उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के रजत जयंती समारोह में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जोरदार बात कही। समारोह में उन्हें जब तलवार भेंट की गई तो वे बोले- ‘’हमें तलवार तो दे दी जाती है, पर उसे चलाने का अधिकार नहीं दिया जाता, तलवार यदि दी है तो वह चलेगी भी…’’ अखिलेश का यह कथन भले ही अघोषित रूप से समाजवादी पार्टी में चल रहे अंदरूनी घमासान से रिश्ता रखता हो, लेकिन मुझे लगता है कि देश के एक घाघ और बुजुर्ग नेता मुलायमसिंह यादव के इस युवा बेटे ने जाने अनजाने देश की पूरी राजनीतिक व्यवस्था पर ही बड़ी सटीक टिप्पणी कर दी है।
दरअसल मुद्दा हाथ में आई तलवार के सार्थक उपयोग का है। चाहे दल की राजनीति हो या देश की, पहले तो इस बात का जतन किया जाता है कि हाथ में तलवार आ जाए, लेकिन जब वह हाथ में आ जाती है, तो पता चलता है कि या तो उसे चलाने का सलीका ही नहीं सीखा या फिर तलवार चलाने की इजाजत ही नहीं है। ऐसे में तलवार हाथ में ताने खड़े योद्धा का विपक्षी वारों से लहूलुहान हो जाना या फिर बिना युद्ध के ढेर हो जाना स्वाभाविक है। जरूरत इस बात की है राजा को तलवार चलाने की इजाजत तो मिले, लेकिन राजा भी उसे उन्हीं पर चलाए जिन पर चलाना जरूरी हो। वरना राजा की तलवार से प्रजा ही लहूलुहान हो जाएगी।
वैसे ये तलवारें भी कई किस्म की होती हैं, पहली होती है एकधारी तलवार और दूसरी होती है दुधारी तलवार। एक धारी तलवार में सारा खतरा सामने वाले के लिए होता है, जबकि दुधारी तलवार का कोई भरोसा नहीं रहता। कब वह दुश्मन पर चले और कब खुद पर चल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। देश में ऐसी तलवारे ज्यादा बिक रही हैं।
अब समाजवादी पार्टी का ही मामला ले लीजिए। उसके नेताओं के हाथ में जो तलवारें हैं, वे ज्यादातर दुधारी हैं। वे दूसरों को काटने के साथ-साथ खुद की जड़ें भी काट रही हैं। यही वजह है कि एक समय उत्तरप्रदेश में चारों तरफ फैला सपा का वटवृक्ष, चुनाव संभावना के लिहाज से कट कट कर बोनसाई होता जा रहा है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाली बॉलीवुड फिल्मों में एक दृश्य हुआ करता था, जब योद्धा संग्राम में जाने से पहले खुद तलवार से अपना अंगूठा चीरकर रक्त का तिलक लगाता था। सपा में ऐसे रक्त तिलक लगाए लोगों की बाढ़ सी आ गई है। चूंकि वे रक्त तिलक लगाकर संग्राम में कूदने का ऐलान कर चुके हैं, इसलिए उनकी तलवारें अब विरोधियों की गरदनों की तलाश में हैं।
आमतौर पर रजत जयंती टाइप के राजनीतिक कार्यक्रमों में मीठी मीठी या शाकाहारी किस्म की बातें ही होती हैं। लेकिन उत्तरप्रदेश में हर कोई खून के लेन-देन की बात कर रहा है। सपा के जिस समारोह में अखिलेश को तलवार भेंट की गई, उसी समारोह में उनके चाचा शिवपालसिंह को भी तलवार थमाई गई। यह समझ से परे है कि दोनों को मंच पर ही तलवार भेंट करने का यह आइडिया किसके दिमाग की उपज था और इसके पीछे मंशा क्या रही होगी। क्या ये तलवारें सपा के इस सबसे बड़े कुनबे में यादवी संघर्ष को और बढ़ाने के लिए भेंट की गई हैं? क्या तलवार थमाने वालों की मंशा यह है कि चाचा भतीजा इनका उपयोग कर आपस में ही कट मरें ताकि दूसरों का रास्ता साफ हो। ये सारे सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं, क्योंकि अखिलेश ने जहां तलवार हाथ में लेने के बाद संकेत दिए कि ‘’तलवार थमाई है तो वह चलेगी भी सही…’’ वहीं शिवपाल भी अपने भाषण में ‘खून’ का जिक्र करना नहीं भूले। उन्होंने कहा- ‘’हर त्याग करने को तैयार हूं, खून मांगोगे तो खून भी दे दूंगा।‘’ हालांकि दोनों ही पक्षों ने यह साफ नहीं किया कौन किसके खून की बात कर रहा है। अखिलेश किस पर तलवार चलाना चाहते हैं और शिवपाल किसको, किसका खून भेंट करना चाहते हैं?
सपा के रजत जयंती समारोह में ‘तलवार भेंट’ का दृश्य देखकर किसी ने टिप्पणी की कि ये तलवारें असली नहीं हैं, बल्कि लकड़ी की हैं। यदि ऐसा है तो फिर यह पता लगाने की जरूरत है कि चुनावी युद्ध में, जहां विरोधियों के सिर कलम करने की जरूरत होती है, वहां ये लकड़ी की तलवारें कहां तक काम आएंगी। सपा के मंच पर तलवारें थामे अखिलेश और शिवपाल का चित्र देखकर मुझे प्रसिद्ध साहित्यकार एवं पत्रकार धर्मवीर भारती की एक कविता की पंक्तियां याद आ गईं, आप भी सुनिए और सोचिए कि भारतीजी ने सपा के मंच पर उपस्थित हुए इस दृश्य के लिए ही तो कहीं सालों पहले ये पंक्तियां नहीं लिख दी थीं-
हम सबके दामन पर दाग / हम सब की आत्मा में झूठ / हम सब के माथे पर शर्म / हम सब के हाथों में/ टूटी तलवारों की मूठ / हम थे सैनिक अपराजेय / पर हम थे बेबस लाचार / यह था कठपुतलों का खेल / ऊपर थी कलई / पर लकड़ी के थे सब हथियार / हम सब के थे अपने गीत / आखिर तक गाने की शर्त / पर जाने कैसे ऐसे बदले बोल / हमने गाया कुछ, पर कुछ निकला अर्थ…