मध्‍यप्रदेश में बहुत कठिन है डगर उच्‍च शिक्षा की

मध्‍यप्रदेश में सरकार ने छात्रसंघ चुनाव कराने का फैसला तो कर लिया है लेकिन इसके नतीजों को लेकर शिक्षा जगत से जुड़े लोग ही आशंकित हैं। दरअसल राज्‍य में उच्‍च शिक्षा कई मोर्चो पर समस्‍याओं से उलझ रही है। इन्‍हीं में एक मोर्चा प्रदेश के विश्‍वविद्यालयों का है। कॉलेजों की रामकहानी अपनी जगह है, लेकिन विश्‍वविद्यालय तो खुलेआम शिक्षा-राजनीति का अखाड़ा बने हुए हैं।

पिछले दिनों प्रदेश के नए राज्‍यपाल ओमप्रकाश कोहली ने, जो विश्‍वविद्यालयों के कुलाधिपति भी हैं, प्रदेश में उच्‍च शिक्षा के इन सबसे बड़े केंद्रों की स्थिति जानने के लिए बैठक बुलाई। इसमें कुलपतियों की ओर से सबसे बड़ा जो मामला उठाया गया वह विश्‍वविद्यालयों में धारा 52 लगाकर कुलपतियों को हटाने का था। उनका कहना था कि अगर कुलपति के काम से शासन या कुलाधिपति संतुष्‍ट नहीं हैं, तो उनसे सीधे इस्‍तीफा मांग लिया जाए, लेकिन उन्‍हें हटाकर बेइज्‍जत न किया जाए। दरअसल पिछले कुछ समय से विश्‍वविद्यालयों में धारा 52 के उपयोग की घटनाएं बढ़ी हैं। ऐसा नहीं है कि सभी मामलों में इसका उपयोग अकारण हुआ हो, लेकिन यह भी सच है कि कुलपति यदि ‘अनुकूल’ नहीं है तो उस पर धारा 52 की तलवार हमेशा लटकती रहती है। धारा 52 के उपयोग या दुरुपयोग की आशंका के चलते कुलपति स्‍वतंत्रतापूर्वक काम नहीं कर पाते। इस धारा के इस्‍तेमाल का मामला भी वैसा ही है जैसा राज्‍यों में राष्‍ट्रपति शासन लागू करने के लिए संविधान के अनुच्‍छेद 356 के उपयोग का। जिस तरह 356 को राज्‍य सरकारों के खिलाफ हथियार के रूप में इस्‍तेमाल किया जा रहा है उसी तरह धारा 52 विश्‍वविद्यालय प्रशासन को डराने का जरिया बन गई है।

कुलपतियों की दूसरी शिकायत विश्‍वविद्यालयों में सरकार के बढ़ते हस्‍तक्षेप को लेकर थी। उनका कहना था कि पहले कुलपति और कुलसचिव दोनों ही कुलाधिपति के अधीन होते थे। इससे काम बेहतर समन्‍वय और समझ के साथ होता था। लेकिन जब से कुलसचिवों को राज्‍य शासन के अधीन किया गया है, कुलपति और कुलसचिवों के बीच विवाद और टकराहट की घटनाएं बढ़ी हैं। इससे विश्‍वविद्यालय का प्रशासन सुचारू रूप से चलाने में अनेक कठिनाइयां आ रही हैं। यह मामला भी राजनीतिक हलकों में अकसर दिखाई देने वाली स्थिति जैसा ही है। जिस तरह से मंत्री और सचिव में टकराहट की खबरें आम हैं, उसी तरह कुलपति और कुलसचिव में भी खटपट आम बात हो चली है। जाहिर है जब सारी ऊर्जा एक दूसरे को निपटाने या साधने में ही लगी रहेगी, तो बाकी कामों के लिए समय और ऊर्जा कहां से आएगी?

एक मामला विश्‍वविद्यालय में कुलपतियों की नियुक्ति से भी जुड़ा है। मध्‍यप्रदेश के राजभवन में अब तो व्‍यवस्‍था बदल गई है, लेकिन पिछली व्‍यवस्‍था में कुलपतियों की नियुक्ति के आधार को लेकर कई किस्‍से शिक्षा जगत की हवाओं में आज भी तैरते मिल जाएंगे। राजभवन को इस पर भी ध्‍यान देना होगा कि, कुलपतियों की नियुक्ति की प्रक्रिया और कुलपतियों का चयन इस तरह हो कि किसी को उंगली उठाने का मौका न मिले। न कुलपति की योग्‍यता पर और न ही चयन में राजभवन की भूमिका पर।

विश्‍वविद्यालय परिसरों की नई मुश्किल यह है कि पहले से ही तनावपूर्ण चल रहे वहां के माहौल में छात्रसंघ के रूप में अब तीसरा पक्ष भी जुड़ने जा रहा है। अब विवि प्रशासन और वहां की व्‍यवस्‍था में कुलपति और कुलसचिव के अलावा एक तीसरी ताकत भी मौजूद होगी। कहना मुश्किल है कि इस तीसरे पक्ष के आ जाने से हालात क्‍या बनेंगे। हमने कल के अपने कॉलम में छात्र संगठनों से अपेक्षा की थी कि, अब यह सुनिश्चित करना उनकी जिम्‍मेदारी है कि छात्रसंघ शिक्षा परिसरों में अराजक स्थिति का कारण न बनें।

शिक्षा जगत से जुड़े लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्‍या वास्‍तव में शिक्षा परिसरों में अकादमिक वातावरण बनाने में सहयोग की उम्‍मीद छात्रसंघों से की जा सकती है? यह सवाल बहुत गंभीर है। इससे जुड़ी आशंकाएं निराधार भी नहीं हैं। जिन परिस्थितियों में प्रदेश में छात्रसंघ चुनाव की गतिविधियों पर रोक लगाई गई थी, यदि वे ही परिस्थितियां फिर से निर्मित होती हैं, तो प्रदेश की उच्‍च शिक्षा व्‍यवस्‍था के लिए वे कोढ़ में खाज ही साबित होंगी। नए कुलाधिपति ने कुलपतियों से अपेक्षा की है कि वे शिक्षक की भूमिका निभाएं और एक दिन में एक क्‍लास जरूर लें। देखना होगा कि कुलसचिवों से चलने वाली तकरार, उच्‍च शिक्षा विभाग और राजभवन की खींचतान के बाद, नई परिस्थितियों में छात्रसंघों के दबाव के बीच, कुलपतिगण, महामहिम की इस इच्‍छा को कैसे व कितना पूरा कर पाते हैं।

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