नदी को नदी ही रहने दो, इंसान न बनाओ…

मध्‍यप्रदेश में इन दिनों नर्मदा नदी सबसे अधिक चर्चा का विषय है। इसका एक प्रमुख कारण मुख्‍यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की पहल पर चलाई जा रही नर्मदा सेवा यात्रा है। यह यात्रा नर्मदा को प्रदूषण से बचाने और उसे बारहों महीने लबालब रखने के लिए, जनजाग्रति के इरादे से चलाई जा रही है। इस यात्रा में अभी तक देश की कई नामी हस्तियां शिरकत कर चुकी हैं और सभी ने एक स्‍वर से इसकी सराहना करते हुए कहा है कि ऐसे अभियानों से दूसरों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए।

नर्मदा को बचाने के अभियानों की इसी कड़ी में मध्‍यप्रदेश हाईकोर्ट की ताजा कार्यवाही महत्‍वपूर्ण साबित हो सकती है। कोर्ट ने एक जनहित याचिका के सिलसिले में राज्‍य सरकार से पूछा है कि क्यों न नर्मदा नदी को जीवित इंसान का कानूनी दर्जा दिया जाए? सरकार को 6 हफ्ते के भीतर इसका जवाब देना है। याचिकाकर्ता मुकेश कुमार जैन ने दलील दी थी कि गंगा और यमुना को उत्तराखंड हाईकोर्ट से जीवंत-सत्ता का वैधानिक दर्जा मिल चुका है। इसी तर्ज पर नर्मदा को भी मौलिक अधिकार दिलवाया जाए।

दरअसल नैनीताल हाईकोर्ट ने 20 मार्च 2017 को अपने ऐतिहासिक फैसले में गंगा और यमुना नदी को वैधानिक व्यक्ति का दर्जा दिया था। यानी अब इन दोनों नदियों को क्षति पहुंचाना किसी इंसान को नुकसान पहुंचाने जैसा माना जाएगा। नैनीताल कोर्ट का यह फैसला न्‍यूजीलैंड में वानगानोई नदी को इंसान का दर्जा दिए जाने की पहल पर आधारित था। बाद में कोर्ट ने गंगोत्री और यमुनोत्री ग्लेशियरों के साथ ही हवा, पानी, सभी नदियों, जलस्रोतों और जंगलों को भी जीवित इंसान के बराबर दर्जा और मौलिक अधिकार देने की बात कही।

देश की नदियों की रक्षा हर कीमत पर होनी ही चाहिए। उनके साथ बर्बर व्‍यवहार करने पर कठोर सजा देने की बात से कोई असहमति नहीं हो सकती। लेकिन क्‍या इंसान का दर्जा देकर हम नदियों की रक्षा कर लेंगे? हमारे यहां तो नदियों, पहाड़ों, पेड़-पौधों, सूरज-चांद सभी को इंसान नहीं बल्कि देवता का दर्जा दिया गया है। हम इनकी पूजा करते हैं। इन्‍हें अपना आराध्‍य मानते हैं। नदियों के बारे में तो यह धारणा है कि वे पापनाशिनी और पुण्‍यदायिनी हैं। उनमें स्‍नान मात्र से हमारे समस्‍त पाप धुल जाते हैं। जिसकी ऐसी महिमा हो, उसे इंसान का दर्जा देकर हम उसका महत्‍व बढ़ाना चाह रहे हैं या घटाना?

अभी नदियां देवतुल्‍य हैं, क्‍या उन्‍हें इंसान का दर्जा देकर हम यह चाहते हैं कि वे भी इंसान की तरह छल कपट करें, मनुष्‍य मनुष्‍य में भेद करें, एक दूसरे का गला काटें… वे सारी बुराइयां प्रदर्शित करें जो एक इंसान की फितरत में होती हैं। और फिर इस बात का हमारे पास क्‍या जवाब है कि यह इंसान ही तो है जिसने नदियों की ऐसी दुर्दशा कर डाली है। अब यदि हम नदियों को भी इंसान के समकक्ष ले आएंगे तो क्‍या इंसान उनके साथ अपराध करना छोड़ देगा?

मशहूर गीतकार जावेद अख्‍तर ने ‘बार्डर’ फिल्‍म में एक बहुत खूबसूरत गीत लिखा था, जिसके बोल थे-

पंछी नदिया पवन के झोंके/कोई सरहद ना इन्हें रोके/सरहद इन्सानों के लिए है/सोचो तुमने और मैंने/क्या पाया इन्सां हो के…

नदियों की सत्‍ता तो प्रकृति की सत्‍ता है। उसे हम इंसानी सत्‍ता क्‍यों बनाना चाहते हैं? उसे परम सत्‍ता की सरहद से खींचकर अपनी काली करकट सरहद में क्‍यों लाना चाहते हैं? दरअसल जब हमसे कोई काम नहीं बन पाता तो हम उस असंभव काम की तासीर ही बदल देने के आदी रहे हैं। इस मामले में भी यही सोच दिखाई देती है।

जाने माने गीतकार गुलजार का एक मशहूर गीत है-

हमने देखी है उन आंखों की महकती खुशबू/ हाथ से छू के इन्‍हें रिश्‍तों का इल्‍जाम न दो/सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो/प्‍यार को प्‍यार ही रहने दो कोई नाम न दो…

नदियों को इंसान का दर्जा देने की पेशकश पर मैं, गुलजार साहब से माफी के साथ, उनकी इस बात को कुछ यूं कहना चाहूंगा-

हम ने देखी है नदियों की मचलती लहरें  

इंसान कहके इन्‍हें रिश्तों का इल्ज़ाम न दो

ये सभ्‍यता की गाथा हैं, इन्‍हें रूह से महसूस करो

नदी को नदी ही रहने दो कोई नाम न दो

 

नदी कोई जिस्‍म नहीं, नदी चेहरा भी नहीं

एक धारा है जो खामोश रहा करती है

ना ये थमती है ना रुकती है ना ठहरी है कहीं

कुदरत की नेमत है सदियों से बहा करती है

नदी एहसास है इसे रूह से महसूस करो

नदी को नदी ही रहने दो कोई नाम न दो

 

खिलखिलाती रहती है वादी में कहीं

कहीं मैदानों में मचलती रहती है

हमसे कुछ कहती नहीं, सूखते किनारे मगर

इसकी बरबादी के अफसाने बयां करते हैं

नदी एहसास है इसे रूह से महसूस करो

नदी को नदी ही रहने दो कोई नाम न दो

 

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