जब भी बाबासाहब भीमराव आंबेडकर की बात होती है तो अक्सर यह स्थापित करने का प्रयास किया जाता है कि उन्हें सारे सवर्णों ने ही प्रताड़ित किया या उन्हें सवर्णों से सदैव प्रताड़ना ही मिली। जबकि तथ्य यह है कि डॉ. आंबेडकर को उनकी महाविद्यालयीन शिक्षा के समय से ही सयाजीराव गायकवाड़ की ओर से आर्थिक सहायता मिलने लगी थी। डॉ. आंबेडकर ने भी अपना शोधप्रबंध ‘The Evaluation of Provincial Finance in British India’ सयाजीराव गायकवाड़ को अर्पित किया था।
गांधी-आंबेडकर संबंधों में बिगाड़ ज़रूर हुआ था लेकिन दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति पूर्ण सम्मान था। गांधी जी ने दलित वर्ग की एक कन्या का पालन-पोषण किया था, जिसका उल्लेख आंबेडकर ने किया है। पुणे समझौते के समय भूमिकाओं की भिन्नता के कारण दोनों में विवाद बढ़ा था। बाबासाहब गांधी जी द्वारा दिए गए ‘हरिजन’ विशेषण व उनके द्वारा स्थापित ‘हरिजन सेवक संघ’ के विरोधी थे। उनका मत था कि उन्हें ‘प्रोटेस्टेंट हिंदू’ कहा जाए। उन्हें ‘हरिजन’ शब्द में राजनीति नज़र आती थी। उनके अनुसार ‘हरिजन सेवक संघ’ की स्थापना का उद्देश्य ‘to kill the untouchables with kindness’ का था।
गांधी-आंबेडकर विवाद पर बोलते समय कई वक्ता निष्पक्ष नहीं रह पाते और गांधी जी को किसी खलनायक की तरह प्रस्तुत करने लग जाते हैं। मुझे याद है कि कुछ वर्ष पूर्व बैंकनोट प्रेस देवास में आयोजित आंबेडकर जयंती कार्यक्रम में जबलपुर से आए एक वक्ता ने गांधी जी को ‘बुड्ढा’ व दलित विरोधी करार दे दिया था। मराठी लेखक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने अपनी पुस्तक डॉ. आंबेडकर और सामाजिक क्रान्ति की यात्रा में लिखा है कि “गांधी जी, कांग्रेस व डॉ. आंबेडकर के परस्पर संबंधों के बारे में श्रीपाल सबनीस द्वारा निकाले गए निष्कर्ष लक्षणीय हैं। सबनीस के अनुसार “महात्मा गांधी व डॉ. आंबेडकर जो एक दूसरे के प्रतिस्पर्द्धी थे, परस्पर पूरक रहे। संपूर्ण समता प्राप्त करने के दोनों महापुरुषों के प्रयास परस्पर पूरक रहे।“
ठेंगड़ी डॉ. य. दि. फड़के के कथन का उद्धरण देते हुए कहते हैं कि “आंबेडकर के विभिन्न ग्रन्थों का जो विश्लेषण हुआ है वह मुख्यतः सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक विषयों के उनके चिंतन का हुआ है। एम.ए., पीएच.डी. व डी.एससी. उपाधि प्राप्त करने के लिए कोलंबिया वि.वि., लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में प्रस्तुत अर्थशास्त्र के उनके प्रबंध की चर्चा किसी ने नहीं की।“ ठेंगड़ी ने अपने अध्ययन में डॉ. आंबेडकर के इस निष्कर्ष को सही सिद्ध करने का प्रयास किया है कि “ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले अस्पृश्य आर्थिक दृष्टि से असमान होने के कारण आर्थिक शोषण सहन करते हैं। फिर भी उन्हें सामाजिक बहिष्कार जैसी कुरीतियों का सामना करना पड़ता है। इसलिए उनकी मुक्ति आर्थिक स्वावलंबन में है।“
डॉ. आंबेडकर के जिस कार्य से उनका अखिल भारतीय नेतृत्व निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है वह है संविधान निर्माण का महत् कार्य। मगर यहाँ भी इस तथ्य को भुला दिया जाता है कि वे संविधान के प्रारूप का विश्लेषण करने वाली समिति के अध्यक्ष मात्र थे। संविधान का मूल प्रारूप तो श्री बेनेगल नरसिंहाराव ने तैयार किया था। इतना ही नहीं, संविधान समिति की गठन संबंधी टिप्पणी भी राव ने ही प्रस्तुत की थी। और तो और 1935 के जिस क़ानून के आधार पर स्वतंत्र भारत के संविधान का विचार करना था, उस अधिनियम में प्रस्तावित संघराज्य की कल्पना के बारे में डॉ. आंबेडकर के विचार अत्यंत प्रतिकूल थे।
