जलते हैं यादों के दीप: दिवाली कविता-2

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हम-तुम चाहे नहीं मिलें पर
मिलते हैं यादों के दीप,
एक उमर से एक उमर तक
जलते हैं यादों के दीप।

अंधी बस्ती में माटी के
दीप जलें तो किस क्षण तक?
उजियाला देकर अपने को
छलते हैं यादों के दीप।

कितनी दूर चलेंगे सपने,
हर दूरी की सीमा है?
पाँव जहाँ पर थक जाते हैं,
चलते हैं यादों के दीप।

मन टूटे तो देह बिखरती,
कब जलतीं बुझ कर सांसें?
जीवन के उद्यानों में पर
खिलते हैं यादों के दीप।

घर तो है दीवारें भी हैं,
दीवारों के द्वार कहाँ?
कमरे-कमरे, खिड़की-खिड़की,
पलते हैं यादों के दीप।

हम जिसको दुनिया कहते हैं
माया है या मृगतृष्णा,
रूप उभरकर जहाँ सँवरते,
ढलते हैं यादों के दीप

– डॉ. तारादत्त निर्विरोध

 

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