सबसे पहले तो इस बात पर संतोष व्यक्त कर लें कि मध्यप्रदेश का वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व आज भी जनता की आवाज के प्रति संवेदनशील है। मुख्यमंत्री ने पिछले कुछ माह में जिस तरह जनता की भावनाओं को देखते हुए अपनी सरकार या अपने अधीनस्थों के जनविरोधी फैसलों को वापस लिया है वह बताता है कि सरकार अडि़यल नहीं है। फैसला वापसी की हालिया शुरुआत भोपाल के हरे भरे इलाके शिवाजी नगर में स्मार्ट सिटी बनाए जाने के फैसले को रद्द करने से हुई थी। उसके बाद विधानसभा भवन के नजदीक सैकड़ों पेड़ों को काटकर विधायक आवास बनाने का फैसला रद्द किया गया और अब भोपाल शहर में नया कत्लखाना बनाने का फैसला भी शिवराजसिंह ने जनविरोध के चलते रद्द कर दिया है। लोगों की आवाज सुनना या उनकी भावनाओं की कद्र करने का लचीलापन रखना, किसी
भी राजनीतिक नेतृत्व की परिपक्वता की निशानी है। कई बार सिर्फ और सिर्फ अडियल रुख के कारण ही छोटी से बात भी इतना गंभीर रूप ले लेती है कि फिर संभाले नही संभलती।
लेकिन राजनीतिक नेतृत्व के इस परिपक्व फैसले पर संतोष के साथ ही कई बातें ऐसी भी हैं जो पूरी व्यवस्था के प्रति तीव्र असंतोष पैदा करती हैं। जिन तीन मामलों का हमने ऊपर जिक्र किया उन तीनों ही मामलों में एक बात कॉमन है कि शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व को विभागों, निकायों और नौकरशाही ने बुनियादी तौर पर अंधेरे में रखा। स्मार्ट सिटी मामले में कहा गया कि स्थान का चुनाव जनमत संग्रह के बाद किया गया है जबकि यह सरासर झूठ था। या यूं कहें कि फैसला पहले कर लिया गया था और उस पर ठप्पा लगवाने के लिए जनमत संग्रह का नाटक किया गया। विधायकों के आवास मामले में भी राजनीतिक नेतृत्व को सही स्थिति से अवगत नहीं कराया गया। वो तो इस योजना के लिए सैकड़ों पेड़ काटे जाने की खबर समय रहते मीडिया में आ गई वरना अफसरशाही ने तो अपना काम कर ही डाला था। और कत्लखाने के ताजा मामले में तो खुद मुख्यमंत्री ने अप्रत्याशित तौर पर अपने चहेते मुख्य सचिव एंटनी डिसा पर ही तीखी नाराजी जाहिर करते हुए कह दिया- ‘’स्लॉटर हाउस कहां बने, कहां नहीं, यह फैसला आप लोग कैसे ले रहे हैं? नीति बनाना और फैसले लेने का काम सरकार का है।‘’
मंत्रियों और अफसरों की बैठक में जताई गई मुख्यमंत्री की यह नाराजी, प्रदेश की उसी स्थिति को उजागर करती है जिसकी चर्चा पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व भाजपा आलाकमान के शीर्ष नेताओं के साथ प्रदेश के जनप्रतिनिधियों की बैठक में हुई थी। जनप्रतिनिधियों ने साफ तौर पर कहा था कि प्रदेश में अफसर ही राज चला रहे हैं। न मंत्रियों की सुनी जाती है न विधायकों की और न सांसदों की। अपनी ही सरकार की प्रशासनिक व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करने वाले सत्तारूढ़ दल के नेताओं के आरोप समय समय पर सच साबित भी होते रहे हैं। यह स्थिति न तो किसी सरकार के लिए ठीक है और न ही उस पार्टी के लिए जो लगातार एक दशक से भी अधिक समय से प्रदेश पर राज कर रही हो, जिसे ढाई साल बाद फिर जनता के पास जाना हो और जिस पर एंटी इन्कंबंसी का गंभीर खतरा मंडरा रहा हो।
दरअसल मामला चाहे नीतिगत हो या प्रशासनिक, फैसले लेते समय उसके दूरगामी परिणामों के बारे में सोचा ही नहीं जा रहा है। फौरी तौर पर वाहवाही (या कुछ और) लूटने के चक्कर में प्रदेश की विकास योजनाओं और जनधन को ठिकाने लगाया जा रहा है। सुविचारित या सुनियोजित प्लानिंग का नितांत अभाव दिखाई देता है। जैसे भोपाल के स्लॉटर हाउस या कत्लखाने का ही मामला ले लें। इसको लेकर नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने सितंबर 2015 में आदेश दिया था कि जून 2016 तक इसे शहर से बाहर कर दिया जाए। अफसरशाही की ढीलपोल के चलते मामला लटका रहा और जब पानी सिर के ऊपर से गुजरने की नौबत आ गई तो, कत्लखाने को शहर से बाहर ले जाने के बजाय, शहर के बीचोंबीच ही किसी दूसरी जगह पर और बड़ा कत्लखाना बनाने की योजना का खाका ट्रिब्यूनल को दे दिया गया। यह हद दर्जे की या यूं कहें कि आपराधिक लापरवाही है।
एक बात और, मुख्यमंत्री ने तो कह दिया कि कत्लखाना शहर में नहीं बनेगा। लेकिन यदि शहर में नहीं बनेगा तो कहीं और बनेगा। कत्लखाने को शहर से बाहर ले जाने की बात ही इसलिए उठी थी कि इससे पर्यावरण को नुकसान होता है, खासतौर से इसके कारण भारी वायु प्रदूषण फैलता है। अब आप इसे चाहे जहां ले जाएं, यह कत्लखाना भोपाल शहर से हटकर आसपास के किसी गांव के नजदीक बने या किसी और शहर के नजदीक, लेकिन क्या वहां के लोगों को वह परेशानी नहीं होगी जो इस कत्लखाने के कारण भोपाल के लोगों को हो रही थी। भोपाल को सुरक्षित रखकर आप यह कत्लखाना यदि कहीं और भी बनाएंगे तो इस सवाल का जवाब भी आपको देना होगा कि क्या यह सरकार केवल राजधानी में रहने वाले रसूखदार लोगों के दबाव के सामने ही झुकती है? क्या प्रदूषण की मार राजधानीवासियों पर ही पड़ती है बाकी लोगों पर नहीं?या फिर हमने बाकी लोगों को गिनीपिग मान लिया है?