पिछले एक सप्ताह के दौरान मध्यप्रदेश में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को लेकर हुई दो घटनाएं, राज्य में इस पार्टी के भविष्य के बारे में जहां कुछ संकेत देती हैं वहीं कुछ सवाल भी खड़े करती हैं। संकेत यह कि कई दिनों से निष्क्रिय से चल रहे संगठन की गतिविधियों में अचानक हलचल दिखाई देने लगी है और सवाल ये कि यह सरगर्मी संगठन को सक्रिय और भाजपा के मुकाबिल बनाने के लिए है या अपनी नेतागीरी बचाने अथवा बनाने के लिए?
सवाल नीमचढ़े हैं, लेकिन नकचढ़े होकर इनका जवाब देने के बजाय इन पर ठंडे दिमाग से सोचने की जरूरत है। क्योंकि इन्हीं सवालों में से वह राह निकलगी जिसकी मध्यप्रदेश कांग्रेस को पिछले 13 सालों से तलाश है।
जिन दो घटनाओं का मैंने जिक्र किया उनमें से पहली घटना 16 जनवरी को भोपाल में एनएसयूआई के प्रदर्शन के दौरान पुलिस के लाठीचार्ज में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव और कुछ अन्य नेताओं के घायल होने की है। यह प्रदर्शन कांग्रेस ने कटनी में हुए कथित हवाला घोटाले की जांच, उसे लेकर मंत्री संजय पाठक के इस्तीफे और जांच के बीच में ही कटनी के पुलिस अधीक्षक गौरव तिवारी को हटा दिए जाने जैसे मुद्दों को लेकर किया था।
मध्यप्रदेश कांग्रेस की राजनीति पर नजर रखने वाले जानते हैं कि वहां सबकुछ ठीक नहीं चल रहा। एक लॉबी है जो प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव को हटाना चाहती है। उनकी जगह पूर्व केंद्रीय मंत्री कमलनाथ अथवा ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश की कमान सौंपे जाने की चर्चा ने फिर जोर पकड़ा है। प्रदेश के प्रभारी महासचिव मोहन प्रकाश को हटाकर मुकुल वासनिक को लाए जाने की भी चर्चाएं हैं।
ऐसे में स्वाभाविक था कि अरुण यादव आलाकमान को संदेश देने के लिए ऐसा कुछ करते जिससे लगे कि वे न सिर्फ प्रदेश कांग्रेस को सक्रिय नेतृत्व दे रहे हैं बल्कि उनमें सत्तारूढ़ भाजपा और उसकी सरकार के खिलाफ सड़क पर उतरकर आंदोलन करने और लाठियां खाने का भी माद्दा है।
कांग्रेस के छात्र संगठन ने उन्हें यह मौका दे दिया। उसके प्रदर्शन में मौजूद रहकर और पुलिस की लाठियां खाकर अरुण यादव ने चर्चा में बने हुए नेताओं के लिए उलझन पैदा कर दी। जाहिर है सड़क पर उतरकर अरुण यादव ने (लाठी खाने का) जो काम किया है, वह काम उनका स्थानापन्न बनने वाले नेताओं के लिए करीब करीब नामुमकिन है। यह तो खुद कांग्रेसी भी नहीं सोच सकते कि प्रदेश अध्यक्ष का नेतृत्व संभालने के बाद 70 वर्षीय कमलनाथ अथवा सिंधिया राजवंश के वारिस, 46 वर्षीय ज्योतिरादित्य सिंधिया कभी कार्यकर्ताओं के आंदोलन का नेतृत्व करते हुए प्रदेश की सड़कों पर पुलिस की लाठियां खाएंगे।
यानी 45 साल के अरुण यादव ने आक्रामक तेवर दिखाते हुए, पुलिस की लाठी खाकर आलाकमान तक यह बात तो पहुंचा ही दी है कि चाहे वे रहें या कोई और लेकिन प्रदेश में यदि भाजपा से मुकाबला करना है तो वह सड़कों पर ही होगा। इसमें लाठियां भी खानी पड़ सकती हैं और जेल भी जाना पड़ सकता है। कमान वही संभाले जिसमें यह सब झेलने का माद्दा हो।
अब जरा दूसरी घटना देख लीजिये। यह घटना अभी दो दिन पुरानी यानी 21 जनवरी की है। बड़वानी में राज्य स्तरीय जनजाति सम्मेलन में कांग्रेस के विधायक और इन दिनों विधानसभा में प्रतिपक्ष के कार्यवाहक नेता बाला बच्चन ने उग्र और आक्रामक तेवर दिखाते हुए मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की मौजूदगी में अच्छा खासा हंगामा खड़ा कर दिया। 50 साल के बच्चन बड़वानी जिले में ही अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित राजपुर सीट से विधायक हैं।
बच्चन की शिकायत यह थी कि उन्हें उनके ही जिले में आयोजित हो रहे राज्य स्तरीय जनजाति सम्मेलन में बोलने का अवसर नहीं दिया जा रहा। आधिकारिक कार्यक्रम में उनका नाम वक्ताओं की सूची में ही नहीं था। जैसे ही मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान बोलने के लिए मंच पर आए, बच्चन ने आक्रोश के साथ अपनी आपत्ति दर्ज कराई और आखिरकार खुद मुख्यमंत्री ने उन्हें बोलने का अवसर दिया। यह बात अलग है कि मंच पर अप्रिय स्थिति पैदा हुई और बच्चन के बहुत ही संक्षिप्त भाषण के दौरान वहां मौजूद लोगों ने उन्हें काफी हूट किया, लेकिन इसके बावजूद कार्यवाहक नेता प्रतिपक्ष अपना विरोध दर्ज कराने में तो सफल रहे।
अब यदि ध्यान से देखें तो यह मामला भी अरुण यादव जैसा ही है। क्योंकि जिस तरह अरुण यादव की जगह प्रदेश कांग्रेस में नया अध्यक्ष लाने की बात चल रही है, उसी तरह सत्यदेव कटारे के निधन के बाद से, विधानसभा में कांग्रेस को नए नेता प्रतिपक्ष की तलाश है। बच्चन इस समय कार्यवाहक नेता प्रतिपक्ष हैं। जाहिर है वे भी अपने आक्रामक तेवर दिखाकर पार्टी को यह संदेश देना चाहते हैं कि सड़क से लेकर विधानसभा तक वे ही दमखम के साथ भाजपा से लड़ सकते हैं। लिहाजा पूर्णकालिक नेता प्रतिपक्ष पर उनका दावा ही स्वाभाविक और सबसे पुख्ता है।
अब इन आक्रामक घटनाओं के बावजूद जो सवाल हवा में तैर रहा है वो यह कि नेता तो अपने अपने कारणों से फौरी तौर पर उग्र तेवर दिखा रहे हैं, लेकिन क्या वे पूरे कांग्रेस संगठन को भाजपा का मुकाबला करने के लिए ऐसा आक्रामक बना पाएंगे? कांग्रेस की असली जरूरत ही संगठन में मैदानी आक्रामकता लाने की है, क्योंकि उसका मुकाबला जिस भाजपा से है उसके पास खांटी नेता भी है और संगठन भी…