मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में शुक्रवार को जिस समय बच्चों के अधिकारों पर सुप्रीम कोर्ट और मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के न्यायाधीश से लेकर मुख्यमंत्री तक चिंता जताते हुए बाल अधिकार संरक्षण की बात कर रहे थे, उस समय शायद चंडीगढ़ का एक परिवार अपनी दस साल की बच्ची के भविष्य पर आए संकट को लेकर पत्थर बना हुआ होगा।
भोपाल के कार्यक्रम में वक्ताओं ने किशोर न्याय प्रणाली में मानव संसाधन की कमी पर चिंता जताते हुए कहा कि बच्चों को पूरी सुरक्षा और संरक्षण मिलना चाहिए। इसके लिए सरकार और समाज को मिलकर प्रभावी कदम उठाने चाहिए ताकि बच्चे किसी गलत रास्ते पर न जाएं और अवसाद से ग्रस्त होकर अपना जीवन खत्म कर देने जैसे कदम न उठाएं।
लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। जैसाकि मैंने कहा, जिस समय मध्यप्रदेश में न्याय, समाज और सरकारी क्षेत्र से जुड़े तमाम दिग्गज बच्चों को लेकर मंचीय चिंता जता रहे थे, उस समय शायद चंडीगढ़ की उस बच्ची का परिवार पत्थर बना बैठा होगा जिसके मामा ने ही उसके साथ लगातार दुष्कर्म किया और नतीजा यह हुआ कि दस साल की यह बच्ची गर्भवती हो गई।
उस बच्ची की पीड़ा और परिवार पर आए संकट को देखते हुए कुछ लोग बच्ची का गर्भपात करवाने का मामला सुप्रीम कोर्ट में लेकर गए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को भारी मन से, मेडिकल बोर्ड की सलाह के मुताबिक,32 सप्ताह की गर्भवती इस बच्ची का गर्भपात कराने की इजाजत नहीं दी। मेडिकल बोर्ड का कहना था कि ऐसा करने से बच्ची और उसके गर्भ में पल रहे शिशु दोनों की जान को खतरा हो सकता है।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट को ऐसे मामले लंबे समय से दुविधा में डाल रहे हैं। पिछले एक साल में ही ऐसे सात मामले कोर्ट के सामने आए जिसमें से उसने केवल चार मामलों में ही गर्भपात कराने की इजाजत दी। जुलाई में ही सुप्रीम कोर्ट ने कोलकाता की एक महिला को 26 सप्ताह का गर्भ गिराने की इजाजात इस आधार पर दी थी क्योंकि भ्रूण में आनुवांशिक बीमारी के लक्षण पाए गए थे।
लेकिन मई में एचआईवी पीडि़त 35 वर्षीय एक असहाय महिला को 26 सप्ताह का गर्भ गिराने की इजाजत इसलिए नहीं दी गई क्योंकि डॉक्टरों का कहना था कि ऐसा करना खतरनाक होगा। ऐसे ही मार्च में एक महिला का 27 सप्ताह का भ्रूण गिराने से भी कोर्ट ने मना कर दिया, जब यह पता चला था कि गर्भ में पल रहे बच्चे गंभीर शरीरिक अपंगता हो सकती है।
फरवरी में 22 साल की एक महिला के जीवन पर खतरे को देखते हुए उसे 23 सप्ताह का गर्भ गिराने की इजाजत दे दी गई थी। लेकिन उसी माह गर्भस्थ शिशु को ‘डाउन सिंड्रोम’ का पता चलने के बाद भी उसकी मां को गर्भपात की इजाजत इसलिए नहीं दी गई क्योंकि उससे मां के जीवन को कोई ‘खतरा’ नहीं समझा गया ।
मुंबई की एक महिला को इसी साल जनवरी में 24 सप्ताह का एक गर्भ गिराने की इजाजत इसलिए दी गई क्यों कि गर्भ में पल रहे शिशु में जानलेवा असमर्थताएं पाई गईं। जबकि पिछले साल अप्रैल में दुष्कर्म की शिकार अहमदाबाद की 14 साल की एक बच्ची को 24 माह का गर्भ गिराने की इजाजत मिल गई थी।
