शासन-प्रशासन की कार्यप्रणाली और नौकरशाही के रवैये को लेकर पिछले कई महीनों से पार्टी के भीतर और बाहर दोनों जगह आलोचना झेल रही मध्यप्रदेश की शिवराजसिंह सरकार ने राज्य में प्रशासनिक सुधार आयोग के गठन का फैसला किया है। यह आयोग प्रशासनिक ढांचे के कामकाज को और अधिक पुख्ता और जनोन्मुखी बनाने के बारे में अपनी सिफारिशें देगा।
मुझे याद आता है कि हमारे मध्यप्रदेश के ही प्रख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी ने कहीं लिखा था कि जब भी कोई समस्या ‘खड़ी’ होती है सरकार उस पर एक आयोग (या कमेटी) ‘बिठा’ देती है। खड़े होने और बैठने की क्रिया को लेकर शरद जी के इस व्यंग्य में बहुत गहराई है। लगता है सरकार ने भी कुछ कुछ वैसा ही फैसला किया है।
राज्य की पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच ने सरकार के इस फैसले पर बिलकुल ठीक प्रतिक्रिया दी है। वे कहती हैं कि- ‘’इस आयोग से क्या होगा? कुछ लोगों को काम मिल जाएगा। उन्हें कुछ महीनों तक तनख्वाह मिलती रहेगी। यदि प्रशासनिक सुधार किया ही जाना है तो फैसले तेजी से होने चाहिए। यह आयोग बनाने का नहीं तत्काल फैसले लेकर उन पर अमल करने का समय है। आयोग बनाने का मतलब है काम को लंबे समय तक टाल देना। हमने पहले भी कई मामलों में कई आयोग बनाए हैं। हमारा अनुभव है कि अव्वल तो ऐसे आयोग अपनी सिफारिशें करने में लंबा समय लेते हैं और जब वे सिफारिशें आ जाती हैं तो उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। आयोग बनाने का जमाना गया, अब तो तुरंत एक्शन चाहिए। खुद मुख्यमंत्री एवं उनके मंत्री अनुभवी हैं। वे जानते हैं कि समस्याएं क्या हैं और कौनसे सुधार करने चाहिए। यह निर्णय तो वे ही ले सकते हैं।‘’
निर्मला बुच की इस टिप्पणी के बाद राज्य में प्रशासनिक सुधार आयोग बनाने के फैसले पर और ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं बचती। दरअसल मध्यप्रदेश में समस्या प्रशासनिक सुधार की नहीं प्रशासन को सुधारने की है। यह घोड़े और सवार के रिश्ते का मामला है। पहले तो आप यह तय कर लें कि आप घोड़े की पीठ पर सवार हैं भी या नहीं। और फिर इस बात का आकलन करें कि घोड़ा आपकी कमांड पर चल रहा है या नहीं।
पिछले दिनों हमने इसी कॉलम में खुद मुख्यमंत्री की एक बहुत ही सख्त टिप्पणी का जिक्र किया था। मुख्यमंत्री ने अफसरों से कहा था कि- ‘’मैं जो भी बात या घोषणा करूं उसे पत्थर की लकीर समझा जाए। फिर उसे फाइलों या टेबलों में घुमाने की प्रथा बंद की जाए।‘’ इसी टिप्पणी के संदर्भ में हमने यह भी बताया था कि इसी राज्य में द्वारका प्रसाद मिश्र, गोविंदनारायण सिंह, प्रकाशचंद सेठी, अर्जुनसिंह, ओमप्रकाश सखलेचा और सुंदरलाल पटवा जैसे मुख्यमंत्री भी रहे हैं और इनमें से शायद कभी किसी को अफसरों से यह कहने की जरूरत नहीं पड़ी कि- मेरा कहा मानिए…
मुख्यमंत्री का बयान खुद बताता है कि राज्य की नौकरशाही किस हद तक निरंकुश हो गई है। ऐसे में नया आयोग क्या कर लेगा और उसकी सिफारिशें आने तक प्रदेश के राजनीतिक व प्रशासनिक हालात क्या होंगे कहना मुश्किल है। राज्य में इससे पहले 1972 में नरसिंहराव दीक्षित की अध्यक्षता में प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन किया गया था। उस आयोग ने नौ खंडों में अपनी सिफारिशें सौंपी थीं। हालांकि सिफारिशों की संख्या तो बहुत अधिक थी लेकिन बानगी के तौर पर सिर्फ एक सिफारिश का जिक्र यहां पर्याप्त होगा। दीक्षित आयोग ने कहा था कि- ‘’विकास खंड को प्रशासन और योजना की प्राथमिक इकाई बनाया जाना चाहिए। प्रशासन के निचले स्तर तक अधिकारों का विकेंद्रीकरण अत्यंत आवश्यक है।‘’
इस बात को ध्यान में रखते हुए कि ये सिफारिशें 44 साल पहले की गई थीं, जरा आज की स्थिति पर नजर डालिए। क्या आज भी हम वास्तविक रूप में विकास खंड को प्रशासन और योजना की प्राथमिक इकाई बना पाए हैं? क्या प्रशासन में निचले स्तर तक अधिकारों का विकेंद्रीकरण कहीं दिखाई देता है? आज भी हालत यह है कि विकास खंड से योजना बनकर आना तो दूर, मुख्यमंत्री को राजधानी में बैठे अफसरों को यह कहते हुए हकालना पड़ता है कि यहां मत बैठे रहो जरा गांवों में जाकर वहां की स्थिति से रूबरू होओ। सच तो यह है कि विकेंद्रीकरण के बजाय सारी प्रशासनिक सत्ता वल्लभ भवन (मंत्रालय) तक सिमट कर रह गई है। गांव के यथार्थ और सत्ता केंद्र के बीच सूचना और संपर्क के अभाव का सबसे ताजा नमूना श्योपुर जिले में कुपोषण से हुई 19 बच्चों की मौत है।
निर्मला बुच का यह कथन भी बेमानी नहीं है कि ‘’ऐसे आयोगों से कुछ लोगों काम मिल जाएगा।‘’ आयोग की घोषणा के साथ ही यह कयास भी लगने लगे हैं कि कहीं इसमें वर्तमान मुख्य सचिव के भावी पुनर्वास की मंशा तो नहीं छिपी है।
कुल मिलाकर यह समय आयोग-आयोग खेलने का नहीं, डटकर काम लेने की हठयोगिक साधना का है।प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार के तार बिछाने से कुछ नहीं होगा। तार में करंट भी बहना चाहिए।