धर्म को समाज से जोड़ने की यह कोशिश स्‍वागतयोग्‍य है

देश में धर्म इस समय चर्चा के केंद्र में है। खासतौर से राजनीति की सीढि़या चढ़ने-चढ़ाने के मामले में इसका काफी इस्‍तेमाल हो रहा है। धर्म की सियासत कई लोगों को फल रही है तो धर्म को गाली देने वाले कई लोग हाशिए से भी बाहर होने की कगार पर हैं। ऐसे में धर्म को यदि समाज के वास्‍तविक सरोकारों से जोड़ने का कोई उपक्रम हो तो काफी सुकून मिलता है।

मंगलवार को मैं सांची में एक कार्यक्रम में था। यूनीसेफ और मध्‍यप्रदेश सरकार के स्‍वास्‍थ्‍य विभाग के सहयोग से ‘स्‍पंदन’ नामक संस्‍था ने विभिन्‍न धर्मगुरुओं व धर्माचार्यों को वहां इकट्ठा किया था। मकसद था इन लोगों को ‘नवजात शिशु देखभाल और बच्‍चों के टीकाकरण कार्यक्रम से जोड़ना। कार्यक्रम में मौजूद स्‍वास्‍थ्‍य विभाग की प्रमुख सचिव गौरीसिंह ने कहा कि कमियां अपनी जगह हैं लेकिन जो सुविधाएं उपलब्‍ध हैं उनका सदुपयोग करने की मानसिकता भी विकसित करनी होगी। सरकार तो अपने स्‍तर पर यह काम करती ही है लेकिन धर्माचार्य यदि इस संदेश को आगे बढ़ाएंगे तो उसका अलग प्रभाव होगा।

निश्चित तौर पर यह बात सच है कि आधुनिकता के तमाम तर्कों और स्‍वांगों के बावजूद धर्म आज भी समाज में अपना असर रखता है। उसकी ताकत को खुरचने की लाख कोशिशें हुई हों लेकिन धार्मिक मंच से की गई अपील का अपना अलग ही प्रभाव होता है। यदि धर्माचार्य ठान लें कि वे अपने सरोकारों में बच्‍चों की देखभाल और बच्‍चों के टीकाकरण जैसे विषय भी उतनी ही ताकत से आगे रखेंगे, जितने धार्मिक मुद्दे रखते हैं तो आज की राजनीतिक व्‍यवस्‍था में उपेक्षित बच्‍चों का काफी भला हो सकता है।

बच्‍चों और माताओं की सेहत के मामले में मध्‍यप्रदेश की हालत बहुत बुरी है। शिशु मृत्‍यु दर के मामले में तो ऐसा लगता है कि हम अव्‍वल पायदान से नीचे उतरना ही नहीं चाहते। यूनीसेफ के मनीष माथुर का कहना है कि मध्‍यप्रदेश में हर साल एक लाख से ज्‍यादा बच्‍चों की मौत पांच साल की उम्र पूरी होने से पहले ही हो जाती है। और इनमें से 64 हजार बच्‍चे ऐसे होते हैं जो नवजात यानी एक माह से कम आयु के होते हैं।

यह कोई छिपा हुआ तथ्‍य नहीं है कि बच्‍चों को जन्‍म के साथ ही लगाए जाने वाले टीके, कई जानलेवा बीमारियों से उनकी रक्षा करते हैं। बाजार में हजारों रुपये की कीमत वाले ये टीके तमाम सरकारी अस्‍पतालों में मुफ्त लगाए जाते हैं। लेकिन इसके बावजूद प्रदेश में 35 से 40 फीसदी बच्‍चों को ये पूरे टीके नहीं लग पाते।

