हिन्दी के विख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी की उस रचना का समय तो मुझे ठीक ठीक याद नहीं आ रहा लेकिन ‘’जोशी जी राष्ट्रपति के लिए क्यों खड़े नहीं’’ हुए शीर्षक वाली यह रचना 40-45 साल पुरानी तो जरूर रही होगी। यह रचना मुझे वर्तमान राष्ट्रपति चुनाव के संदर्भ में इसलिए भी याद आई क्योंकि उसमें देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री बाबू जगजीवनराम का जिक्र है। संयोग देखिए कि आज देश के इस सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए जो चुनाव होने जा रहा है उसमें एनडीए के प्रत्याशी रामनाथ कोविंद के मुकाबले यूपीए और अन्य दलों ने अपने साझा उम्मीदवार के रूप में बाबू जगजीवनराम की पुत्री और लोकसभा की पूर्व अध्यक्ष मीरा कुमार पर दांव लगाया है।
शरद जोशी जी ने उस व्यंग्य रचना में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर होने वाली राजनीतिक उठापटक पर जो लिखा था, ऐसा लगता है कि इतने साल बाद भी हालात कोई ज्यादा नहीं बदले हैं। जरा उस रचना की बानगी देखिए-
‘’जोशी जी को बड़ा दुख होता है कि वो राष्ट्रपति चुनाव में क्यों नहीं खड़े हुए। आखिर उनको अपने ऊपर भरोसा है कि मैं भी सेलूट ले सकता हूं, हाथ मिला सकता हूं, स्माइल दे सकता हूं, गेस्ट के साथ चाय पी सकता हूं, दस्तखत कर सकता हूं… तो फिर मैं बन सकता था, तो क्यों नहीं बना और खड़ा हो सकता था तो क्यों नहीं हुआ? खैर छोड़िए… राष्ट्रपति चुनाव में बड़ा खेल है, जगजीवन राम को राष्ट्रपति पद के लिए चुना गया तो वो कहने लगे कि मुझे योग्य व्यक्ति समझकर राष्ट्रपति बनाया जाए तो मैं बनने के लिए तैयार हूं, लेकिन हरिजन होने के नाते राष्ट्रपति नहीं बनूंगा और वो नाराज हो गए। वहीं जाकिर हुसैन साहब राष्ट्रपति बन गए और लोगों ने कहा कि कितने भी ऊंचे पद पर गए हों हैं तो मुसलमान ही।‘’
इस व्यंग्य रचना के परिप्रेक्ष्य में आज के हालात को लेकर शुक्रवार को घटी घटनाओं के संदर्भ में मेरे मानस पटल पर एक चित्रकथा सी उभर आई। यह चित्रकथा भारतीय राजनीति के बदलते परिदृश्य और परिवेश पर बहुत कुछ कहती है।
दरअसल शुक्रवार को एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद ने राष्ट्रपति पद के लिए अपना नामांकन भरने के दौरान एक ऐसा ‘अपराध’ किया जो वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में दुर्लभ होने के साथ साथ अक्षम्य भी है। हुआ यूं कि नामांकन भरने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, मार्गदर्शक मंडल के वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरलीमनोहर जोशी सहित एनडीए के घटक दलों के तमाम वरिष्ठ नेताओं ने, मीडिया के सामने एक दूसरे का हाथ पकड़कर उसे हवा में उठाते हुए, अपनी ‘एकजुटता का शक्ति प्रदर्शन’ किया। लेकिन इससे पहले जो घटा और जिसे तमाम चैनलों पर पूरी दुनिया ने देखा वो इस एकजुटता के पीछे की कहानी बयां करने वाला था।
