एक समय था जब रिपोर्टिंग के लिए आते जाते वक्त मध्यप्रदेश की सड़कों पर कुछ बोर्ड आसानी से लटके मिल जाते थे, मसलन- सावधान! काम चल रहा है।… सावधान! संकीर्ण पुलिया… दुर्घटना संभावित क्षेत्र… आदि। अब तो उतने दौरे करने के मौके नहीं मिलते लेकिन अपनी पत्रकारिता के मध्याह्न में ऐसे साइन बोर्ड से मैं अकसर रूबरू होता था। इनमें से ‘सावधान संकीर्ण पुलिया’ वाला बोर्ड मुझे बहुत दिलचस्प लगता था।
मुझे याद है यूएनआई इंदौर में अपनी पदस्थापना के दौरान मैं कुछ साथी पत्रकारों के साथ ऐसे ही एक दौरे पर था और रास्ते में ‘सावधान संकीर्ण पुलिया’ वाला बोर्ड दिखा। उसे देखते ही मेरे मुंह से बेसाख्ता निकल गया- ‘’मध्यप्रदेश में दो ही चीजें बहुतायत से मिलती हैं, या तो संकीर्ण पुलिया या संकीर्ण मानसिकता।‘’ मेरे इतना कहते ही साथियों ने जमकर ठहाका लगाया। संकीर्ण शब्द का रिश्ता, पुलिया के साथ प्रदेश के किस विद्वान अफसर ने जोड़ा यह तो मुझे नहीं मालूम लेकिन संकीर्ण शब्द के साथ अधिकांशत: जो शब्द प्रचलित है वह मानसिकता का ही है और शायद इसलिए मुझे उस समय वह तुकबंदी सूझी।
आज यह ‘संकीर्ण’ प्रकरण मुझे, हमारे हरे भरे प्रदेश में प्रचलित कुछ खास शब्दों को लेकर याद आया। यादों की इस जुगाली के पीछे वाट्सएप पर मिले एक संदेश की बहुत बड़ी भूमिका है। यूं तो वाट्सएप पर दिन भर में हजारों संदेश पटके जाते हैं जिन्हें पढ़ना तो छोडि़ए, ठीक से देखना भी संभव नहीं है, लिहाजा मुझसे बहुत सारे संदेश अनपढ़े ही रह जाते हैं। लेकिन सेहत ठीक न होने और डॉक्टर से मिली आराम करने की सलाह के कारण मजबूरी में मैंने कई सारे संदेश खंगाल डाले। इन दिनों में मेरे पास वाट्सएप के रूप में ऐसा चारा मौजूद था, जिसे मैं जब चाहे चर सकता था।
तो यूं ही चरते चरते मेरे हाथ एक बहुत दिलचस्प संदेश लगा। यह संदेश मेरे बहुत पुराने मित्र और व्यंग्यकार कम डॉक्टर अंजनी चौहान का था। अंजनी चौहान को कुछ लोग डॉक्टर पहले और व्यंग्यकार बाद में मानते हैं, लेकिन उनकी फितरत को देखते हुए मैं इसके उलट सोचता हूं। मेरा मानना है कि उनका डॉक्टरी के पेशे में आना भी प्रभु का रचा एक व्यंग्य ही है।
डॉ. चौहान ने अतीत को कुरेदती, अपनी तीस बरस पुरानी एक रचना वाट्सएप पर भेजते हुए मुझसे पूछा- आपकी प्रतिक्रिया? मैंने डॉ. चौहान को क्या प्रतिक्रिया दी उसके बजाय बेहतर होगा कि आप यह जानें कि उस व्यंग्य रचना का लब्बोलुआब क्या है? अंजनी भाई (जी हां, अंजनी नाम से गफलत में आने की जरूरत नहीं है, एक समय कई लोगों को इस नाम के चक्कर में धोखा खाकर लौटना पड़ा था।) ने उसमें तत्कालीन सरकार के कामकाज की शैली की चीरफाड़ करते हुए बहुत ही कंटीली नक्काशी के साथ बात रखी थी। वह व्यंग्य पिछले पैंतीस चालीस सालों में प्रदेश की जनता को अपनी उंगली पर नचाने वाले शासन प्रशासन के दो शब्दों पर केंद्रित है।