दत्तोपंत ठेंगड़ी की पुस्तक में एक और नई जानकारी सामने आती है कि आंध्रप्रदेश सरकार की सेवा में रत पिछड़े, अजा/ अजजा के नौकरीपेशा वर्ग द्वारा ‘डॉ. बी.आर. आंबेडकर : उनके विचारों की प्रासंगिकता’ विषय पर आयोजित चर्चा सत्र के उद्घाटन भाषण में श्री रंगराजन ने कहा– “…बाबासाहब को आशंका थी कि यदि जनतंत्र में भी आर्थिक व सामाजिक विषय बहुसंख्यकों के हाथों में सौंपे गए तो संपन्न लोगों की तानाशाही व युगों –युगों के सामाजिक अत्याचार का चिरस्थाईकरण होगा।“ ठेंगड़ी के अनुसार इस संभाव्यता के विरुद्ध कुछ व्यवस्था की जा सकती थी किंतु संविधान समिति में ‘लिबरल डेमोक्रेट्स’ की संख्या अधिक होने के कारण बाबा साहेब कुछ कर नहीं पाए। सबको साथ लेकर चलने की अनिवार्यता के कारण कई बार बाबासाहब को अपने मुद्दे छोड़ने पड़े थे।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि ‘महानगर’ के ‘आंबेडकर विशेषांक’में 13 अप्रैल 1993 को डॉ. य.दि. फड़के ने स्पष्ट रूप से कहा कि बाबासाहब को एक अलग प्रकार का संविधान अभिप्रेत था। यही नहीं संविधान अमल में लाने के तीन वर्ष पश्चात 2 सितंबर 1953 को ही बाबासाहब ने संविधान के बारे में तीव्र असंतोष व्यक्त करते हुए उसे जलाने की अपनी इच्छा भरी सभा में प्रकट की थी। जब भी संविधान पर विवाद या असहमति की कोई बात चलती तो विरोधी कहा करते थे कि संविधान के निर्माता तो आप ही थे। इस पर बाबासाहब का उत्तर होता-
“No, Sir, We have inherited a tradition. People always keep saying to me. ‘Oh! You are the maker of the Constitution.’ My answer, I was a hack, what I was asked to do; I did much against my will.’ …So, my friends tell me that I have made the constitution. But I am quite prepared to say that I shall be the first person to burn it out. I do not want it. It does not suit my body.’
ठेंगड़ी ने संविधान के प्रति बाबासाहब की असहमति के कई बिंदुओं का जिक्र किया है। धारा 370, जिस पर आज भी एक ज्वलंत मुद्दा बन जाता है, उस पर भी बाबासाहब की असहमति का प्रसंग सामने आता है। उनके अनुसार संघ के स्वयंसेवकों से उनका नित्य संपर्क रहा है। डॉ. आंबेडकर व डॉ. हेडगेवार की पद्धति अलग-अलग दिखती है, पर दोनों की दिशा एक ही है। दोनों ही समता व समरसता के समर्थक हैं। आरएसएस व डॉ. आंबेडकर के बीच खाई निर्माण करने का प्रयत्न कुछ प्रगतिशील माने जाने वाले लोगों ने किया।
यह गलतफहमी उस समय पैदा की गई जब बाबासाहब ने धर्मांतरण की दीक्षा-विधि के लिए नागपुर चुना। इसके लिए धर्मांतरण के समय प्रमुख भाषण का प्रारंभ ही उन्होंने इसके खंडन के साथ किया। नागपुर को चुनने का कारण स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि बौद्धधर्म के प्रसार का संबंध ‘नाग’ लोगों से रहा है, केवल इसी कारण दीक्षा के लिए नागपुर को चुना है।
सच देखा जाए तो बाबासाहब के सारे विचारों को जानना किसी भी सामान्य व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। उनका व्यक्तित्व समुद्र सतह पर तैर रहे उस हिमपिंड की तरह हैं जिसका सतह पर सिर्फ अष्टमांश ही दिखाई देता है और शेष सात अष्टमांश सतह से नीचे हैं। उनकी भूमिका को सिर्फ दलितों के मसीहा व संविधान निर्माता तक सीमित कर नहीं परखा जा सकता।