ये उदाहरण बताते हैं कि ऐसे मामलों में गर्भपात की इजाजत देने या न देने को लेकर कोई एकरूपता या स्थायी निर्देश नहीं हैं। यह केस टू केस निर्भर करता है कि इजाजत दी जाए या नहीं। इसी विसंगति को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने चंडीगढ़ की बालिका का फैसला सुनाते वक्त केंद्र सरकार से कहा कि वह राज्यों को निर्देशित करे कि उनके यहां स्थायी रूप से डॉक्टरों का एक पैनल या बोर्ड गठित हो जो रेप जैसे मामलों में समय सीमा के बाद भी गर्भपात के लिए विचार करे। इससे ऐसे मामलों पर जल्दी विचार/फैसला किया जा सकेगा।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट का यह सुझाव भी मूल समस्या का पूरा समाधान नहीं देता। भोपाल में बच्चों के अधिकारों के संरक्षण की जो बात की गई, उसके तहत होना तो यह चाहिए कि उन्हें ऐसे मामलों में समाज और सरकार की ओर से अतिरिक्त मदद मिले और कानून भी लकीर का फकीर बनने के बजाय पीडि़ता के साथ खड़ा होकर उसके बारे में सोचे।
आप ही अंदाज लगाइए कि दस साल की बच्ची, जिसके खुद के अभी खेलने कूदने के दिन हैं, अपनी गोद में एक बच्चे को लेकर कैसा महसूस करेगी और कैसा जीवन बिताएगी? अभी भी दकियानूसी परंपराओं में जी रहा समाज क्या उसे और उसके बच्चे को कोई सम्माजनक या सामान्य जीवन जीने की भी इजाजत देगा? उसका खुद का परिवार उस बच्चे को देखकर कैसा महसूस करेगा जो खुद बच्ची के मामा के दुष्कर्म का परिणाम है?
दरअसल इसके लिए, 20 सप्ताह से अधिक का गर्भ गिराने को प्रतिबंधित करने वाले, डॉक्टरी तरीके से गर्भपात संबंधी कानून (एमटीपी) में संशोधन की लंबे समय से चली आ रही मांग पर अब तुरंत विचार होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह का यह कहना बहुत जायज है कि इस कानून में भारत की विषमताओं का ध्यान ही नहीं रखा गया है। वे पूछती हैं- ‘क्या उस बच्ची को और उसके परिवार वालों को पूरी जानकारी है कि उसे क्या करना है और कब करना है? क्या उसे डॉक्टरी और कानूनी सुविधाएं उपलब्ध हैं? अगर नहीं हैं तो उन्हें हम ऐसी सजा क्यों दे रहे हैं?’
डॉक्टरों का भी कहना है कि ‘इतनी कम उम्र की लड़की के लिए बच्चे को जन्म देना जितना मुश्किल है, उतना ही मुश्किल उसे पेट में रखना भी है। लेकिन प्रसव के बाद भी वह हमेशा के लिए शारीरिक और मानसिक समस्या से जूझती रहने को मजबूर हो सकती है।‘’
मौजूदा कानून में जो संशोधन प्रस्तावित हैं उनमें रेप पीड़ित, अविवाहित, तलाकशुदा, विधवा और दिव्यांग महिलाओं के लिए 20 की बजाय 24 हफ्ते तक गर्भपात की इजाजत दिए जाने का प्रावधान शामिल है। राष्ट्रीय महिला आयोग भी रेप जैसे मामलों में गर्भपात की मौजूदा अवधि को अपर्याप्त बता चुका है।
लेकिन घूम फिर कर सुई वहीं अटक जाती है कि क्या बच्चे और उनसे जुड़ी समस्याएं वास्तविक अर्थों में समाज और सरकार के एजेंडे पर हैं?