सारे के सारे लोग डर का ही तो खेल खेल रहे हैं…

स्‍वामी विवेकानंद की जयंती पर ‘टाइम्‍स ऑफ इंडिया’ में दिल्‍ली टाइम्‍स के संपादक अंशुल चतुर्वेदी का एक लेख प्रकाशित हुआ। इसका शीर्षक है- Why I don’t follow Vivekananda anymore (मैं स्‍वामी विवेकानंद का अब और अनुगमन क्‍यों नहीं करता)। विवेकानंद को चंद भाषणों या फिर सूर्यनमस्‍कार जैसी क्रिया तक सीमित कर देने वालों को यह लेख ध्‍यान से पढ़ना चाहिए। लेख के लब्‍बोलुआब के रूप में अंशुल चतुर्वेदी कहते हैं कि यदि हम विवेकानंद का सच्‍चा अनुगमन करना चाहते हैं तो हमें ‘अनुगमन’ शब्‍द को ही त्‍यागना होगा।

स्‍वामी विवेकानंद के विचारों को पढ़ने के बाद, यदि इस बात को और अधिक विस्‍तार दिया जाए, तो हम पाएंगे कि अपने समय का यह महान विचारक और संचारक कहीं भी, किसी से भी अपने पीछे चलने का दुराग्रह नहीं करता। वे कतई नहीं चाहते कि लोग उनके अनुगामी बनें। वे आत्‍मविश्‍वास और आत्‍मबल से लबरेज ऐसा व्‍यक्तित्‍व और ऐसा समाज चाहते हैं जो अपनी हिम्‍मत, अपने कौशल और अपने सामर्थ्‍य से आगे बढ़े।

आज के संदर्भ में यदि हम गहराई से देखें तो पाएंगे कि स्‍वामी जी के विचारों की बात करने वाले लोग उनकी इस शिक्षा या मंशा के ठीक विपरीत आचरण कर रहे हैं। चाहे आज के धर्माचार्य हों या राजनेता। वे यही चाहते और कोशिश करते रहते हैं कि उनके अनुयायियों या समर्थकों की फौज तैयार होती रहे। आज की भाषा में आप इसे चमचों की सेना भी कह सकते हैं।

चाहे हमारी राजनीतिक व्‍यवस्‍था हो, प्रशासनिक तंत्र हो या फिर सामाजिक ताना बाना, सभी का प्रयास मूल रूप से व्‍यक्ति को आत्‍मनिर्भरता की ओर ले जाने वाला नहीं, बल्कि येन केन प्रकारेण आश्रित या अनुगामी बना देने वाला है। हम चाहते हैं कि लोग वही सुनें जो हम कह रहे हैं, लोग वही बोलें जो हम बोल रहे हैं और वही देखें जो हम दिखा रहे हैं। और इससे भी आगे कोशिश तो यह हो रही है कि लोग वही सुनें, बोलें या देखें जो हम भविष्‍य में चाहते हैं।

सार्थक सोच या तर्क, अथवा किसी बहस या विमर्श की गुंजाइशें समाज में लगातार खत्‍म की जा रही हैं। चूंकि उत्‍तरदाताओं के पास समाधानकारक उत्‍तर नहीं हैं इसलिए वे प्रश्‍नों पर ही प्रश्‍न खड़े करने लगे हैं। नियंताओं को आत्‍मनिर्भर समाज नहीं बल्कि उन पर अवलंबित या आश्रित समाज चाहिए। शासन व्‍यवस्‍था से लेकर राजनीतिक दलों तक में यही एक-सा भाव पैठ गया है। वहां एक नेतृत्‍वकर्ता है और बाकी सारे अनुगामी। यह दौर अंधश्रद्धा और अंधभक्ति को ही अंतिम लक्ष्‍य की तरह स्‍थापित करने का है।

और यह स्थिति 21 वीं सदी की है। जहां भारत को आजाद हुए 69 साल हो गए हैं। और हम दावा करते हैं कि यह देश दुनिया की तेजी से आगे बढ़ती लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था का प्रतिनिधित्‍व करता है। संचार संसाधनों की क्रांति और कथित सोशल मीडिया के विस्‍तार के बावजूद ‘अनुगमन’ या ‘अंधानुकरण’ की यह प्रवृत्ति खत्‍म होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। तार्किक या वस्‍तुनिष्‍ठ सोच का दायरा लगातार संकुचित हो रहा है। तर्क, यथार्थ और वस्‍तुनिष्‍ठता के साथ बात करने वाले लोग या तो सतत हाशिये पर डाले जा रहे हैं या फिर हड़काये जा रहे हैं।

यह अजीब संयोग है कि जो स्‍वामी विवेकानंद, युवाओं को सबसे बड़ा संदेश ‘निडर’ होने का ही देते हैं, उनकी जयंती पर, उन्‍हें विशिष्‍ट पहचान देने वाले अमेरिका के शहर शिकागो से लेकर उनके अपने देश भारत में भी ‘डर’ की बात होती है। शिकागो में अमेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा अपने विदाई भाषण में कहते हैं कि डर के आगे झुकने से लोकतंत्र कमजोर होता है। वहीं भारत में कई दशकों तक राज कर चुके दल का युवा नेता आरोप लगाता है कि सरकार पूरे देश को डरा रही है। विवेकानंद जिस भयमुक्‍तता के दर्शन को अभीष्‍ट मानते हैं उन्‍हीं के देश में कहा जा रहा है कि लोगों को भयग्रस्‍त रखकर शासन करना गर्वनेंस का नया दर्शन है।

निश्चित तौर पर डर का यह नया दर्शन(?) समाज से और समाज के नीति नियंताओं से बहुत सारे सवाल करता है। क्‍या सचमुच इस देश में डर का विस्‍तार हो रहा है? क्‍या डर का अनुगमन किया जा रहा है? कौन है जो डरा रहा है और कौन हैं जो डर रहे हैं? क्‍या सचमुच डर की व्‍यवस्‍था पसर रही है या फिर डर से डर दिखाकर लोगों को डराते हुए उन्‍हें यथार्थ से दूर ले जाया जा रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि लोगों की आंखों पर डर का परदा डालकर कोई नया खेल खेला जा रहा हो? जिन्‍हें डरना चाहिये वे डर ही नहीं रहे हों और जो अब तक निडर या बेफिक्र थे उनमें डर बैठाकर अपना रक्षा कवच तैयार किया जा रहा हो?

सवाल बहुत सारे हैं। वे बहुत सी दिशाओं से दौड़ाए जा रहे हैं और बहुत सी दिशाओं में दौड़ रहे हैं। एक मशहूर पेय का विज्ञापन कहता है- ‘डर के आगे जीत है।‘ लेकिन यहां तो डर पैदा करके जीत की रणनीति बनाई जा रही है। डर का यह चक्रव्‍यूह इतना घना और अभेद्य है कि पता ही नहीं चल रहा कि इसे कौरवों ने रचा है या खुद पांडवों ने। और उधर बेचारी प्रजा अंदाज ही नहीं लगा पा रही कि इस ‘महाभारत’ का अंत क्‍या होगा?

दुर्भाग्‍य कि आज निडरता का संदेश देने वाला कोई विवेकानंद हमारे पास नहीं है, सारे नंदनंदन डर का ही खेल खेल रहे हैं…

 

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