बच्‍चों के स्‍वास्‍थ्‍य को लेकर राजनीतिक क्षेत्र के लोगों की उदासीनता के बारे में मैं इसी कॉलम में कई बार लिख चुका हूं। शिशु मृत्‍यु दर का मामला हो या बच्‍चों को पूरे टीके न लगने का मामला। कई हाईप्रोफाइल जिले इस मामले में नितांत पिछड़े हुए हैं। यहां तक कि वह विदिशा जिला भी जिसके साथ विदेश मंत्री सुषमा स्‍वराज,मुख्‍यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और नोबल पुरस्‍कार विजेता कैलाश सत्‍यार्थी जैसे दिग्‍गजों का नाम जुड़ा है।

ऐसे में यदि सभी धर्मों के लोग आगे आकर समाज में बच्‍चों की सेहत के प्रति जनजाग्रति लाने का बीड़ा उठाते हैं तो इसका स्‍वागत किया जाना चाहिए। सरकार तथा यूनीसेफ जैसे संगठन यदि अपने अभियानों में धर्म क्षेत्र के लोगों की मदद लेने का विचार बनाते हैं तो यह भी सराहनीय पहल है। यह संयोग ही है कि इन्‍हीं दिनों एक तरफ जहां मध्‍यप्रदेश में मुख्‍यमंत्री शिवराजसिंह की पहल पर नर्मदा नदी को बचाने के लिए नर्मदा सेवा यात्रा अभियान में सभी धर्मों और सभी वर्गों के लोगों को भागीदार बनाया जा रहा है, वहीं बच्‍चों और माताओं की सेहत के मामले में भी ऐसी ही पहल हुई है।

हालांकि सांची में विचार प्रकट करते समय जब ज्‍यादातर धर्माचार्यों ने अपने अपने धर्म से जुड़ी पुरानी बातों को ही दोहराया तो मुझे यह भी लगा कि शिशु देखभाल और टीकाकरण जैसे अभियान में इन लोगों की मदद लेने से पहले उन्‍हें खुद इस विषय की विस्‍तार से जानकारी देना आवश्‍यक है। उन्‍हें यह भी समझाना जरूरी है कि कई पुरानी बातें वैज्ञानिक आधार पर अब तर्कसम्‍मत नहीं रही हैं। यदि उन बातों को जारी रखा गया तो बच्‍चों की असमय होने वाली मौतों को रोकने के तमाम उपायों को भारी धक्‍का लगेगा।

हां, कुछ लोगों ने जरूर अच्‍छे सुझाव दिए। उनका कहना था कि धर्मस्‍थलों व धार्मिक आयोजनों में अन्‍य जानकारियों के साथ साथ मातृ एवं शिशु सुरक्षा की जानकारियों वाले स्‍टॉल, पोस्‍टर आदि भी लगाए जाएं। धर्म स्‍थलों पर विशेष टीकाकरण के कार्यक्रम आयोजित हों। पूरे टीके लगवाने वाले ग्रामीण क्षेत्र के माता पिता को प्रतीकात्‍मक ही सही, विशेष इंसेटिव दिया जाए। विवाह समारोहों में ऐसी जानकारियों के पेम्‍प्‍लेट बांटे जाएं। शादी करने वाले नए जोड़ों को उपहार के रूप में बच्‍चों व गर्भवती माता की देखभाल संबंधी किट भेंट की जाए आदि…

दरअसल हमारे यहां धर्म के सदुपयोग के बजाय उसका अन्‍यान्‍य कारणों से दुरुपयोग ज्‍यादा होता आया है। ऐसे में सांची जैसे आयोजन एक सकारात्‍मक दिशा तो देते ही हैं। हर धर्म अथवा पंथ में बच्‍चों को लेकर कई संस्‍कार किए जाने की प्रथा है। ऐसे में यदि टीकाकरण संस्‍कार, पौध रोपण संस्‍कार, जल संरक्षण या शुद्धिकरण संस्‍कार जैसे कुछ नए संस्‍कार भी प्रचलित संस्‍कारों की सूची में जोड़ने पर विचार हो तो इससे समाज का भला ही होगा।

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