आज इस कॉलम के लिए विषय का चयन करते समय दो मुद्दे बहुत बुरी तरह गुत्थम गुत्था हो गये हैं। पहले सोचा था दोनों पर अलग अलग लिखूंगा, लेकिन बहुत कोशिश करने के बावजूद दोनों विषयों को अलग करने की कोई सूरत ही नहीं बन पाई। कम से कम मेरे लिये तो…
लिहाजा सोचा कि क्यूं न दोनों को यूं ही गुंथा रहने दूं और उसी सूरत में अपनी बात आपके सामने रखूं। शायद आप कोई राह सुझा सकें, इस गुत्थमगुत्था माहौल में…
जो दो विषय मेरे मानस में आपस में भिड़े हुए हैं, उनमें से एक विषय दो दिन पहले एक बहुत बड़े अखबार में छपी खबर से उपजा है। खबर कहती है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए एक अहम फैसला किया है। इस फैसले के मुताबिक अब लेक्चरर, रीडर और प्रोफेसर या प्राचार्य बनने के लिए अपने सारे शोध पत्र संबंधित शिक्षक को अंग्रेजी में ही प्रकाशित करवाने होंगे।
आयोग ने ऐसी उच्चस्तरीय शोघ पत्रिकाओं की सूची भी जारी की है जिनमें प्रकाशित होने पर ही शोध पत्र मान्य किये जाएंगे। अंग्रेजी में शोध पत्र प्रकाशित करने की अनिवार्यता के पीछे कारण यह बताया गया है कि इससे भारत में होने वाले शोध अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी नाम कमा सकेंगे।
दूसरी खबर महात्मा गांधी से जुड़ी है। खबर यह कि खादी ग्रामाद्योग आयोग ने अपने कैलेण्डर में इस बार महात्मा गांधी के बजाय चरखा चलाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का फोटो प्रकाशित कर दिया। जाहिर था इस पर बवाल मचा। सरकार और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी इस मामले को संभालने की कोशिश कर ही रहे थे कि हरियाणा के एक मान्यवर मंत्री अनिल विज ने और अधिक बुद्धिमानी का परिचय देते हुए बयान दे डाला कि- ‘’अच्छा हुआ गांधी की तस्वीर खादी आयोग के कैलेंडर से हट गई। धीरे-धीरे नोट से भी गांधी गायब हो जाएंगे। जब से खादी के साथ गांधी का नाम जुड़ा है, खादी उठ ही नहीं सकी। मोदी ज्यादा बड़ा ब्रांड नेम हैं। मोदी के प्रचार के बाद खादी की बिक्री में 14 फीसदी का इजाफा हुआ है।‘’
हिन्दी वाली खबर पर ज्यादा हल्ला नहीं मचा। और हल्ला क्या, मुझे ऐसा लगा कि शायद ही किसी ने उसका कोई नोटिस लिया हो। ऐसा संभवत: इसलिए भी हुआ होगा क्योंकि हिन्दी में उतनी राजनीतिक संभावनाएं अब नहीं बची हैं जितनी गांधी में आज भी मौजूद हैं। हरियाण के मंत्री ने मोदी को ब्रांड बताया तो कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने तंज कसा कि हिटलर और मुसोलिनी भी तो ब्रांड ही थे। महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी ने कहा- ‘’हाथ में चरखा, दिल में नाथूराम।‘’ सोशल मीडिया पर यह मुद्दा अभी भी छाया हुआ है।
मेरे लिये ये दोनों मुद्दे गुत्थमगुत्था यूं हुए कि दोनों से ही देश की पहचान और अस्मिता जुड़ी है। न तो हिन्दी के बिना भारत की कल्पना की जा सकती है और न ही गांधी के बिना। लेकिन आज दोनों को ही खारिज करने की सतत कोशिशें हो रही हैं। यह अलग बात है कि चौतरफा हमलों के बावजूद यदि हिन्दी और गांधी आज भी टिके हुए हैं तो सिर्फ और सिर्फ इसी वजह से कि हमारी राजनीति अपनी तमाम घिनौनी हरकतों के बावजूद इन दोनों को भारतीय मानस से अलग करने में कामयाब नहीं हो सकी है।
जिस तरह आप देश के सामाजिक और सांस्कृति ताने बाने से हिन्दी को बाहर नहीं कर सकते उसी तरह हमारे इतिहास से गांधी को खारिज नहीं किया जा सकता। न तो सिर्फ ‘अ,आ, इ, ई’ हिन्दी की पहचान मात्र है और न ही सिर्फ चरखा गांधी का या गांधी चरखे का पर्याय हैं। लेकिन जिस तरह अ,आ, इ, ई के बिना हिन्दी की कल्पना नहीं की जा सकती, वहीं चरखे और खादी के बिना गांधी के व्यक्तित्व को आकार देना असंभव है।
ऐसा नहीं है कि देश में हिन्दी या गांधी की आलोचना न हुई हो। हिन्दी को लेकर अहिन्दीभाषियों का आग्रह, दुराग्रह या पूर्वग्रह आज भी बना हुआ है, उसी तरह गांधी, उनके विचार और उनकी कार्यशैली को लेकर भी सारे लोग सहमत रहे हों ऐसा भी कभी नहीं रहा। लेकिन सोवियत संघ में जो व्यवहार लेनिन के साथ हुआ वैसा व्यवहार भारत में गांधी के साथ अब तक तो नहीं हुआ है। और उसका कारण भी शायद यही है कि गांधी अपनी तमाम आलोचनाओं और स्वतंत्रता संग्राम की समकालीन पीढ़ी में साथ काम करने वाले नेताओं को लेकर आग्रह दुराग्रह रखने के बावजूद अधिकांश रूप में स्वीकार्य रहे हैं। ऐसा नहीं कि उनके व्यक्तित्व का नकारात्मक पक्ष शून्य है, लेकिन उनकी स्वीकार्यता का आधार उनमें सकारात्मकता के प्रतिशत का आधिक्य है।
अनिल विज जैसे कुछ जड़बुद्धि, उत्तेजना में या सुनियोजित विचार के तहत यदि गांधी को खारिज करने या उनके योगदान पर सवाल उठाने की हिमाकत करते भी हैं, तो भी शरमा शरमी या लोकलाज के डर से अथवा गांधी की ताकत को पूरी तरह खारिज न कर सकने की विवशता के चलते उनकी ही पार्टी भाजपा को आधिकारिक बयान देकर कहना पड़ता है कि– गांधी हमारे आइकन हैं…
कल बात करेंगे चरखा, हिन्दी और गांधी की…