहा है कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है या नहीं? आठ दिनों तक चली सुनवाई के बाद हालांकि कोर्ट ने बुधवार को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया, लेकिन उससे पहले देश की सर्वोच्‍च अदालत में जो बहस हुई वह भारत की दिशा और दशा दोनों लिहाज से बहुत अहम है।

इस दौरान हमारा ध्‍यान सिर्फ इस बात पर लगा रहा कि नीतीश ने भाजपा से हाथ क्‍यों मिलाया या अब लालूप्रसाद यादव का क्‍या होगा? या फिर हम इस बात में उलझे रहे कि भारत चीन सीमा विवाद में किसने किसको कितनी बड़ी धमकी दी। लेकिन सरकारें हमारी निजता के साथ क्‍या सौदा कर रही हैं, वहां कौनसा गठबंधन बन या टूट रहा है, इसकी हमें जरा भी चिंता नहीं रही। डोकलाम में चीनी सेना ने सीमा का अतिक्रमण किया या हमने उनकी सीमा का, इस विवाद से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण यह है कि सरकार हमारी जिंदगी की सीमा में किस हद तक घुसपैठ कर रही है या कर सकती है?

इस मामले की अंतिम सुनवाई से एक दिन पहले मंगलवार को कोर्ट में बहुत ही गंभीर बात कही गई। मामले पर महाराष्‍ट्र सरकार के वकील सी.ए. सुंदरम ने सवाल उठाया कि लोगों के लिए दो जून की रोटी ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है या उनकी निजता का अधिकार? उन्‍होंने कहा कि आधार कार्ड में व्‍यक्ति के बारे में जानकारी दर्ज करना इसलिए ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है क्‍योंकि यह कार्ड गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे लाखों लोगों के भोजन के अधिकार को सुनिश्चित करता है। ऐसे में इस मामले में निजता का अधिकार स्‍वत: अपनी प्राथमिकता खो देता है। लोगों के लिए दो वक्‍त का खाना ज्‍यादा जरूरी है बजाय निजता के अधिकार के…

मैं सुंदरम की इस दलील के जवाब में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के न्‍यायाधीशों द्वारा की गई टिप्‍पणियों के लिए उन्‍हें सैल्‍यूट करना चाहूंगा। उन्‍होंने कहा- ‘’लोगों के आर्थिक अधिकार या उन्‍हें भोजन और अन्‍य सुविधाएं देने के प्रावधान, संविधान द्वारा प्रदत्‍त मौलिक अधिकार का विकल्‍प नहीं हो सकते, न ही ऐसे प्रावधान निजता के अधिकार के महत्‍व को कम कर सकते हैं।‘’

जस्टिस डी. वाय. चंद्रचूड़ ने तो मानो न्‍यायपालिका का धर्म ही निभा दिया। उन्‍होंने सवाल किया- ‘’क्‍या संविधान द्वारा प्रदत्‍त मौलिक अधिकार इसलिए संरक्षित किए गए हैं कि थोड़े से आर्थिक विकास के बदले उनकी बलि दे दी जाए? क्‍या रोटी के चंद टुकड़े देकर लोगों से विरोध करने का, संगठन बनाने का या अन्‍य कोई मौलिक अधिकार छीना जा सकता है?’’

जस्टिस जे.चेलमेश्‍वर ने कहा कि यदि यह विकल्‍प है तो बहुत ही ‘क्रूर विकल्‍प’ है। आप लोगों से कैसे कह सकते हैं कि वे दो जून की रोटी या निजता के अधिकार में से किसी एक को चुन लें। जस्टिस आर.एफ. नरीमन का कहना था कि ऐसे समय में, जब व्‍यक्तिगत आजादी और मौलिक अधिकारों का दायरा बढ़ाते हुए उन्‍हें नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा है, आप मौलिक अधिकारों को संकुचित करने के बारे में सोच भी कैसे सकते हैं?

हालांकि सुंदरम ने तर्क दिया कि देश में व्‍यक्ति की निजता के अधिकार को अलग-अलग कानूनों व मंचों पर पूरी सुरक्षा दी गई है। लेकिन इसे एकमात्र मौलिक अधिकार के रूप में स्‍वीकार नहीं किया जा सकता। स्‍वयं संविधान निर्माताओं ने पूरी बहस के बाद इसे स्‍वतंत्र रूप से मौलिक अधिकार मानने से इनकार कर दिया था।

दरअसल सुंदरम ने जो तर्क दिया उसके पीछे छिपी सरकार की मानसिकता को हमें देखना होगा। आज सरकारें शायद यह समझने लगी हैं कि वे चंद रियायतें या सबसिडी देकर लोगों के जमीर को भी खरीद सकती हैं। लेकिन क्‍या लोकतंत्र में ऐसी मानसिकता को मंजूर किया जा सकता है? व्‍यक्ति पहले मनुष्‍य के रूप में एक जीती जागती इकाई है। चाहे भूख का मामला हो या शिक्षा का, स्‍वास्‍थ्‍य का मामला हो या अन्‍य संसाधनों का,ये सब मामले मनुष्‍य के अस्तित्‍व के बाद या अस्तित्‍व के साथ ही अपनी अहमियत रखते हैं।

यदि कोई व्‍यवस्‍था यह मानती है कि वह लोगों की भूख मिटाकर या उन्‍हें चंद दवाइयां देकर उसके अस्तित्‍व को ही नकार सकती हैं तो यह बहुत ही खतरनाक प्रवृत्ति है। यह बिलकुल सही है कि मनुष्‍य को जीने के लिए रोटी चाहिए, लेकिन रोटी किस कीमत पर? क्‍या हमारे मनुष्‍य होने की कीमत पर, क्‍या शिक्षा हमारे अस्तित्‍व की कीमत पर? रूखी सूखी जैसी भी थी, रोटी तो देश के लोग गुलामी के दौर में भी खा ही रहे थे, फिर हमने आजादी के लिए संघर्ष क्‍यों किया? जिस स्‍वतंत्रता संग्राम का हम पूरे गर्व के साथ बखान करते हैं, वह आखिर हमने क्‍यों लड़ा? इसीलिए कि हमें रोटी तो चाहिए थी लेकिन आत्‍मसम्‍मान के साथ।

अरे, जब हमने गुलामी के दौर में ‘दो टुकड़ों’ के बदले अपनी आजादी का सौदा नहीं किया, तो आज अपने ही राज में रोटी के बदले अपनी अस्मिता का सौदा कैसे कर सकते हैं? (जारी)

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