आज स्वामी विवेकानंद की जयंती है। महान आध्यात्मिक चिंतक और दूरदृष्टा संचारक के रूप में स्वामी जी ने भारत के विश्वगुरु होने की भविष्यवाणी की थी और स्थितियां बता रही हैं कि तमाम बाधाओं के बावजूद भारत उस दिशा में निरंतर आगे बढ़ रहा है। स्वामी विवेकानंद को आमतौर पर आध्यात्मिक व्यक्तित्व के रूप में देखा या सीमित कर दिया जाता है। लेकिन उनके व्यक्तित्व में जितना हिस्सा आध्यात्मिकता का था उतना ही हिस्सा सांसारिकता या समाजिकता का था। उनके अवसान के 114 साल बाद भी यदि हम उनके विचारों को देखें तो लगता है मानो आज का ही कोई विचारक भारत की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों पर बात कर रहा हो।
स्वामी जी ने जिस स्पष्टता के साथ विश्व समुदाय के सामने अपने आध्यात्मिक विचार रखे वैसी ही दुर्लभ स्पष्टता और पारदर्शिता के साथ उन्होंने भारतीय समाज को भी आईना दिखाया। देश में आज धर्म, जाति, भाषा और संप्रदाय आदि पर बहुत बात हो रही है। सुप्रीम कोर्ट ने भी 2 जनवरी को अपने एक फैसले में कहा कि चुनाव में धर्म, जाति और भाषा के आधार पर वोट नहीं मांगे जा सकते। कोर्ट के इस फैसले पर भारतीय राजनीति में काफी हलचल हुई। यह सवाल भी उछला कि चुनाव तो छोडि़ये, भारतीय समाज से धर्म, जाति और भाषा को अलग करना भी क्या संभव है?
दरअसल भारतीय समाज में धर्म, जाति और भाषा आदि के स्थान और महत्व को लेकर सदियों से बहस चली आ रही है और शायद आगे भी चलती रहेगी। ये मुद्दे स्वामी विवेकानंद के समय भी हमारे समाज को मथ रहे थे और आज उनके अवसान के 114 साल बाद भी भारतीय समाज को वैसे ही मथ रहे हैं।
चूंकि मानव सभ्यता अपने इतिहास से बहुत कुछ सीखती और सबक लेती रही है इसलिए यह जानना प्रासंगिक होगा कि भारत में विश्वगुरु होने की संभावना देखने वाले स्वामी विवेकानंद ने इन मुद्दों पर क्या विचार रखे थे। दरअसल स्वामीजी का स्पष्ट मत था कि धर्म को समाज से अलग नहीं किया जा सकता। बल्कि उन्होंने तो इससे और आगे जाकर कहा था कि भारतीय समाज की दुर्दशा ही इसलिए हुई है कि हमने धर्म को त्याज्य मान लिया।
स्वामीजी के इस कथन पर आज के बुद्धिजीवी सवाल उठा सकते हैं। उन्हें संकुचित विचारधारा वाला या हिन्दूवादी चिंतक करार दिया जा सकता है। लेकिन विवेकानंद पर ऐसा कोई फतवा जारी करने से पहले यह जान लेना होगा कि उन्होंने जिन अर्थों में ‘धर्म’ शब्द का उपयोग किया है, क्या आज के हमारे धर्म के ठेकेदारों में उन अर्थों के पास तक फटकने की हिम्मत है?
विवेकानंद कहते हैं- ‘’जाति, धर्म भाषा तथा शासन प्रणाली ये सब एकसाथ मिलकर एक राष्ट्र की सृष्टि करते हैं। यदि एक एक जाति (Race) को लेकर हमारे राष्ट्र से तुलना की जाए तो हम देखेंगे कि जिन उपादानों से संसार के दूसरे राष्ट्र गठित हुए हैं, वे संख्या में यहां के उपादानों से कम हैं। यहां आर्य हैं, द्रविड़ हैं, तातार हैं, तुर्क हैं, मुगल हैं, यूरोपीय हैं, मानो संसार की सभी जातियां इस भूमि में अपना अपना खून मिला रही हैं। भाषा का यहां एक विचित्र सा जमावड़ा है, आचार व्यवहारों के संबंध में दो भारतीय जातियों में जितना अंतर है उतना प्राच्य और यूरोपीय जातियों में भी नहीं है। हमारे पास एकमात्र मिलन भूमि है हमारी पवित्र परंपरा, हमारा धर्म। एकमात्र सामान्य आधार वही है और उसी पर हमें संगठित होना पड़ेगा। यूरोप में राजनीतिक विचार ही राष्ट्रीय एकता का कारण हैं, परंतु एशिया में राष्ट्रीय एकता का आधार धर्म है। अत: भारत के भावी संगठन की पहली शर्त के तौर पर इस धार्मिक एकता की ही आवश्यकता है।‘’
लेकिन स्वामीजी की दृष्टि में धर्म क्या है? जरा उसे भी सुन लीजिये। वे कहते हैं- ‘’धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है। धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धांतों में। वह केवल अनुभूति में निवास करता है। मनुष्य को चाहिये कि वह स्वयं में सबसे पहले पवित्रता, भक्ति, विनय, सच्चाई, निस्वार्थ भावना और प्राणिमात्र के प्रति प्रेम का विकास करे।‘’
इसी संदर्भ में वे पाप और पुण्य की अवधारणा की भी बहुत ही सुंदर व्याख्या करते हैं- ‘’पुण्य वह है जो हमारी उन्नति में सहायता करता है और पाप वह है जो हमें पतन की ओर ले जाता है।… जो तुममें दैवीय गुण बढ़ाता है वह पुण्य है और जो तुममें पशुता बढ़ाता है वह पाप है।’’
स्वामीजी ने धर्म के ठेकदारों को कभी नहीं बख्शा, उन्होंने कहा- ‘’पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं, जो हिन्दू धर्म जैसा इतने उच्च स्वर में मानवता के गौरव का उपदेश देता हो। और पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं जो हिन्दू धर्म के समान गरीबों और निम्न जाति वालों का गला ऐसी क्रूरता से घोटता हो।‘’
विवादों की मूल जड़ सांप्रदायिकता को लेकर स्वामी जी कहते हैं- ‘’इस देश में अनेक पंथ या संप्रदाय हुए हैं। आज भी ये काफी संख्या में हैं और भविष्य में भी बड़ी संख्या में होंगे… संप्रदाय अवश्य रहें पर सांप्रदायिकता दूर हो जाए। सांप्रदायिकता से संसार की कोई उन्नति नहीं होगी, परंतु संप्रदायों के बिना संसार काम नहीं कर सकता। एक ही सांप्रदायिक विचार के लोग सारे काम नहीं कर सकते। संसारकी यह अनंत शक्ति कुछ थोड़े से लोगों के हाथों परिचालित नहीं हो सकती।‘’
क्या आपको नहीं लगता कि जो जो भी लोग स्वामी विवेकानंद का नाम लेते रहे हैं, उन्हें स्वामी जी को जरा ध्यान से पढ़ लेना चाहिए…?