देश के राजनीतिक दल इन दिनों एक दूसरे पर डरने और डराने का आरोप लगा रहे हैं। बहस का मुद्दा यह है कि देश में डर का माहौल है। लेकिन मजे की बात देखिये कि ‘डर’ को लेकर फैलाए जा रहे ‘डर’ के बावजूद लोग उस चीज से बिलकुल नहीं डर रहे जिससे वास्तव में उन्हें डरना चाहिए।
प्रश्न यह है कि व्यवस्था, गवर्नेंस या सरकार का मुख्य काम क्या है? क्या इनकी मुख्य अथवा प्राथमिक जिम्मेदारी देश में कानून के राज की स्थापना करना नहीं है? निश्चित रूप से किसी भी सरकार का मूल काम तो कानून और संविधान का पालन करना और करवाना ही है। लेकिन आज इसे छोड़कर बाकी सारे काम हो रहे हैं। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है मानो देश में कानून और संविधान नाम की कोई चीज ही नहीं है। यही कारण है कि जिस कानून से लोगों को डरना चाहिये, जिसका पालन न करने या जिसका उल्लंघन किये जाने पर उन्हें डर महसूस होना चाहिए वह डर कहीं दिखाई ही नहीं देता।
चर्चित उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल ने अपनी मशहूर कृति ‘राग दरबारी’ में शिक्षा व्यवस्था के बारे में लिखा है कि- ‘’वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी हुयी कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।‘’ आज यही बात पूरे दावे के साथ कानून और संविधान के बारे में भी कही जा सकती है कि- ‘’कानून व्यवस्था रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।‘’ लोग आज कानून से डरते नहीं उसका मखौल उड़ाते हैं। और उससे भी आगे, कई लोगों के लिए तो कानून को लात मारना अपनी शान, अपने रसूख का पैमाना बन गया है। एक जमाने में कानून तोड़ने वाला समाज में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था लेकिन आज जो कानून को तोड़े, उसे धता बताये या उसे लात मारे, वही असली नेता है। कानून तोड़ना अब स्टेटस सिंबल बन गया है।
और कानून को तोड़ने का यह सिलसिला गांव से लेकर शहरों तक समान रूप से चल रहा है। सड़क पर चलते समय यातायात के नियमों के पालन का मामला हो या फिर सड़कों पर अतिक्रमण करने का। सरकारी खंभों पर तार डालकर बिजली चुराने का मामला हो या फिर नहरों से बलपूर्वक पानी खींच लेने का। किसी को कोई डर नहीं। कानून तोड़ना या नियमों की परवाह नहीं करना अधिकार और कर्तव्य दोनों मान लिया गया है।
ऐसे में जब कोई यह कहता है कि देश में लोगों को डराया जा रहा है और लोग डरे हुए हैं, तो हंसी आती है। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है, जरा अपने आसपास नजर दौड़ा कर देख लीजिये, ऊपर जो छोटे-मोटे, टुच्ची हरकतों वाले दो चार उदाहरण मैंने दिये हैं, क्या उनमें शामिल लोग आपको कहीं से भी डरे हुए नजर आते हैं?
स्वामी विवेकानंद ने भारतवासियों को निडर होने का संदेश दिया था। यदि वे आज होते तो पता नहीं वर्तमान परिदृश्य पर फख्र करते या सिर पीटते। सचमुच उनका भारत निडर होता जा रहा है। वह चोरी करने से नहीं डरता, वह बेईमानी करने से नहीं डरता, वह धोखाधड़ी करने से नहीं डरता, वह कानून का उल्लंघन करने से नहीं डरता… तो जो लोग देश के डरे हुए होने की बात कर रहे हैं, या तो वे नादान हैं या फिर देश की नब्ज पर उनकी पकड़ नहीं है। वे भारत को जानते ही नहीं। भारत तो वास्तव में दिन-ब-दिन निडर होता जा रहा है। सरकारें चाहे किसी की भी रही हों, उन्होंने भारतवासियों को इसी तरह ‘निडर’बनाने का काम किया है।
डर यदि होता तो क्या दिल्ली में निर्भया कांड हो सकता था? डर यदि होता तो क्या हाल ही में बेंगलुरू में सरेआम सड़क पर दो बाइक सवार उस लड़की की इज्जत यूं तार तार कर सकते थे, डर ही होता तो क्या हमारे सैनिकों या अर्धसैनिक बलों को दाल के बजाय दाल का पानी देने की हिम्मत कोई कर सकता था, डर की ही बात होती तो देश में क्या इतना सारा कालाधन,भ्रष्टाचार पनप सकता था?
वास्तव में यदि लोग किसी बात को लेकर सबसे ज्यादा निडर हैं, तो वह है ‘डर’…। कानून का डर, कानून का उल्लंघन करने या अपराध करने पर सजा मिलने का डर, गैरकानूनी काम करने पर सामाजिक प्रतिष्ठा धूमिल होने या समाज एवं परिवार की नजरों से गिर जाने का डर… यहां किसी को किसी बात का कोई डर नहीं…!!
और जिन लोगों पर इस बात की जिम्मेदारी है कि वे लोगों को कानून का, संवैधानिक व्यवस्थाओं का डर दिखाएं, उन्हें जरूर शायद डर है इस बात का, कि यदि लोगों को कानून का डर दिखा दिया, तो कहीं ऐसा न हो कि वे डरे हुए लोग उन्हें भविष्य में डराने लायक ही न छोड़ें।
याद है ना बचपन की वो बात, जब बच्चे को डराने के लिए मां बाप कहते थे- ऊधम नहीं मचाना, नहीं तो बाबा आ जाएगा…थोड़े समय तो बच्चा इस धमकी से डरता है, लेकिन बड़ा होने पर वह जान जाता है कि बाबा वाबा कुछ नहीं होता, ये सिर्फ डराने की बातें हैं… इसी तरह लोगों ने शायद मान लिया है कि कानून वानून कुछ नहीं होता, ये सब डराने की बातें हैं…
इसलिए डरने डराने की बातें करने के बजाय मुबारकबाद दीजिये कि हमारा देश निडर हो गया है…