यह शीर्षक पढ़कर आपको घिन आ सकती है। आप मुझ पर लानत भेज सकते हैं कि मैं सुबह सुबह आपको क्या क्या पढ़वा रहा हूं। लेकिन जब आप पूरा किस्सा सुनेंगे तो हो सकता है आपको भी इस पूरी व्यवस्था से घिन आने लगे। आप सोचने पर मजबूर हो जाएं कि आखिर हमारी आंखों के सामने यह हो क्या रहा है?
मामला किसी सुदूर गांव खेड़े या कस्बे का नहीं, बल्कि मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल का है। यहां तीन दिन पहले बच्चों को भिखारी बनाने वाले एक गिरोह का पर्दाफाश हुआ। मामला ठीक वैसा ही निकला जैसा 60 और 70 के दशक की फिल्मों में हम देखा करते थे। यानी बच्चों को अपंग बनाकर उनसे भीख मंगवाना।
ताज्जुब इस बात का है कि यह मामला जिंदा मक्खी की तरह राजधानी के करीब-करीब हर चौराहे पर सालों से मौजूद है। तमाम नेताओं से लेकर आला नौकरशाह तक, रोज इन चौराहों से दर्जनों बार गुजरते होंगे। भीख मांगते बच्चों पर न सिर्फ उनकी नजर पड़ती होगी, बल्कि उनकी कार के शीशे खटखटाते हुए इन बच्चों को उन्होंने दर्जनों बाहर हड़काकर चलता भी किया होगा। लेकिन फिर भी ये बच्चे अब तक किसी को नजर नहीं आए। वो नजर आए राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग के सदस्य प्रियंक कानूनगो को। राजधानी के सबसे व्यस्त बाजार ‘न्यू मार्केट’ में कॉफी हाउस से बाहर निकलते ही उनके सामने करीब दस साल का बच्चा भीख मांगने आया और उससे पूछताछ में यह ‘रहस्योद्घाटन’ हुआ कि अरे! राजधानी में तो बच्चों से भीख मंगवाने वाला गिरोह चल रहा है।
मामले पर हल्ला मचा तो आनन फानन में पुलिस और चाइल्ड लाइन आदि की मदद से ऐसे छह बच्चों को अलग अलग जगहों से पकड़ा गया। उनसे पूछताछ में पता चला कि कोई ‘शकील भाई’ है जो इन बच्चों से यह काम करवाता है। बच्चे भीख में मिले पैसे उसके ही हवाले करते हैं। पैसे न मिलने पर बच्चों के साथ मारपीट की जाती है।
दरअसल राजधानी का शायद ही कोई ऐसा चौराहा होगा जहां ट्रैफिक लाइट पर रेड सिग्नल होने के बाद वाहन रुकें और उनके सामने भीख मांगने वाले न टूट पड़ें। इनमें बुजुर्ग और महिलाओं के अलावा ज्यादातर बच्चे होते हैं। इन बच्चों को देखकर साफ कहा जा सकता है कि उन्हें इस काम के लिए तैयार किया गया है। दस बारह साल की बच्ची या बच्चे की गोद में एक और छोटा सा बच्चा होता है और उसकी दशा बहुत ही दयनीय होती है। या तो वह बच्चा गंभीर रूप से बीमार दिखाई देता है या अत्यंत कुपोषित। इस तरह भावनाएं जगाकर इन मासूमों से भीख मंगवाई जाती है।
इस कॉलम के साथ आप जो फोटो देख रहे हैं वह मैंने सोमवार को ही दिन में करीब पौने बारह बजे राजधानी के लालघाटी इलाके में ली है। जब मैं यह फोटो ले रहा था तभी इसमें दिखाई देने वाले बच्चे की उम्र से थोड़ा ही बड़ा एक अन्य बच्चा अचानक आया और उसने भीख मांगने वाले बच्चे को इशारा करके वहां से भगा दिया। यानी गिरोह के सदस्य इन चौराहो के आसपास ही मौजूद रहते है और जरा सी आशंका होने पर वे तुरंत हरकत में आ जाते हैं।
भीख मांगने वाले बच्चों के समान ही दूसरा मामला इन चौराहों पर जान जोखिम में डालकर छोटे मोटे सामान या अखबार बेचते बच्चों का है। बाल श्रम कानून का खुले आम उल्लंघन करते ये बच्चे कई बार या तो दुर्घटना का शिकार होते हैं या दुर्घटना का कारण बनते हैं। लेकिन न तो यातायात पुलिस को इस बात की चिंता है और न ही बच्चों के कल्याण में लगी संस्थाओं को। बच्चों का इस तरह से शोषण और उन पर होने वाला अत्याचार हमारी पूरी व्यवस्था के माथे पर कलंक है। हम बड़ी-बड़ी योजनाएं चला रहे हैं, बच्चों और बच्चियों से पारिवारिक रिश्ते जोड़ रहे हैं, लेकिन असलियत यह है कि हमारे यहां बचपन या तो कुपोषण से दम तोड़ रहा है या फिर वह चौराहों पर भीख मांगने के लिए मजबूर किया जा रहा है। यदि सरकार और प्रशासन चाहे तो इन चौराहों से ही ऐसे गिरोहों के सारे सुबूत जुटाए जा सकते हैं, वहां लगे सीसीटीवी फुटेज से उन चेहरों का पता लग सकता है जो बच्चों से यह काम करवा रहे हैं, लेकिन यह सब देखने की फुरसत किसी के पास हो तब ना…
इसीलिए मैंने कहा कि हम जिंदा मक्खी निगलने के नहीं बल्कि उसे चबा कर खाने के आदी हो गए हैं… क्या गलत कहा?