बुधवार को मध्यप्रदेश विधानसभा में कांग्रेस के वरिष्ठ सदस्य मुकेश नायक ने सरकार से बहुत ही बुनियादी सवाल पूछा। कांग्रेस शासन में मंत्री रह चुके नायक ने गृह मंत्री से जानना चाहा कि किसी भी आंदोलन के दौरान पुलिस की गोली से मरने वालों के परिवार को मुआवजा देने के कोई नियम हैं या नहीं, या फिर यह पूरा मामला अफसरों के विवेक पर छोड़ दिया जाता है?
नायक का यह सवाल 1 से 16 जून तक प्रदेश में हुए किसान आंदोलन के संदर्भ में था। उन्होंने यह भी जानना चाहा कि इस आंदोलन के दौरान आगजनी और लूटपाट की घटनाओं में जिन नागरिकों की चल-अचल संपत्ति का नुकसान हुआ है, उसके मुआवजे की स्थिति क्या है? जैसाकि होता है गृह मंत्री ने कहा कि नागरिकों को हुई चल-अचल संपत्ति की क्षति का आकलन किया जा रहा है और यह प्रक्रिया पूरी होने के बाद ‘नियमानुसार’कार्यवाही की जाएगी।
अब आइये जरा मुकेश नायक के सवाल के मूल में छिपे मुआवजे के खेल पर थोड़ी बात कर लें…
किसान आंदोलन के दौरान हिंसा से निपटने के लिए पुलिस ने गोली चलाई और उसमें पांच लोग मारे गए। उन पांचों लोगों के परिवारों को सरकार ने एक-एक करोड़ रुपए के मुआवजे का ऐलान किया। इसके अलावा एक व्यक्ति कथित रूप से पुलिस की पिटाई से मारा गया, उसके परिवार को भी इतना ही मुआवजा मिला। इस तरह इस घटनाक्रम ने प्रदेश के इतिहास में किसी भी आंदोलन के दौरान मारे गए लोगों के परिवारों को मुआवजा देने के मामले में कीर्तिमान स्थापित किया।
यह तो हुई आंदोलन में मारे गए लोगों की बात। लेकिन मेरा सवाल कुछ दूसरा है। पहली बात तो यह कि जिनका इस आंदोलन से कोई लेना देना नहीं था और जो निर्दोष लोग मानसिक या शारीरिक रूप से इस आंदोलन की हिंसा का शिकार हुए या फिर आंदोलनकारियों ने जिनकी चल अचल संपत्ति को नष्ट कर दिया उनका क्या?
सरकार ने विधानसभा को बताया कि ऐसे लोगों की क्षति का आकलन किया जा रहा है। अब जरा उस आकलन की स्थिति भी देख लीजिए…
किसान आंदोलन को लेकर विपक्ष की ओर से लाए गए स्थगन प्रस्ताव पर जवाब देते हुए सरकार ने मंगलवार को सदन में बताया था कि अब तक 127 व्यक्तियों को एक करोड़ 64 लाख रुपए की राहत राशि प्रदान की जा चुकी है। यानी औसतन प्रत्येक व्यक्ति को करीब एक लाख 29 हजार रुपए मिले। यदि इसे ही पैमाना माना जाए तो कहा जा सकता है कि संपत्ति के नुकसान को लेकर लोगों को अधिकतम डेढ़ लाख रुपए से ज्यादा का मुआवजा मिलने की उम्मीद कम ही है।
अब मैं आपको आंदोलन के दिनों की ओर ले जाता हूं। उन्हीं दिनों मैंने एक टीवी चैनल पर कार्यक्रम देखा था जिसमें मंदसौर जिले के कई परिवार रोते बिलखते यह बयान दे रहे थे कि आंदोलनकारियों ने उनकी पूरी दुकान और कारोबार का साजोसामान जला दिया। उनका यह भी कहना था कि किसी ने अपना घर गिरवी रखकर या ऊंची दर पर बैंक से कर्ज लेकर दुकान खोली थी। अब जब उनकी रोजी रोटी का साधन ही खत्म हो गया है तो वे कहां जाएंगे, कैसे अपने परिवार का पेट पालेंगे? बैंक का कर्जा कहां से पटाएंगे?
यह घोर विसंगति नहीं तो और क्या है? आंदोलन के दौरान मारे गए परिवारों को मुआवजा दिए जाने पर कोई आपत्ति नहीं है लेकिन एक तरफ पुलिस की गोली से मारे जाने वालों के परिजनों को एक-एक करोड़ रुपए और जीते जी मुर्दा बन जाने वालों को सिर्फ सवा लाख? सरकार ने भले ही यह कहा हो कि मुआवजा देने के मामले में कोई नियम नहीं है, यह घटना की गंभीरता और प्रकृति पर निर्भर करता है। लेकिन क्या ऐसा नहीं लगता कि मोटे तौर पर नीति तो निर्धारित है। जिसके तहत एक है ‘राजनीतिक मुआवजा’ और दूसरा है ‘आर्थिक मुआवजा’। इसीलिए जो लोग पुलिस की गोली से मारे गए उनके परिवारों को एक-एक करोड़ का ‘राजनीतिक मुआवजा’ मिला और जो लोग भीड़ की हिंसा का शिकार हुए उनके हिस्से आया सवा-सवा लाख का ‘आर्थिकमुआवजा’…!
एक और गंभीर मामला देखिए, स्थगन प्रस्ताव के संदर्भ में ही सरकार ने विधानसभा को बताया कि 4 जून को रतलाम में हुई हिंसा के दौरान पुलिस के सहायक उप निरीक्षक पवन कुमार यादव की आंख में गंभीर चोट आई जिससे उनकी बाईं आंख की रोशनी स्थायी रूप से चली गई। अब अन्यथा कोई जानकारी हो तो मुझे पता नहीं,लेकिन मेरी जानकारी यह है कि सरकार ने पवन कुमार यादव के इलाज का पूरा खर्च उठाने का ऐलान भर करके पल्ला झाड़ लिया।
अब बोलिये… एक तरफ जिन्हें सरकार तस्कर, असामाजिक तत्व और गुंडे या फिर कांग्रेसी बता रही है और जिनके सिर हिंसा और आगजनी का दोष मढ़ रही है, उनके मारे जाने पर परिवारों को एक-एक करोड़ का मुआवजा और जो लोग हिंसा में अपनी जीवन भर की पूंजी या रोजी रोटी के साधन खो बैठे उनके हिस्से में मुट्ठी भर राहत की खैरात? और जो पुलिसकर्मी कानून व्यवस्था की ड्यूटी करता हुआ अपनी एक आंख गंवा बैठा उसके परिवार को कुछ नहीं?
सरकार के इस मनमाने रवैये और ‘काणी’ सोच पर आप क्या कहेंगे…