देश में इन दिनों ‘प्रश्नकाल’ चल रहा है। सवाल पर बवाल मचा हुआ है। जवाब का भले ही दूर दूर तक ठिकाना न हो, लेकिन सवालों की बमबारी जारी है। हर कोई सवाल करने में लगा है। सवालों की इस मंडी में लाख टके के इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है कि यदि हर कोई सवाल ही पूछता रहेगा तो जवाब देने की जिम्मेदारी कौन लेगा? कुछ लोगों ने सवाल को ढाल बना लिया है, तो कुछ लोग सवाल की तलवारें लहराते घूम रहे हैं।
सोशल व डिजिटल मीडिया से लेकर मुख्यधारा के मीडिया तक सवाल ही सवाल हैं। आज के समय का सबसे चर्चित सवाल है- ‘’क्या बागों में बहार है?’’ मेरे हिसाब से इसका माकूल जवाब है- ‘’नहीं, बागों में सवाल है’’।
मीडिया सरकार से सवाल पूछ रहा है कि यदि वह सवाल ही नहीं पूछेगा तो क्या करेगा? लोकतंत्र में सवाल पूछने की आजादी ही खत्म कर दी जाएगी तो लोग क्या करेंगे? सवाल नहीं पूछेंगे तो जवाब कहां से आएंगे… और जिन जिन मंचों से इन सवालों के जवाब आना चाहिए वहां खामोशी पसरी हुई है।
लोकतंत्र में मीडिया तो सरकार से सवाल पूछता ही है, लेकिन मीडिया के अलावा एक और प्रमुख मंच है जहां सरकार से सवाल पूछे जाते हैं। यह मंच है संसद और विधानसभा का। इन सदनों में सवालों के लिए बाकायदा एक समय नियत होता है जिसे प्रश्नकाल कहा जाता है। इसमें सांसद या विधायक सरकार से सवाल पूछते हैं और सरकार उनके जवाब देती है। सवाल पर बवाल के इस कालखंड में आज संसद और विधानसभा की याद इसलिए आई कि मध्यप्रदेश से संसदीय सदनों में भी सवालों की जगह कम किए जाने का मुद्दा उठा है।
किस्सा ये है कि दिसंबर माह में 5 से 9 तारीख तक मध्यप्रदेश विधानसभा का शीतकालीन सत्र बुलाया गया है। इस सत्र की अवधि मात्र पांच दिन रखे जाने पर सदन में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के मुख्य सचेतक रामनिवास रावत ने आपत्ति करते हुए राज्यपाल ओमप्रकाश कोहली को पत्र लिखकर मांग की है कि इस सत्र में कम से कम 15 बैठकें रखी जाएं। रावत का आरोप है कि सरकार विधानसभा सत्रों में बैठकों के दिन लगातार कम करके विपक्ष के सवाल पूछने के अधिकार का गला घोंट रही है।
रावत ने सरकार के इस तर्क को आधारहीन बताया है कि सदन का कामकाज चलाने लायक विषय (बिजनेस) नहीं है, इसलिए सत्र की अवधि कम रखी जा रही है। उनका कहना है कि प्रदेश में बिगड़ती कानून व्यवस्था, भोपाल जेल से सिमी कैदियों की फरारी और उनके साथ हुई मुठभेड़, कुपोषण से लगातार हो रही मौतें, उज्जैन सिंहस्थ में हुआ भारी भ्रष्टाचार, राज्य की सड़कों की बदहाली, पोषण आहार वितरण में गड़बड़ी, राशन दुकानों से मिट्टी मिला गेहूं बांटने जैसे दर्जनों मामले हैं जिन पर विपक्ष सदन में सरकार से सवाल पूछना और उन पर चर्चा कराना चाहता है, लेकिन सरकार जनहित से जुड़े इन मुद्दों पर बात ही नहीं करना चाहती।
रावत ने अपनी बात के समर्थन में सदन की बैठकों को लेकर राज्यपाल को जो आंकड़े दिए हैं वे चौंकाने वाले हैं। उन्होंने बताया है कि वर्तमान 14वीं विधानसभा में अब तक 11 सत्र बुलाए और इनमें कुल निर्धारित 116 बैठकों में से भी सिर्फ 82 बैठकें ही हुईं। 34 बैठकें निरस्त कर दी गईं। इससे पहले 13 वीं विधानसभा के 17 सत्रों में 213 बैठकें तय हुई थीं, लेकिन वास्तव में हुईं केवल 172, बाकी 41 निरस्त कर दी गईं। यही हाल 12 वीं विधानसभा का रहा जिसमें निर्धारित 207 बैठकों में से 153 बैठकें ही हुईं और 49 निरस्त कर दी गईं।
रावत का कहना है कि विधानसभा अध्यक्षों व उपाध्यक्षों के गोवा सम्मेलन में यह तय हुआ था कि छोटे सदनों में साल भर में कम से कम 40 और बड़े राज्यों के सदनों में न्यूनतम 70 बैठकें होनी चाहिए। लेकिन मध्यप्रदेश में वर्तमान सरकार के कार्यकाल के दौरान जनवरी 2014 से जुलाई 2016 तक तीन सालों में सिर्फ 82 बैठकें ही हुई हैं। यानी एक साल में औसतन 30 से भी कम।
ससंद और विधानसभा में बैठकों के लगातार कम होने और सदन में सांसदों एवं विधायकों की उपस्थ्िाति को लेकर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की मध्यप्रदेश इकाई ने हाल ही में जारी अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि ‘’संविधान के अनुच्छेद 190(4) के अनुसार कोई सदस्य यदि साल भर में 60 दिन सदन में उपस्थित नहीं होता तो सदन उसकी सदस्यता समाप्त कर उसका स्थान रिक्त घोषित कर देगा।‘’ लेकिन मध्यप्रदेश में तो साल भर में 60 बैठकें ही नहीं हो रहीं। यानी पूरा सदन ही संविधान की इस व्यवस्था के विरुद्ध चल रहा है।
और इन आंकड़ों के परिप्रेक्ष्य में सारा मामला वहीं आकर टिक जाता है, जहां से हमने बात शुरू की थी। मूल मुद्दा सवाल का ही है। क्या सरकारें सदन की बैठकों को भी इसीलिए कम करती जा रही हैं कि उनसे ज्यादा सवाल न पूछे जाएं। और जब सवाल मीडिया में नहीं होंगे, संसद और विधानसभाओं में नहीं होंगे, तो सवाल आखिर कहां होंगे? इस मामले में ‘आपातकाल’ जैसा शब्द इस्तेमाल किए जाने पर पर कई लोगों को आपत्ति है। लेकिन जंगल में शेर भले ही दहाड़ कर अपनी मौजूदगी दर्ज कराता हो, पर शिकार वह दबे पांव ही करता है।
क्या स्थितियां दबे पांव लोकतंत्र की ओर नहीं बढ़ रही हैं?