भाजपा नेताओं के लिए खतरे की घंटी हैं दिल्‍ली के नतीजे

आपको लग रहा होगा कि जब सारी दुनिया दिल्‍ली महानगरपालिका में भारतीय जनता पार्टी की प्रचंड जीत के बाद उसकी जयजयकार कर रही है, उस समय मैं यह बात क्‍यों और कैसे कर रहा हूं? यह समय तो भाजपा नेताओं के लिए खुशी से फूल जाने का है। न सिर्फ दिल्‍ली बल्कि देश में जहां जहां भी भाजपा की सरकारें हैं और जहां नहीं भी हैं, वहां के नेता दिल्‍ली की शानदार जीत पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्‍यक्ष अमित शाह को बधाई देते नहीं थक रहे।

बात सही भी है। सिर्फ दो साल पहले जिस दिल्‍ली विधानसभा में भाजपा को नाममात्र की तीन सीटें मिली थीं और कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था। वहां 70 में से 67 सीटों के प्रचंड बहुमत के साथ सत्‍ता में आई आम आदमी पार्टी ने नरेंद्र मोदी सरकार को साल भर के भीतर ही बड़ी राजनीतिक चुनौती दे डाली थी। आज उसी दिल्‍ली के नगरीय चुनावों में भाजपा ने ‘धमाकेदार वापसी’ करते हुए अपनी धाक जमा दी है।

दिल्‍ली की जीत ने उन सारे लोगों के मुंह बंद कर दिए हैं जो 2015 के विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद भाजपा के मजे ले रहे थे। 26 अप्रैल का दिन भाजपा नेताओं के लिए दूसरों के मजे लेने का है। तो फिर मैं क्‍यों कह रहा हूं कि दिल्‍ली के नतीजे भाजपा नेताओं के लिए खतरे की घंटी हैं?

दरअसल मेरी नजर दिल्‍ली की जीत से पैदा हुई खुशी से पार, उन भाजपा शासित राज्‍यों को देख रही है, जहां आने वाले एक दो सालों में चुनाव होने वाले हैं। मुझे खतरा इसलिए लग रहा है क्‍योंकि उत्‍तरप्रदेश में भूत ने जो घर देख लिया था, वही भूत दिल्‍ली में भी मौजूद था और आने वाले दिनों में हो सकता है वह बाकी राज्‍यों में भी अपना खेल दिखाए।

इस पहेली को यूं समझिए। मेरा मानना है कि आज के भारत की राजनीति के चाणक्‍य रणनीतिकार अमित शाह ने चुनावी राजनीति की जो शैली विकसित की है, उसे मिल रही सफलताएं, भाजपा में उस शैली की सार्थकता, सफलता पर मुहर लगाती जा रही हैं। उदाहरण के लिए पिछले दिनों हुए उत्‍तरप्रदेश के चुनाव में भाजपा ने भारतीय राजनीति में मुस्लिम वोट बैंक का मिथक तोड़ते हुए एक भी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया। और टिकट न दिया तो न दिया, पार्टी ने छाती ठोककर कहा भी कि जो जीत सकते हैं, हमने उन्‍हीं को मैदान में उतारा है।

अमित शाह ने उसी प्रयोग का विस्‍तार दिल्‍ली में किया। उन्‍होंने चुनाव से पहले ही ऐलान करवा दिया कि दिल्‍ली महानगर पालिका में पार्टी मौजूदा पार्षदों में से किसी को भी टिकट नहीं देगी। यह ऐसा फैसला था जिस पर पार्टी के भीतर बवाल होने के पूरे पूरे आसार थे। क्‍योंकि दिल्‍ली का पार्षद भी अपने आप में बड़ी हैसियत रखता है और कई बार तो ‘वार्ड के ये शूरवीर बड़े बड़े नेताओं को अपनी उंगलियों पर नचाते आए हैं।

लेकिन अमित शाह ने फैसला किया कि एंटी इन्‍कंबेंसी से निपटने के लिए किसी भी मौजूदा पार्षद को टिकट न दिया जाए। और नेतृत्‍व की ताकत देखिए कि थोड़ी बहुत आं… ऊं… के बाद, सारे लोगों को यह फैसला मंजूर करना पड़ा। इस कठोर फैसले का नतीजा आज दुनिया के सामने है। भाजपा ने छोटे स्‍तर पर ही सही लेकिन उस आम आदमी पार्टी से भरपूर बदला ले लिया है जिसके नेता अरविंद केजरीवाल खुद को प्रधानमंत्री के समकक्ष या उनके स्‍तर का नेता मानते हुए उन्‍हें आंखें दिखाते रहे हैं। दिल्‍ली की सफलता ने न सिर्फ इस ‘पॉलिटिकल सर्जरी’ की सार्थकता साबित कर दी है, बल्कि पार्टी को इस दिशा में और मजबूती से आगे बढ़ने की ताकत भी दे दी है।

यानी अब टिकट की नई कसौटियां तय होंगी। परफार्मेंस का पैमाना ही तय करेगा कि आपको टिकट मिलेगा या नहीं। आप परंपरागत रूप से किसी सीट से जीत भी रहे हों तो भी कोई जरूरी नहीं कि पार्टी आपको टिकट दे ही दे। टिकट देने के आधार अब अलग ही होंगे।

इसलिए मैं कह रहा हूं कि दिल्‍ली के नतीजों के बाद उन सभी राज्‍यों में, जहां आने वाले एक दो साल में चुनाव होने जा रहे हैं, स्‍थानीय नेताओं, विधायकों और सांसदों को सावधान हो जाना चाहिए। पार्टी आलाकमान अब सीना ठोक कर कह सकता है कि जो लोग अपने दम पर चुनाव जीतने का दावा या दबाव बनाते हुए पार्टी को ब्‍लैकमेल करने की कोशिश करते हैं उनके लिए बाहर जाने के दरवाजे खुले हुए हैं।

 

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