हिंदी साहित्य के अमर हस्ताक्षर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी बरसात के दिनों में अपने खेतों में घूमने गए। वहां गांव के मजदूर परिवारों की कुछ महिलाएं घास काट रही थीं। द्विवेदी जी को देखकर उन्होंने घास काटना बंद कर दिया और सकुचाते हुए सिर झुकाकर खड़ी हो गईं। द्विवेदी जी कहने लगे, ‘आप निश्चिंत होकर घास काटती रहो, मैं तो खेतों की हरियाली देखने आया हूं।’ इतना कहकर द्विवेदी जी खेत की मेड़ पर टहलने लगे।
तभी घास काटती एक महिला को सांप ने काट लिया। द्विवेदी जी दौड़कर उसके पास गए, आव देखा न ताव झट से अपना जनेऊ तोड़कर पैर में सांप द्वारा काटे गए स्थान से थोड़ा ऊपर कसकर बांध दिया। फिर उस महिला की घास काटने की दरांती से उस स्थान पर चीरा लगाकर जहरीला खून बाहर निकाल दिया और उस महिला की जान बचा ली।
इतनी देर में गांव के कई लोग इकट्ठा हो गए। उनमें कई पंडित लोग भी थे। वह सभी चर्चा करने लगे, ‘ब्राह्मणों का धर्म तो आज भ्रष्ट हो गया। महावीर ने बड़ा अनर्थ कर दिया। इसने ब्राह्मण होकर जनेऊ जैसी पवित्र चीज को एक अछूत स्त्री के पैर से छुआ दिया। अब कौन ब्राह्मणों का सम्मान करेगा?’
ब्राह्मणों की ऐसी बातें सुनकर द्विवेदी जी बोले, ‘इस जनेऊ के कारण ही एक स्त्री की जान बच गई। आप लोगों को आज इस जनेऊ पर फख्र होना चाहिए। मुझे इस बात की खुशी व गर्व है कि आज मेरा ब्राह्मण-कुल में जन्म लेना सार्थक हो गया। अब से पहले इस जनेऊ की कीमत ही क्या थी। आज से पहले यह यज्ञोपवीत एक प्रतीकमात्र था। परंतु आज इसने असलियत में इस महिला की जान बचाकर अपनी उपयोगिता साबित कर दी। अब मैं इस जनेऊ को सदैव अपने हृदय से लगाकर रखूंगा।’
द्विवेदी जी की बातों का किसी के पास कोई जवाब नहीं था।
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यह प्रसंग हमारे पाठक श्री प्रमोद उपाध्याय ने प्रेषित किया है।