एक चिठ्ठी बापू (वो वाले नहीं) के नाम

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डॉ. प्रदीप उपाध्याय

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आदरणीय बापू

प्रणाम

वैसे तो आप अपने पुरातनपंथी और दकियानूसी स्वभाव के कारण अपना आदरभाव खो चुके हैं, लेकिन फिर भी लोकलाज और तथाकथित संस्कारवश मैं आपको आदरसूचक सम्बोधन और प्रणाम लिख रहा हूँ। मैंने आपको कितना समझाया कि आप साठ की वय पार कर चुके हो। कहते हैं कि साठ की उम्र के बाद आदमी सठिया जाता है, वानप्रस्थ आश्रम की सलाह दी जाने लगती है! हमने सभी ने आपसे अनुरोध किया था कि अब आप मार्गदर्शक की भूमिका निबाहें। उदाहरण भी सामने हैं।

दूसरे भी जब धकेले गये थे तो उन्होंने बिना ना नुकुर के मार्गदर्शक की भूमिका स्वीकार कर ली और अब जब भी जहाँ उनकी जरुरत समझी जाती है, उन्हें मुख्य स्थान दिया जाता है और वे मूर्तिवत अपनी उपस्थिति दर्ज भी करवाते हैं। सभी के सामने मुस्कराहट का प्रदर्शन भी करते हैं जिससे उनका मान बना रहता है। अब आप भी अपनी इच्छाओं, महत्वकांक्षाओं का दमन करना सीखो, स्वयं को भगवत भजन की ओर ले जाओ।

आपने भी तो कितने अनुभवी और वरिष्ठजनों का दिल दुखाया है। खैर,यह तो दुनिया का दस्तूर है, नयों को मौका दिया जाना चाहिए। कब तक मुखिया का पद पकड़ कर रखेंगे। अब आपकी ऐसी उम्र नहीं रही। अनुभव भले ही हो, उम्र कड़े फैसले लेने नहीं देती। कई मामले ऐसे होते हैं कि त्वरित और कठोर निर्णय लेना पड़ते हैं। अब आपमें वह कुव्वत बची नहीं और आप दूसरे लोगों के बहकावे में आकर गलत सलत फैसले ले रहे थे।

आपने तो लुटिया डुबोने की पूरी ही तैयारी कर ली थी। आपको तो मुझपर विश्वास करना था! मार्गदर्शक की ही भूमिका आपके लिए उपयुक्त थी और है। मार्गदर्शक का कार्य सही दिशा दिखाना है। इसका कदापि यह अर्थ नहीं है कि आप सदैव मेरा हाथ पकड़ कर चलाते रहें। अब मैं बच्चा तो रहा नहीं, मैं अपना अच्छा बुरा सब समझता हूँ। मैंने भी दुनिया देखी है। कभी आपने सपूत मानकर जिम्मेदारियाँ सौंपी थी। अब क्या हो गया है कि मैं आपकी नजरों में कपूत साबित हो रहा हूँ।

आपको यह भी समझना चाहिए कि जीवन में जितने भी फैसले आपने लिये, जरूरी नहीं कि वे सभी सही थे। कई फैसले गलत भी रहे होंगे। यह हो सकता है कि वे आपकी नजर में सही हों लेकिन घर-परिवार, समाज की दृष्टि में वे गलत भी रहे हैं किन्तु आप हैं कि मानने को ही तैयार नहीं हैं। आपकी संगत भी अच्छी नहीं रही है। गलत लोगों का साथ आपने थाम रखा है और यही सब फसाद की जड़ है। मैंने लाख समझाने की कोशिश की लेकिन आपने मेरी बात नहीं मानी। हमारी कितनी जगहँसाई हुई है!

आप अपनी जिद पर अड़े रहे, अब देख लीजिये अपनी जिद का परिणाम! वह तो अच्छा हुआ कि पंचों का फैसला मेरे पक्ष में आया और दुनिया के सामने मैं सही साबित हुआ तथापि मैंने आपका मान भी रख लिया। घर की चीज घर में ही रही। अब साईकिल मैं और हम सब मिलकर ही चलायेंगे। वरना तो हम ना घर के रहते ना घाट के!

दूसरे तब भी मजे ले रहे थे और अब भी मजे ले रहे हैं! कम से कम अब तो समझदारी का परिचय दे दो। दुनिया भर में छीछालेदर तो नहीं होगी। आप भले ही मानते हों कि ‘साठा सो पाठा’, किन्तु लोग तो कहने लगे हैं कि दद्दा सठिया गये हैं। अब तो मान जाओ। हम भी आपका मान रखने के लिए आपको मार्गदर्शक की भूमिका में रखते हुए लोगों से यही कहेंगे कि ‘साठा सो पाठा।‘

आपका सिर्फ आपका

तथाकथित कपूत

 

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