मीडिया पर आसमान नहीं टिका, उसकी टांगे उठ गई हैं…

दिक्‍कत यह है कि लोकतंत्र का चौथा खंभा और जाने किन किन फालतू टाइप के विशेषणों को लादे मीडिया जबरन में ही फूला फूला घूमता फिरता है, जबकि असलियत यह है कि खंभा तो छोडि़ए उसकी हैसियत आज एक काड़ी की भी होगी इसमें भी मुझे संदेह है। दूसरी तरफ सभा-सेमिनारो में या तो मीडिया का फुगावा बनाए रखने के लिए या फिर खुद अपना मन समझाने के लिए लोग कह देते हैं कि मीडिया पर ही उनकी आशाएं टिकी हैं। उधर मीडिया भी टिटहरी की तरह इस गुमान में रहता है कि देश के उद्धार का आकाश उसकी टांगों की पर ही टिका है, मजे की बात यह है कि ऐसा सोचते समय वह यह भूल जाता है कि खुद उसकी टांगे हवा में उठी हुई हैं।

सोचने वाली बात यह है कि जिस मीडिया से इतनी आशांए, अपेक्षाएं हैं उस मीडिया को समाज कितना संरक्षण दे रहा है। आज भी हालत यह है कि यदि सरकार या बाजार का टेका न लगा हो तो इस खंभे की एक-एक ईंट और गारा जमीन पर नजर आए। यदि समाज सचमुच चाहता है कि बाजारू या बिकाऊ मीडिया के बजाय सकारात्‍मक और स्‍वस्‍थ मीडिया विकसित हो तो समाज को उसे संरक्षण देना ही होगा।

यदि समाज ठान ले कि मीडिया को राज्‍याश्रित अथवा बाजाराश्रित नहीं रहने देना है, तो लोकतंत्र का पूरा सीन ही बदल जाए। लेकिन चूंकि मीडिया को सरकारी विज्ञापनों और अन्‍य सुविधाओं या बाजार के सहयोग पर ही जिंदा रहना होता है, इसलिए सरकारें जब चाहें विज्ञापनों को रोक कर उसकी मुश्‍कें कस देती हैं। उसका यही हाल बाजार भी करता है। और जो मरीज सांस लेने तक को मोहताज हो वह वेंटीलेटर पर रहने को मजबूर होगा ही।

इसलिए आवश्‍यक है कि सरकारी विज्ञापनों की नीति में इस तरह की गुंजाइश रखी जाए कि सीमित संसाधनों से चलने वाले ऐसे मीडिया उपक्रमों को, जो गुणवत्‍तापूर्ण, लोककल्‍याणकारी और सकारात्‍मक मीडियाकारिता के लिए काम कर रहे हैं, उन्‍हें कुछ न कुछ वेटेज अवश्‍य मिले। अभी तो जो दृश्‍य दिखाई दे रहा है वह छोटे और मझोले मीडिया उपक्रमों से वेंटीलेटर भी हटा लिए जाने का है। जाहिर है तब इस खबर मंडी में बड़े प्‍लेयर ही बचेंगे और सरकार बड़े घरानों को खुलकर बाजारवादी खेल खेलने का मौका देते हुए खुद ही क्रॉसमीडिया ऑनरशिप को बढ़ावा दे रही होगी।

यह मीडियाकारों की बदकिस्‍मती ही कही जाएगी कि वे दुनिया जहान का दर्द अपनी कलम, अपने माइक या अपने माउस में लिए हुए जीते रहते हैं, लेकिन खुद अपने लिए गठित वेतन आयोग की सिफारिशें लागू नहीं करवा पाते। सुप्रीम कोर्ट की तमाम सदेच्‍छाओं और दिशानिर्देश के बावजूद मजीठिया वेतनमान अधिकांश मीडिया समूहों ने लागू नहीं किया है। कोई भी सार्थक मीडिया नीति तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक कि मीडिया जगत के कामगारों के लिए बेहतर सेवाशर्तों और बेहतर वेतन की सुनिश्चितता न हो।

एक और मामला खबरों को लेकर मीडियाकारों पर दर्ज होने वाले आपराधिक व अन्‍य प्रकरणों का है। ऐसे प्रकरणों में ज्‍यादतर खबरों को आधार बनाकर दर्ज किए और कराये जाने वाले मानहानि के मामले होते हैं। ये मामले वर्षों तक चलते हैं और उस पूरी अवधि में मीडियाकार घोर संत्रास से गुजरता है। मेरा मानना है कि जिस तरह देश में पर्यावरण के मामलों के लिए ग्रीन ट्रिब्‍यूनल, सहकारिता मामलों के लिए कोऑपरेटिव ट्रिब्‍यूनल आदि की व्‍यवस्‍था है, उसी तरह मीडिया से जुड़े मामलों के लिए मीडिया ट्रिब्‍यूनल होना चाहिए।

खबरों आदि को लेकर दर्ज होने वाले मानहानि जैसे प्रकरण आरंभिक तौर पर मीडिया कौंसिल के पास भेजे जाएं। और वह यदि आवश्‍यक समझे तो उन्‍हें निराकरण के लिए मीडिया ट्रिब्‍यूनल के पास भेज दे और वे ही इनका निराकरण करें। बाद में उसकी अपील सीधे हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में हो। इस तरह के ट्रिब्‍यूनल भी अखिल भारतीय और राज्‍य स्‍तरीय दोनों तरह से गठित किये जाएं। यह इसलिए कि मीडियाकारों को कई बार धमकाने या दबाने के लिए इस तरह के प्रकरण दर्ज करवाए जाते हैं और खबरनवीस को एक अपराधी की तरह अदालतों के चक्‍कर काटने पड़ते हैं।

इसी सिलसिले में नए प्रेस कमीशन के गठन पर भी विचार किया जाना चाहिए। देश का पहला प्रेस कमीशन 1952 में न्‍यायमूर्ति जे.एस. राज्‍याध्‍यक्ष की अध्‍यक्षता में गठित हुआ था, जबकि दूसरा प्रेस कमीशन उसके करीब 26 साल बाद 1978 में। दूसरे प्रेस कमीशन के गठन की ‘घटना’ को भी अब 38 साल हो चुके हैं। इस बीच देश में मीडिया का पूरा परिदृश्‍य ही बदल गया है। इसलिए आवश्‍यक है कि सरकार मीडिया जगत के विभिन्‍न आयामों पर विचार करने और भविष्‍य में आने वाली चुनौतियों के मद्देनजर नया प्रेस कमीशन तुरंत गठित करे।

यदि सरकार और समाज सचमुच मीडिया को जिंदा रखना चाहते हैं तो इन बुनियादी बातों पर ध्‍यान देना ही होगा…

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