हुआ यूं कि नामांकन भरने के पूर्व जब ये तमाम नेता संसद भवन आए तो नरेंद्र मोदी के ठीक दाहिनी ओर लालकृष्ण आडवाणी चल रहे थे। उनके बाद रामनाथ कोविंद और उनके बगल में मुरली मनोहर जोशी थे। जबकि मोदी के बाईं ओर अमित शाह और उनके बगल में आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू थे। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और शिरोमणि अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल उनके पीछे चल रहे थे।
मीडिया को पोज देने के लिए मोदी ने चलते चलते, एक तरह से अपने ठीक बगल में आ रहे आडवाणी को पीछे रखते हुए, आगे बढ़कर कोविंद का बायां हाथ थाम लिया। कोविंद ने अपने दायें हाथ से मुरली मनोहर जोशी का हाथ थामा। इस नए ‘संयोजन’ से आडवाणी पूरे परिदृश्य में नेपथ्य में चले गए। इसी दौरान मोदी ने अपना बायां हाथ थामे हुए अमित शाह से प्रकाशसिंह बादल को बुलाने को कहा और अमित शाह ने पीछे खड़े बादल को आगे बुलाते हुए उनका हाथ मोदी के हाथ में दिया और खुद तीसरे नंबर पर जा खड़े हुए।
इसी दौरान वह घटना हुई जिसकी आज के राजनीतिक परिदृश्य में कल्पना भी नहीं की जा सकती। अपना हाथ थामे मोदी से कोविंद ने हाथ छुड़ाया और दूसरी तरफ देख रहे मोदी का हाथ, सिर झुकाकर नेपथ्य में खड़े आडवाणी को आगे लाते हुए, उनके हाथ में थमा दिया। मोदी ने लगभग अनमने भाव से आडवाणी का हाथ थामा और उसे ऊपर उठा दिया। इस प्रक्रिया में कोविंद, आडवाणी को मोदी के बगल में खड़ा कर खुद तीसरे नंबर पर चले गए।
इस घटना ने मोदी और आडवाणी के रिश्तों के बारे में जो कुछ कहा वो अपनी जगह है, लेकिन कोविंद के इस रुख ने न सिर्फ चौंकाया है बल्कि भविष्य के प्रति एक उम्मीद भी जगाए रखी है कि वे अपनी नई भूमिका में भी ‘समन्वयवादी’ दृष्टिकोण ही अपनाएंगे। और यदि कोविंद ऐसा सचमुच कर पाए तो संभवत: वे राष्ट्रपति भवन को एक नई गरिमा प्रदान करेंगे। क्योंकि देश को इस समय सबसे अधिक जरूरत समन्वय और सामंजस्य की ही है। फिर चाहे वह राजनीतिक हो या समाजिक। कोविंद ने शुक्रवार को वो कर दिखाया जिसकी भाजपा में आज कोई हिम्मत भी नहीं कर सकता। मोदी से अपना हाथ छुड़ाने का ‘अपराध’ करते हुए कोविंद ने अपने उस वक्तव्य को ही सार्थक किया है जो उन्होंने नामांकन के बाद मीडिया को दिया।
उन्होंने कहा- ‘’राष्ट्रपति पद इस लोकतंत्र का सबसे गरिमामय पद होता है।…हमारे देश में संविधान सर्वोपरि है और इसकी सर्वोपरिता बनाए रखना हमारी जिम्मेदारी है।… मैं जब से गर्वनर बना तब से मेरा कोई राजनीतिक दल नहीं है। मेरा हमेशा प्रयास होगा और मेरी मान्यता भी है कि राष्ट्रपति का पद दलगत राजनीति से ऊपर होना चाहिए।… मैं इस सर्वोच्च पद की गरिमा को बनाए रखने के लिए हरसंभव प्रयास करूंगा…।’’
भारतीय राजनीति की इस ऐतिहासिक घटना को आप भी यूट्यूब पर इस लिंक के जरिए जरूर देखिएगा। साउंड को म्यूट (मौन) रखकर देखें और भावों को पढ़ने की कोशिश करें… कमाल का सिनेमाई दृश्य है…