रमेश सर्राफ धमोरा
राजस्थान पक्षियों के प्रति अपने बेमिसाल प्रेम के लिये जाना जाता है। यहां सैकड़ों साल पहले खेती करने वाले किसानों से कबूतरों के लिए लगान लिया जाता था। जिससे एकत्रित राशि से कबूतरों को साल भर दाने डाले जाते थे। समय बदलने के साथ इसका स्वरूप भले बदला हो लेकिन परंपरा नहीं बदली। आज कबूतरों सहित अन्य पक्षियों के चुग्गे-पानी और तीमारदारी के लिए लोग पैसे एकत्रित कर उनकी बैंको में फिक्स डिपोजिट करवा रहे हैं ताकि जरूरत पर धन की कमी नहीं हो। इसके लिए क्षेत्र के कस्बों में बाकायदा कबूतर फण्ड बनाए गए हैं। इन फण्ड में लोग फिक्स डिपोजिट पर मिलने वाला ब्याज जमा करवाते हैं। कइयों ने तो कबूतरों को दुकानों के किराए में भी हिस्सेदारी दे रखी है।
इतना ही नहीं यहां एक परम्परा यह भी है कि किसी भी जाति धर्म में शादी, पुत्र जन्म, धार्मिक अनुष्ठान या वृद्धजनों की मृत्यु होने पर लोग स्वयं आकर इस फंड में दान करते हैं। प्रवासी भी इसमें पूरा सहयोग कर रहे हैं। ऐसे कबूतरखाने यहां के अनेक गांव-कस्बो में मिल जाएंगे। इनमें भी शेखावाटी क्षेत्र के तारानगर, सीकर,बड़ागांव और फतेहपुर के कबूतरखाने तो अनोखे ही हैं। तारानगर के कबूतर फंड में 15 लाख रुपए डिपोजिट हैं तो सीकर में छह लाख और फतेहपुर में पांच लाख रुपए की फिक्स डिपोजिट है।
सीकर में लोगों ने परिंदों के लिए कबूतर पशु पक्षी हितकारी संस्थान बना रखा है। यहां परिंदों के लिए एक ट्रक अनाज हर वक्त स्टॉक में रहता है। हर रोज पांच-छह बोरी अनाज कबूतरों के लिए डाला जाता है। बीमार पक्षियों की तीमारदारी के लिए अलग से व्यवस्था है। फतेहपुर के रामस्वरूप देवड़ा बताते हैं कि परिंदों के लिए 150 साल पुरानी संस्था है, जो दो जगह कबूतरखाने संचालित करती हैं।
तारानगर तहसील के लूणास, श्यामपांडिया धाम, चंगोई, कैलाश, सात्यूं, बुचावास, गाजुवास, कोहिणा, बांय, भनीण, राजपुरा सहित अधिकांश गांवों में लोगों का नित्य कर्म सुबह कबूतरों को दाना डालने से होता है। लुणास के अमरसिंह चारण ने तो अपने खेत के करीब आधा बीघा में कबूतर खाना बना रखा है। तारानगर के बगीची वाले मंदिर के कबूतरखाने का जिम्मा पिछले 58 वर्षों से प्रयागचंद सरावगी उठा रहे हैं। यहां भानीराम सरावगी जैसे पक्षी प्रेमी पिछले चालीस वर्षों से सुबह चार बजे आकर पक्षियों के लिए बने जलाशय की साफ सफाई कर पानी की व्यवस्था करते हैं।
झुंझुनू शहर की श्री गोपाल गोशाला में ताराचन्द भोडक़ीवाला परिवार की और से कबूतरों के लिए 1100 ऐसे घरौंदे का निर्माण करवाया गया है, जो किसी फ्लैट से कम नहीं। इनमें कबूतरों के 550 जोड़े एक साथ रह सकेंगे। गोशाला प्रबंधन की ओर से फ्लैट्स के पास खाली जगह में कबूतरों व अन्य पक्षियों के लिए दाना-पानी की भी व्यवस्था की गयी है। यूं तो इन घरौंदों में कोई भी पक्षी रह सकता है, मगर इनका निर्माण मुख्य रूप से कबूतरों को ध्यान में रखकर करवाया गया है।
झुंझुनू जिले के बड़ागांव में भी कबूतर धर्मादा संस्थान के नाम से समिति का गठन किया गया है जिसके पास भी फंड में काफी पैसे जमा है। इसी जिले के भोडक़ी गांव स्थित जमवाय माता मन्दिर में बने कबूतर खाने में मुम्बई निवासी श्याम सुन्दर सौंथलिया की तरफ से प्रतिदिन कबूतरों को चुग्गा डाला जाता है।
बाड़मेर में भी कबूतर धर्मार्थ ट्रस्ट है। यहां के कबूतर भी करोड़पति हैं। आजाद चौक में छोटे से चबूतरे से शुरू हुई आय अब करोड़ों में पहुंच गई है। ट्रस्ट के सहयोग से 10 दुकानों के अलावा तीन मंजिला (वॉइट हाउस) इमारत भी बनाई गई। यह तमाम चल-अचल सम्पति कबूतरों के नाम है। इस चौक में 1960 के दशक में कबूतरों के लिए चबूतरा बनाया गया। उसी समय दस दुकानें भी बनीं। दुकानों के ऊपर चबूतरों पर आस-पास के लोग चुग्गा डालते है। दशकों से यह परम्परा चली आ रही है। बाद में कबूतर धर्मार्थ ट्रस्ट बनाया गया। ट्रस्ट को सालाना लाखों रुपए की आय होती है। इससे समय-समय पर विकास कार्य करवाए जाते हैं।
परिन्दो से प्यार करने वाले हाजी मुकारब करीब 16 साल से झुंझुनू शहर के कमरूद्दीनशाह दरगाह के पास बटवालान कब्रिस्तान में कबूतरों को दाना डालते आ रहे हैं। वे बताते हैं कि भूखे प्यासे कबूतरों को दाना डालने में आत्मिक सुख मिलता है। ये कबूतर ही उनकी बिरादरी हैं। जयपुर शहर में जगह-जगह सडक़ो के किनारे फुटपाथ पर लोग कबूतरों के लिये अनाज बेचते मिल जाएंगे। आते जाते लोग अनाज खरीदते हैं और पास बैठे कबूतरों को डाल देते हैं। ऐसे दृश्य अन्य कई शहरों में भी देखने को मिलते हैं।