वह व्यंग्य कहता है- ‘’प्रदेश के कुछ अर्द्धसाक्षर किंतु शक्ल से सर्वथा निरक्षर लगने वाले संस्कृतिकर्मी अफसरों पर सरकार द्वारा यह जोखिम डाल दी गई कि वे शब्दकोश के बियाबान जंगल में घुसकर अच्छे किस्म के कुछ लुभावने शब्दों को तत्काल गिरफ्तार कर लायें। उन शब्दों को प्रशासन के खूंटे से बांध दिया जाए। उन्हें पूरी तरह दुहा जाए जिसे माननीय मुख्यमंत्री जी छककर पियें और प्रदेश का प्रशासन बिला वजह चुस्ती का भ्रम देने लगे। सरकारी भूतनाथों की भाषा की ऐय्यारी के बटुए से पहला शब्द निकला ‘संवेदनशील’। तुरंत बाजार से फेवीकॉल मंगाकर उसे मुख्यमंत्री जी के सीने के बायीं ओर बिल्ले की तरह सफारी सूट पर टांक दिया गया। फोटो सेशन के दौरान अफसरान शर्मिंदा होकर अपनी अपनी दाद खुजाने लगे कि हाय मुख्यमंत्री की दाहिनी छाती तो सूनी नजर आ रही है। तब प्रगतिशील और बुद्धिजीवी बजने वाले अफसरों ने अफरा-तफरी में घनघोर मशक्कत के बाद ऐय्यारी के बटुए से दूसरा शब्द खोज निकाला ‘पारदर्शी मुख्यमंत्री, पारदर्शी प्रशासन’… जिन खोजा तिन पाइयां नुमा अफसरान की यह नामर्द फौज इसके बाद पूरी तरह नंगई पर उतर आई। संवेदनशील और पारदर्शी मुख्यमंत्री के इर्दगिर्द भीड़ का सैलाब उमड़ पड़ा।…’’
इसी रचना में अंजनी चौहान अपने जमाने की मशहूर ग्रामोफोन कंपनी हिज मास्टर्स वॉयस (एमएमवी) के लोगो, जिसमें ग्रामोफान के भोंगे के सामने एक कुत्ता बैठा रहता है, का जिक्र करते हुए लिखते हैं- ‘’शायद जब तक सौ वर्ष पुरानी ध्वस्त कांग्रेस कंपनी अपना बेसुरा राग मालकौंस सुनाती रहेगी, देश का यह नासमझ कुत्ता ऐसे ही दुम हिलाता बैठा रहेगा…’’
यह व्यंग्य काफी बड़ा और पढ़ने लायक है। इस रचना का खमियाजा अंजनी चौहान को बिना आरोप पत्र के निलंबन झेलकर भुगतना पड़ा था।
हालांकि यह रचना 30 साल से ज्यादा पुरानी है लेकिन आज भी ऐसा आभास देती है मानों हमारे आसपास की कहानी ही बयां की जा रही हो। कुछ भी तो नहीं बदला है। अपनी अपनी सरकारों के लिए गढ़े गए ‘संवेदनशील’ और ‘पारदर्शी’ जैसे खोखले शब्द ही तो आज भी सत्ता और समाज का संचालन कर रहे हैं।
हां, अंजनी चौहान के एक शब्द को मैं जरूर संशोधित करना चाहूंगा। उन्होंने उस समय एचएमवी का उदाहरण देते हुए राग ‘मालकौंस’ बजाए जाने का जिक्र किया था। मुझे लगता है हम उससे थोड़ा आगे बढ़े हैं। ‘क’ के बाद ‘ख’…
आज राग ‘मालकौंस’ नहीं बल्कि राग ‘माल खोंस’ बज रहा है…