भारत पाकिस्तान के बीच चल रहे ताजा विवाद के कारण, एक महत्वपूर्ण मसले पर मीडिया का ध्यान उतनी गहराई से नहीं जा पाया है, जितना जाना चाहिए था। यह मुद्दा आतंकवाद जैसी विश्वव्यापी समस्या से भी ज्यादा वैश्विक और कहीं अधिक व्यापकता वाला है। इससे समूची मानव सभ्यता का अस्तित्व जुड़ा है। और यह मुद्दा है जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग का। भारत ने दो अक्टूबर, गांधी जयंती दिन इस संबंध में पेरिस समझौते का अनुमोदन करते हुए उस पर हस्ताक्षर कर दिए हैं।
पेरिस में साल 2015 के अंत में हुए जलवायु परिवर्तन सम्मलेन के निष्कर्षों के आधार पर तैयार किया गया यह समझौता मोटे तौर पर कहता है कि अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन के कारण हमारी पृथ्वी का जो तापमान लगातार बढ़ रहा है उसे 2100 यानी इस शताब्दी के अंत तक दो प्रतिशत से कम रखना है। इसमें एक प्रमुख मुद्दा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को सीमित करने का है और विकसित देशों की तुलना में भारत जैसे विकासशील देशों के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती होगी।
अब जब भारत ने इस समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए हैं तो हमें यह भी देखना होगा कि हमारी विकास नीतियां इसके अनुसार बनती हैं या नहीं। और यही वह बिंदु है जो इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारत की चुनौती को और अधिक कठिन बनाता है।
विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग का मुद्दा ज्यादातर अकादमिक बहस तक ही सिमटा रहा है और व्यावहारिक धरातल पर उसके परिणाम या उस पर अमल कम ही देखने में आया है। लेकिन जिस तरह का अंतर्राष्ट्रीय दबाव इस बार बनाया जा रहा है, वह भारत जैसे देशों को बाध्य करेगा कि वे अपनी नीतियों में भी आवश्यक परिवर्तन करें।
पिछले दो माह के दौरान मुझे ऐसे कुछ आयोजनों में शिरकत करने का अवसर मिला जिसमें विकास और उसकी अवधारणा पर कई कोणों से व्यापक विमर्श हुआ। अगस्त माह में भोपाल के गैर सरकारी संगठन विकास संवाद ने कान्हा में ‘आजाद भारत में विकास’ विषय पर राष्ट्रीय विमर्श का आयोजन किया था। हाल ही में भोपाल में माधवराव सप्रे संग्रहालय ने ‘समाज का प्रकृति एजेंडा’ जारी कर इस विषय को और आगे बढ़ाया है।
कान्हा संवाद में मैंने महसूस किया कि हमारे विकास का मूल मुद्दा नीतिगत विकास बनाम व्यावहारिक विकास का है। नए जमाने के चलन और विकास में राजनीति की घुसपैठ के कारण आप नीतिगत विकास को प्रोपेगंडा विकास भी कह सकते हैं। जहां विकास की ऐसी अवधारणाएं प्रस्तुत की जाती हैं जो या तो व्यावहारिक नहीं होतीं या फिर सामान्य व्यक्ति के बजाय विशिष्ट वर्ग से ही वास्ता रखती हैं। जैसे विकास का एक बुनियादी मानक हैं सड़कें, लेकिन हमारे यहां सामान्य नागरिकों के चलने के लिए जो सड़कें हैं उनकी दशा में और 100 किमी प्रतिघंटा से भी अधिक की रफ्तार में दौड़ने वाली गाडि़यों के लिए बने सुपर हाइवे की सड़कों में अंतर देख लीजिए। आपको विकास की वास्तविकता और विसंगति साफ नजर जा जाएगी। सामान्य नागरिक को चलने लायक सड़क तक उपलब्ध नहीं हो पाती। यही हाल स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी और बिजली जैसी बुनियादी जरूरतों और उनसे जुड़ी विकासात्मक परियोजनाओं का है। सड़क तो है पर चलने लायक तक नहीं, अस्पताल तो है पर इलाज करने लायक नहीं, स्कूल तो है पर शिक्षा देने लायक नहीं, बिजली तो है पर रोशनी देने लायक नहीं… विकास की ये विसंगतियां सामाजिक गैरबराबरी की खाई और उससे पैदा होने वाली असंतोष की दरार को और अधिक चौड़ा करती हैं।
अब दूसरी बात पर आ जाइए। दूसरा मुद्दा हमारे विकास और प्राकृतिक संतुलन से जुड़ा है। यह मुद्दा मोटे तौर पर पेरिस जलवायु समझौते का भी केंद्र बिंदु है। हमने विकास तो किया है लेकिन प्रकृति की कीमत पर और शायद इसीलिए अब प्रकृति हमसे उस नुकसान की भरपाई मांग रही है। भोपाल में समाज का प्रकृति एजेंडा जारी किए जाने के दौरान चिंतक गोविंदाचार्य ने बहुत अच्छी बात कही। उन्होंने कहा कि विकास की आधुनिक अवधारणा में जिस दिन हमने यह कहा कि विकास के केंद्र में मनुष्य होना चाहिए, तभी हमने अपने विनाश की इबारत लिख दी। हमने केवल मनुष्य को ध्यान में रखा और जल, जंगल, जमीन को भूल गए। जबकि वास्तविकता यह है कि मनुष्य का अस्तित्व ही जल, जंगल, जमीन और हवा से जुड़ा है। हमने प्राकृतिक संसाधनों का पोषण करना तो दूर उनका अंधाधुंध दोहन करना शुरू कर दिया और बात दोहन तक भी रहती तो भी ठीक थी, अब तो हम प्राकृतिक संसाधनों का शोषण कर रहे हैं। प्राकृतिक संपदा पर निर्भर रहने वाले और उसका संरक्षण करने वाले लोग हमारे सिस्टम से ही बाहर हो रहे हैं। उनके होने से प्रकृति का संतुलन बना हुआ था, लेकिन उस व्यवस्था को हमने ‘आधुनिक विकास’ के नाम पर चौपट कर दिया।
पेरिस जलवायु समझौते की सफलता भी इसी सूत्र से जुड़ी है कि हमारे विकास के केंद्र में मनुष्य के बजाय प्रकृति हो। हमारा प्राचीन दर्शन भी इसी विचार पर आधारित था जो कहता था “माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या”अर्थात यह धरती हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं। धरती को मां मानने वाला यह रिश्ता ही हमारे अस्तित्व को खत्म होने से बचाए रखने का सूत्र है। यदि यह सूत्र हम भूल गए तो विनाश निश्चित है, फिर चाहे हम कितने ही समझौतों पर हस्ताक्षर करते रहें और कितने ही समझौतों का ऐलान करते रहें…