पेशाब पीते किसानों पर दिल क्यों नहीं पसीजता?

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राव श्रीधर

जब एक तरफ प्रधानमंत्री नीति आयोग की बैठक कर नये भारत की तस्वीर पेश करने की तैयारी कर रहे थे वहीं दूसरी तरफ पूरी दिल्ली में एमसीडी के चुनाव को लेकर माहौल गर्म था। क्या मीडिया, क्या नेता, क्या पुलिस और क्या प्रशासनिक अधिकारी सबके के सब दिल्ली चुनावों में लगे थे। वोट और सियासत के इस पागलपन में इंसानियत किस कदर गुम हो गई है इसका ताजा नमूना है जंतर-मंतर, जहां 40 दिन से ज्यादा हो गये 40 डिग्री से ज्यादा के तापमान में आधे-अधूरों कपड़ों में तमिलनाडु के किसान अपनी पीड़ा लेकर बैठे हैं।

समस्या से तड़पते किसान विरोध स्‍वरूप अपना पेशाब पी गये। सुनकर ही कैसा लगता है, लेकिन ये सच है, देश में राजधानी में अनाज उगाने वाला किसान, अपनी बात सुनाने के लिए, अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिए, मीडिया का ध्यान खींचने के लिए क्‍या क्‍या कर रहा है। लेकिन मीडिया को चिंता इस बात कि है अजान की आवाज के चलते एक फिल्मी सितारा अपनी नींद क्यों पूरी नहीं कर पा रहा है? कॉमेडियन गुत्‍थी और कपिल शर्मा का झगड़ा क्यों नहीं सुलग रहा? मीडिया को आडवाणी और जोशी के राजनीतिक कॅरियर की भी चिंता दिन-रात खाये जा रही है।

और उधर तमिलनाडु के किसान अपनी तकलीफों को जताने के लिए सिर पीट रहे हैं,  कभी ये चूहे मार कर खा रहे हैं, तो कभी सांप। कभी पेड़ पर चढ़ जाते है तो कभी पत्ते लपेट कर रहते हैं।  जिस सड़क पर सोते हैं वहीं पर खा रहे हैं, सुबह सरकारी टॉयलेट बंद रहते हैं इसलिए सड़क पर ही शौच के लिए जा रहे हैं। देश की राजधानी में इंसानियत हर दिन, हर पल शर्मसार हो रही है।

चुनावों के दौरान किसानों की आत्महत्या के नाम पर गला फाडने वाला विपक्ष कहां है?  चुनाव से पहले दादरी से लेकर रोहित वुमेला को लेकर इंसानियत की लड़ाई के नाम पर देश के सद्भाव को खतरे में डालने वाले वो लोग कहां है?  वो लोग कहां हैं जो जेएनयू में देशद्रोही नारे लगाने वालों के साथ सिर्फ इसलिए खड़े हो जाते हैं, क्योंकि उनको इसमें अन्याय नजर आता है?  कहां पर हैं वो संगठन जो आतंकवादियों की मौत पर मानवधिकार की बात करते हैं?  दिल्ली की सड़कों पर किसानों के साथ जो हो रहा है क्या उसमें कहीं मानवाधिकारों का उल्लघंन नहीं हैं?

कहां है दिल्ली के वो वकील जो आतंकवादी की फांसी रुकवाने के लिए आधी रात को सुप्रीम कोर्ट खुलवा लेते हैं?असहिष्णुता के मुद्दे पर पुरस्कार लौटने वाले वो विद्वान कहां हैं?  क्या वो इस कदर सहिष्णु हो गये हैं कि पेशाब पीते किसानों के दर्द को ही उन्होंने नियति मान लिया है!

दिल्ली के मुख्यमंत्री तो आम आदमी की राजनीति करते हैं। आम आदमी के लिए दिल्ली से लेकर पंजाब और गोवा से लेकर गुजरात तक सब एक कर दिया। लेकिन उनके इलाके में क्या इस तरह खुद का पेशाब पीते ये किसान उन्हें आम आदमी नहीं लगते। उन्हें कहीं ये तो नहीं लगता कि ये सब के सब विरोधियों से मिले हुए है जो उनका पसंदीदा डायलॉग हैं। या फिर तमिलनाडु में अभी उनकी पार्टी की नींव नहीं पड़ी है?

राहुल गांधी तो एक दिन गये थे किसानों से मिलने, लेकिन बताया नहीं कि उनके दर्द को क्या समझा? क्या उनकी तकलीफों को सुनकर उनकी सवेंदनाएं नहीं उमड़ी। अगर राहुल गांधी को किसान का पेशाब पीना बेचैन नहीं करता है तो इसका मतलब है किसान 40 दिन से दिल्ली में ड्रामा कर रहे हैं! वरना तो ऐसा आंदोलन खड़ा कर देते की सरकार हिल जाती। क्यों सही है ना राहुल जी!

हमारे प्रधानमंत्री जी मन की बात करते हैं, लेकिन क्या तमिलनाडु के किसानों के पास कोई मन ही नहीं। पीएम ने  सिविल सर्विस डे पर प्रशासनिक अधिकारियों को इंसान बनने की सलाह दी है। लाल बत्ती उतरवाकर उन्होंने आम और खास के फर्क को खत्म करने का संदेश दिया तो फिर इन दीन-हीन किसानों पर उनका दिल क्यों नहीं पसीजा? सूखा झेलते किसान क्या आम लोगों में नहीं आते?

बीजेपी कहती है कि मुसलमान बीजेपी को वोट नहीं देते, लेकिन बीजेपी उनके साथ भी अन्याय नहीं होने देगी। तो फिर ये किसान किस श्रेणी में शामिल हों ताकि इनको भी न्याय मिल सके?  मगर ये किसान तो तमिलनाड़ु के हैं और वहां उनके विधाता पनीरसेल्वम और पलानीस्वामी इस बात में डूबे हैं कि शशिकला से कैसे निपटे? करुणानिधि इन दोनों पर घात लगाये बैठे हैं कि ये दोनों गलती करें और वो मौका हासिल करें। ऐसे में पिछले 140 सालों में अब तक का सबसे बड़ा सूखा झेल रहे है तमिलनाडु के किसान कहां जाएं?

इन अनपढ़ किसानों ने किस्सों में सुना था कि जब कहीं इंसाफ नहीं होता तो दिल्ली इंसाफ करती है। भूख और सूखे का दर्द झेलते ये किसान दिल्ली तो पहुंच गये लेकिन दिल्ली इतनी बेरहम निकली कि बेचारे अपना पेशाब पीने को मजबूर हो गये।  अब ये अच्छी तरह समझ गये होंगे कि तमिलनाडु से लेकर दिल्ली तक सियासत एक ही भाषा समझती है और वो है वोट की भाषा।

अगर प्रदर्शन कर रहे इन किसानों के पास वोट होता, इनकी कोई जाति होती, संख्या बल का कोई संप्रदाय होता तो शायद सियासत इनके कदमों में लोटती। मीडिया को इनमें मार्केट नज़र आता और तब इनके हक की लड़ाई के लिए नेता अपना पेशाब पीने को तैयार हो जाते!

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