हिन्दी में बहुत पुरानी कहावत है- ‘’हाथी के दांत, खाने के और दिखाने के और’’… यह कहावत मोटे तौर पर उन लोगों का मुखौटा उतारने के लिए बनी थी जो कहते या दिखाते कुछ हैं और उनकी असलियत कुछ और होती है।
‘सुबह सवेरे’ में पिछले दो दिनों में मध्यप्रदेश के शिक्षा जगत से जुड़ी दो खबरें छपी हैं। जिन पर आप चाहें तो इस कहावत को लागू कर सकते हैं। हालांकि उन खबरों में जिन बातों का खुलासा किया गया है, उन्हें देखते हुए मुझे तो इस कहावत का इस्तेमाल करते हुए भी शर्म आ रही है।
पहला मामला मध्यप्रदेश की स्कूली शिक्षा में हिन्दी भाषा की दुर्दशा का है। सरकार ने नौवी और दसवीं कक्षा में तीसरी भाषा के स्थान पर और 11वीं एवं 12वीं कक्षा में दूसरी भाषा के स्थान पर अब व्यावसायिक ट्रेड पढ़ाने का प्रयोग शुरू किया है। आज की स्थिति में नौवीं और दसवीं कक्षा में हिन्दी और अंग्रेजी के बाद संस्कृत को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जाता है जबकि 11वी और 12वीं कक्षाओं के लिए हिन्दी माध्यम के स्कूलों में अंग्रेजी को और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में हिन्दी को दूसरी भाषा के रूप में पढ़ाए जाने की व्यवस्था है।
केंद्र और मध्यप्रदेश दोनों जगह भाजपा की सरकार है। इन दोनों सरकारों की शिक्षा और भाषा नीति को ‘संचालित व निर्देशित’ करने वालों को इस प्रयोग की भनक लगी है या नहीं इसका तो पता नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि यह प्रयोग उन ‘नीति निर्देशक’ सिद्धांतों के बिलकुल खिलाफ है, जो ‘उचित मंचों’ से इन सरकारों को बार बार बताए जाते रहे हैं।
एक तरफ तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबद्ध अनेक संगठन संस्कृत के पठन पाठन और उसे बढ़ावा देने पर जोर दे रहे हैं और दूसरी तरफ मध्यप्रदेश में उसी विचारधारा से जुड़ी सरकार संस्कृत का गला घोटने वाला कदम उठा रही है। यही बर्ताव परोक्ष से रूप से हिन्दी के साथ भी किया जा रहा है। प्रख्यात भाषाविद डॉ. जयकुमार जलज की यह आशंका बिलकुल ठीक है कि जब एक भाषा छोड़ने का विकल्प होगा, तो अधिकांश लोग जमाने के चलन के हिसाब से, अंग्रेजी के बजाय हिन्दी को ही छोड़ना पसंद करेंगे।
कहने को यह मामला अभी प्रयोग के तौर पर है, लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसे प्रयोग कालांतर में नीति बनकर लागू होते रहे हैं। अंग्रेजी के भेडि़ए के सामने संस्कृत और हिन्दी की गाय कितने समय तक टिकी रहेगी कहना मुश्किल है। भाषा के साथ इस ‘प्रयोग’ के विस्तार का असर केवल स्कूली शिक्षा तक ही सीमित नहीं रहेगा। जब छात्र स्कूल में ही संस्कृत या हिन्दी नहीं पढ़ेगा तो कॉलेज में जाकर वह इन विषयों में रुचि लेगा यह तो भूल ही जाइए। तो क्या सरकार परोक्ष रूप से कॉलेजों में स्नातक और फिर स्नातकोत्तर स्तर पर संस्कृत और हिन्दी की पढ़ाई को खत्म कर देना चाहती है? यह प्रयोग इन भाषाओं को दिया जाने वाला ऐसा धीमा जहर है, जिसके असर से, बिना किसी हो हल्ले के, ये भाषाएं अपनी ही मौत मर जाएंगी।
दूसरा मामला भोपाल में बड़े जोर शोर से स्थापित किए गए हिन्दी विश्वविद्यालय का है। यह विश्वविद्यालय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दिवंगत सर संघचालक कुप्प.सी. सुदर्शन की प्रेरणा से शुरू किया गया था और इसका नामकरण भाजपा के दिग्गज नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के नाम पर किया गया है। लेकिन इन दिनों इस विश्वविद्यालय की हालत माननीय वाजपेयीजी की हालत से भी बदतर है। वाजपेयीजी को तो फिर भी उनके जन्मदिवस पर याद कर लिया जाता है और नेतागण उनके घर गुलदस्ते लेकर चले जाते हैं, लेकिन हिन्दी विश्वविद्यालय तो सरकारी अनदेखी के चलते ‘फूल चढ़ाने’ की स्थिति में पहुंच गया है। इस विश्वविद्यालय की स्थिति के बारे में हिन्दी के प्रख्यात आलोचक डॉ. विजयबहादुर सिंह की यह आशंका निराधार नहीं है कि कहीं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) इस विवि की दुर्दशा को देखते हुए इसकी मान्यता ही रद्द न कर दे। लोग मजाक में कहने लगे हैं कि ढाई सौ पाठ्यक्रम और तीन सौ छात्रों वाला यह दुनिया का संभवत: इकलौता विश्वविद्यालय होगा।
मध्यप्रदेश सरकार ने वाहवाही लूटने और विचारधारा के प्रति अतिरिक्त अनुराग दिखाने के चक्कर में विश्वविद्यालय खोल तो दिया है लेकिन प्रदेश के बच्चों की तरह यह भी कुपोषित ही है। जैसे प्रदेश में कुपोषण के कारण बच्चे मर रहे हैं, वैसे ही हिन्दी विश्वविद्यालय के दिवंगत होने की खबर भी किसी दिन आ जाए तो आश्चर्य मत कीजिएगा।
अपनी बात के आरंभ में मैंने जिस कहावत का जिक्र किया था उसमें हाथी के बाहरी दांत कम से कम दिखते तो हैं, भले ही वे खाने या चबाने के काम न आते हों। लेकिन यहां दांत तो क्या मुंह भी दिखाई नहीं देता। भोपाल में पिछले साल हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन के दौरान भाई लोग हिन्दी के ऐसे हिमायती बनकर सामने आए थे जैसे इनके अलावा तो हिन्दी का कोई उद्धारक है ही नहीं, लेकिन लगता है वह ‘दर्शन’ भेड़ की खाल का था, अब जब वह उतरी है तो… असलियत सामने है…